‘इस सबसे ऊपर हमें जो सोचना है, वह यह है कि कैसे रफ्तार कम की जाए’ – अमिताव घोष
(क्या आप इस बात से चिंतित हैं कि दुनिया का अन्त हमारे सिर पर हैॽ लेकिन दुनिया है क्या ॽ अमिताव घोष संकेत करते हैं कि कई सारी दुनियाएँ हैं: कुछ पहले ही खत्म हो चुकी हैं और कुछ खत्म हो रही हैं। जबकि दूसरी दुनियाएँ पुन: जन्म ले रही हैं।)
इन अनुपात में पहले कभी अनुभव न की गई वैश्विक त्रासदी में परिणत हो चुकी कोविड – 19 महामारी पर विचार करते हुए हमारे ग्रह की दशा पर सलाह मांगने और संभावनाओं के लिए मैंने अपने परामर्शदाता और साथी लेखक अमिताव घोष की ओर रुख किया।
जब हमने किसी दूसरे दिन बातचीत की थी तो आपने अनुमान लगाया था कि ‘दुर्भाग्य से मैं इस बात को लेकर सुनिश्चित हूँ कि चीजें बदतर होने जा रही हैं।’ चीजों को आज की तुलना में किस तरह से आप अब और बदतर होते देखते हैं ॽ
कई तरह से वर्तमान स्थिति कहीं ज्यादा खराब हो सकती थी। सिर्फ कल्पना कीजिए कि क्या घटित हो अगर कोई बड़ा शहर चक्रवात या वनाग्नि (महामारी से कुछ ही महीने पहले जो घटित हो रहा था) के कारण संकट में घिर जाए। किसी भी स्थिति में अब यह बिल्कुल साफ़ है कि महामारी को नियंत्रित करने के लिए उठाए गए कदम कई देशों में काफ़ी ज्यादा निर्धनता का कारण बनेंगे, भारत बिल्कुल उनमें से एक होगा। बदतर होती स्थितियों के प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया क्या होगी ॽ हम इस बिंदु पर नहीं जानते, लेकिन अगर हम पर्यावरणीय उथल-पुथल के महान युग की ओर, 17 वीं शताब्दी में लम्बे समय तक रहे कथित संक्षिप्त हिम युग की ओर पीछे झांके, तो हम महामारी, अकाल, युद्ध, क्रांति और सामाजिक टूटन के एक वास्तविक भयावह चक्र को पाएंगे।
कुछ कहेंगे कि यह दुनिया उस पहले की दुनिया की तुलना में ज्यादा लचीली है। लेकिन यह भी तर्क किया जा सकता है कि तब की तुलना में आज दुनिया कहीं ज्यादा नाजुक है। हमारे तंत्र की बहुत सारी अविश्वसनीय जटिलताओं के कारण ऐसा आसानी से हो जाता है (विस्थापित भारतीय मजदूरों की जो दुर्गति हुई है, वह इसका एक उदाहरण है)। कोरोना वायरस संबंधी बन्दी के कारण यू.एस. समेत बहुत से देशों में खाद्य वितरण तंत्र कितना प्रभावित हुआ है, यह देखना भी हिदायतभरा रहा है। वैश्विक खाद्य व्यवस्था कमजोर है और मेरा सबसे बड़ा डर ठीक अभी खाद्यान्न संकट को लेकर ही है।
यह भी पढ़ें- ‘चीन पर आरोप लगाना आसान है, किन्तु भारत का वन्यजीव व्यापार भी फल-फूल रहा है’
अपने अधिकांश लेखन में आप आपदाओं के जरिए संदेश भेजने वाली धरती के बारे में बात करते हैं – कलकत्ता क्रोमोसोम में पहले ही आपने किसी उपास्य ईश्वर की भांति अपनी खुद की आत्मा रखने वाली एक किस्म की सत्ता के रूप में मलेरिया की अवधारणा का संकेत दिया था। लेकिन हम इन संदेशों को कैसे व्याख्यायित करें : गुस्सैल घुड़कियों के रूप में या वेदनाभरी प्रार्थनाओं के रूप में अथवा सख़्त निर्देश के रूप में ॽ अगर हम क्षति पहुँचाने वाली बाढ़ों, सुनामियों, वन्य अग्नियों के बारे में साचें तो वे निश्चय ही विनम्र अनुरोध नहीं हैं। अथवा क्या धरती कह रही है कि : इतना मूर्खतापूर्ण, दूरदृष्टि रहित, अहंकार से भरा व्यवहार करने के लिए आपके पास दोष देने के लिए आप खुद ही हैं ॽ
पर्यावरण संकट के कहीं ज्यादा सकारात्मक आयामों में से एक यह है कि इसने यह स्पष्ट कर दिया है कि धरती एक निष्क्रिय सत्ता नहीं है। जेम्स लव्लॉक, जिन्होंने (लिन मार्गुलिस के साथ मिलकर) गाइआ परिकल्पना दी, की तुलना में किसी ने इतने स्पष्ट ढंग से इसे नहीं कहा है। उनके ‘व्हाट इज गाइआ’ के नाम से जाने गये लेख की कुछ पंक्तियाँ यहाँ हैं : ‘‘बहुत पहले यूनानियों ने …. पृथ्वी को गाइआ (Gaia) या संक्षेप में ये (Ge) नाम दिया। उन दिनों विज्ञान और धर्मशास्त्र एक थे और विज्ञान यद्यपि कम सटीक था, किन्तु उसके पास हृदय था। समय गुजरने के साथ यह निकट संबंध ओझल होता गया और इसका स्थान स्कूलवालों के रूखेपन ने ले लिया।
जीव विज्ञान अब जीवन के साथ संबद्ध नहीं रहा, मृत चीजों के वर्गीकरण में पड़ गया और यहाँ तक जीवच्छेदन तक भी … अब कम से कम बदलाव के कुछ संकेत हैं। विज्ञान पुन: साकल्यवादी होता जा रहा है और पुन: आत्मा और धर्मशास्त्र की खोज में है। और सार्वभौमिक ताकतों से संचालित हो उसने यह मानना शुरु कर दिया है कि अकादमिक सुविधा के लिए गाइआ का उपविभाजन नहीं किया जाना है और ‘ये’ एक उपसर्ग से कहीं ज्यादा है।’’
लव्लॉक के विचारों की लम्बे समय तक वैज्ञानिकों द्वारा जो आलोचना की गई और उनका जो मजाक उड़ाया गया, वह सिर्फ गाइआ जो पृथ्वी की यूनानी देवी थी, उस नाम को लेकर उनकी पसंद के लिए ही न था। अपितु यह सब उस कारण को लेकर था, जिसके चलते उन्होंने इस नाम का चयन किया था। और वह कारण यह था कि ये उसके समकक्ष अवधारणा आधुनिक तकनीकी वैज्ञानिक शब्दावली में न पा सके थे ; उन्हें देवी के रूप में पृथ्वी के मानवीकरण की ओर पीछे लौटना पड़ा था।
यह भी पढ़ें- लोकोपयोगी पहल बनाम खैरात
विचारों के लिए यह चीज निश्चय ही आहार है, किन्तु कई बार इस ग्रह पर मनुष्य की तुलना कैंसर से, एक बुरे वायरस से की जाती है। आप इसे लेकर क्या सोचते हैं ॽ क्या गाइआ के दृष्टिकोण से हम वायरस हैं ॽ
इसका मतलब निकलता है कि मानव इतिहास का एक, सिर्फ एक ही विकास पथ हो सकता था। मैं नहीं मानता कि यह सत्य है। यहाँ तक कि पूँजीवाद के भी कई मार्ग थे, उनमें से कुछ एंग्लो-अमेरिकी मॉडल की अपेक्षा तथाकथित पूर्वी एशियाई मॉडल की तरह संसाधनों पर कम केंद्रित थे। चीजें भिन्न हो सकती थीं अगर हमारे हतिहास के कुछ मुख्य अध्याय उस रूप में न घटे होते, जैसे कि : अमेरिका पर फतह कायम करना, 18 वीं और 19 वीं सदी के वैश्विक वर्चस्व में ब्रिटेन का उभार और सबसे बढ़कर 1990 के बाद वाशिंगटन समझौते पर लगभग सार्वभौमिक स्वीकृति।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि आधी से ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें जो आज पर्यावरण में हैं, वे सिर्फ पिछले तीस सालों में ही वहाँ आई हैं। इस अवधि को ‘महान बढ़ोतरी’ कहा गया और यह सटीक बैठने वाला नाम है। कारण कि मेरा मानना है कि हमारे सारे संकट इसी बढ़ोतरी के परिणाम हैं – पर्यावरण विनाश, विस्थापितों का संकट, और निश्चय ही यह अनूठी कोरोना वायरस महामारी।
यह भी पढ़ें- महिला मतदाता पहले की तुलना में बहुत ज्यादा महत्व रखती हैं – प्रणय रॉय
लेकिन भारत में रहते हुए, जैसा कि हम होते हैं, मैं पानी की स्थिति या इसकी कमी को लेकर चकित हूँ। यह सबसे ज्यादा ज्वलंत मुद्दा लगता है यानी कि हम ढेर सारा बर्बाद करते रहते हैं और जितना हमें चाहिए, उससे ज्यादा इस्तेमाल करने में लगे रहते हैं : पिछले साल चेन्नै इसके बिना पूरी तरह ठहर गया और किसान निश्चय ही लम्बे समय से इसकी अनुपस्थिति पर ध्यान दिये हुए हैं। चूँकि आपने पानी से संबंधित विषयों में विशेष रुचि ली है (उदाहरण हेतु दि हंगरी टाइड में), तो क्या आप नहीं कहेंगे कि यही मुख्य समस्या हैॽ
मैं निश्चय ही कहूँगा कि पानी की समस्या भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे प्रबल समस्या है। यह भूजल के विषय में विशेष रूप से सत्य है। भारत चीन और यू.एस. समेत किसी भी अन्य देश से ज्यादा भू जल इस्तेमाल करता है ; इसकी अर्थव्यवस्था मूलत: भूजल वाली अर्थव्यवस्था है। यह विश्व स्तर पर दोहित कुल भूजल का एक चौथाई काम में लेता है। लेकिन भूजल तत्वत: जीवाश्मीय जल है और एक बार जब इसका दोहन कर लिया जाता है, तो उसके प्रतिस्थापन में एक लंबा समय लगता है।
आज भारत (और पाकिस्तान) उस स्थिति में हैं जहाँ उनका सबसे महत्वपूर्ण जलवाही स्तर, ऊपरी गंगा का जलवाही स्तर गंभीर रूप से चूस लिया गया है। सरकार के अपने अनुमानों के मुताबिक इस साल किसी वक्त नई दिल्ली में पानी का अभाव हो जाना तय है। यह शहर पहले ही पानी को लेकर संघर्ष झेल चुका है और इस मामले में इसका भविष्य दारुण दिखता है।
फिर, इनमें से किसी के बारे में कुछ भी अपरिहार्य न था। अनापेक्षित परिणामों के तूफान के कारण यह स्थिति बनी है। हरित क्रांति से पहले भारतीय कृषि में भूजल का हिस्सा अभी के हिस्से से आधा था। पचास के दशक में सामाजिक न्याय के शुभ हेतु से यह तय किया गया कि किसानों को अनूदित विद्युत दी जानी चाहिए। अत: विद्युत जल पंपों के इस्तेमाल में भारी उछाल आया और सतही सिंचाई की उपेक्षा की गई। आज ऐसे किसान हैं जो उन टैंकर मालिकों को बेचने के लिए भूजल को उलीचने में अपना दिन बिताते हैं, जो शहरों में इसे बेचकर मुनाफा कमाते हैं। वे जानते हैं कि जल्द ही पानी खत्म हो जाएगा लेकिन फिर भी वे ऐसा करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अगर वे नहीं करेंगे, तो उनका पड़ोसी करेगा।
जो हम देख रहे हैं, वह तबाही का सामने आना ही है।
तो क्या यह वायु प्रदूषण और पानी से जुड़े मुद्दों का घातक संयोजन है, जिनसे हमें सावधान रहना चाहिए?
जैसा कि हम भारत के अनुभवों से देख सकते हैं, वायु की गुणवत्ता के विनाशकारी हो जाने पर भी इसे सामान्य तौर पर लिया जाना संभव है। मनुष्य शरीर कम से कम थेड़ी देर के लिए खराब हवा के साथ भी सामंजस्य कर लेता है। मनुष्य कुछ सप्ताह के लिए बिना भोजन के भी रह सकता है। लेकिन मनुष्य का शरीर किसी भी स्थिति में पानी की कमी के साथ तालमेल नहीं बैठा सकता।
ये सारे संकट सजातीय हैं, यद्यपि इनके बीच कोई प्रत्यक्ष सहेतुक सूत्र नहीं है।
यह भी पढ़ें- जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी
तो, क्या इस ग्रह के साथ हर चीज गलत ही है ॽ क्या आशा की कोई झलक नहीं है जो आप देखते हों ॽ
वैयक्तिक रूप से मेरा मानना है कि ‘आशा / निराशा’ के खाँचे से हमारी दुनिया की स्थिति को देखना फायदेमंद नहीं है। हमारे लिए उन संकटों को थामना जरूरी है जो हमारे चारों ओर घटित हो रहे हैं क्योंकि ऐसा करना हमारा दायित्व है, सिर्फ किसी जादुई समाधान के होने या न होने से के कारण ही यह जरूरी या गैर जरूरी नहीं हो जाता है।
ठीक है, किन्तु यह मानते हुए कि दुनिया का अन्त निकट ही है – हम इसके कब घटित होने की उम्मीद कर सकते हैं ॽ अथवा क्या यह घटना पहले ही शुरु हो चुका है और हम इसे अपनी आँखों के सामने होते देख रहे हैंॽ
‘यह दुनिया’ सबके लिए एक ही नहीं है। बहुत सी दुनियाएँ हैं : कुछ पहले ही खत्म हो चुकी हैं और कुछ खत्म हो रही हैं जबकि दूसरी दुनियाएँ जन्म ले रही हैं। कई बार इसकी ओर संकेत किया गया है कि बहुत सारे देशज लोगों के लिए वह दुनिया पहले ही खत्म हो चुकी है जिसे वे जानते थे। लेकिन वे अपना अस्तित्व बचाने में सफल रहे हैं और नई दुनियाओं का सृजन करने में उन्होंने अपने अनुभवों से लाभ लिया है। मेरा मानना है कि इस वक्त उनसे सीखने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है।
कई बार दुनियाएँ छोटे-छोटे तरीकों से खत्म होती हैं और शुरु होती हैं। अपने जीवन के अधिकांश वक्त मैं एक विशिष्ट किस्म के साहित्यिक संसार में रहा, एक ऐसा संसार जो कुछ ख़ास दस्तूरों और पद्धतियों का अनुसरण करता था। जब मैंने पर्यावरण परिवर्तन के यथार्थ को समझना शुरु किया तो वह संसार मेरे साथ ही खत्म हो गया। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैंचे चिंतन करना या लिखना बंद कर दिया, स्थिति तो इसके बिल्कुल विपरीत है। तो आप कह सकते हैं कि एक दुनिया का जाना दूसरी दुनिया के जन्म का रास्ता साफ करता है।
यह बहुत ही रोचक है। जैसा कि वर्तमान संकट को लेकर आप पहले मुझसे बोले थे कि : ‘‘मैं मानता हूँ कि हमें जीवन के अपने तौर-तरीकों, यात्रा की अपनी योजनाओं और इसी प्रकार की दूसरी चीजों को लेकर सब कुछ दुबारा से सोचना है।’’ इस पुनर्चिंतन को ठोस शब्द देने के लिए इस संदर्भ में आप हर व्यक्ति की जबावदेही को कैसे देखते हैं ॽ
मेरा मानना है कि शुरु में ही हमें यह पहचानने की जरूरत है कि विश्वव्यापी संकट सामूहिक कार्रवाई की अपेक्षा रखता है। अब यह स्थापित हो चुका है कि जीवन शैली में वैयक्तिक बदलावों से इसका समाधान किया जा सकता है, यह विचार एक विज्ञापन कंपनी द्वारा गढ़ा गया था ताकि जीवाश्मीय ईंधन से जुड़ी कंपनियों को नियमन का विषय न बनाया जाए। अगर हम क लोकतंत्र में रहते हैं तो उस अर्थ में हमारा सर्वाधिक महत्वपूर्ण दायित्व है – हमारे राजनेताओं पर जिम्मेदारी उठाने का दबाव डालना।
ठीक इसी समय, हमारी जीवन शैली में बदलाव लाना भी जरूरी है, कारण कि यह चीज कम से कम हमारे अपने मानस में और दूसरों के मानस में महत्वपूर्ण बिंदुओं को प्रमुखता दिलाती है। मेरे दिमाग के लिए, ग्रेटा थनबर्ग का रास्ता अनुकरणीय है : जिस समय उसने वैश्विक राजनीतिक आंदोलन को जन्म दिया है, उसी समय उसने जीवन शैली में महत्वपूर्ण बदलाव भी ला दिए हैं।
क्या आप लोगों के साथ कोई सुलभ सुझाव साझा कर सकते हैं जो व्यक्ति के रूप में वे क्या कर सकते हैं, को लेकर जानना चाह रहे होंॽ उदाहरण के लिए, आप क्या पुनर्चिंतन कर रहे हैंॽ
ईमानदारी से तो जब यह बन्दी शुरु हुई तो मुझे राहत जैसी कुछ अनुभूति हुई, वही अनुभूति जो दीर्घकालीन अति सक्रियता उपरांत थकान के बाद बीमार पड़ जाने पर किसी को होती है। अचानक यह स्पष्ट हो गया कि हम असावधानीवश गति वृद्धि के सर्पीले चक्र में बिल्कुल ही फंस गए थे। और निश्चय ही वैश्विक स्तर पर यह गति बृद्धि ही है जो इस महामारी के पीछे है। इस सबसे ऊपर हमें जो सोचना है, वह यह है कि कैसे रफ्तार कम की जाए।
रफ्तार कम करना ही यथार्थ में अब सबसे बेहतर चीजों में से एक प्रतीत होती है। आपकी अपनी पुस्तकों के अलावा, क्या दूसरी भी हैं जिन्हें वर्तमान संकट के लिए आप अनुशंसित करेंगे ॽ
बिल्कुल एक पुस्तक है – जे.आर. मैकनियल और पीटर एंगेल्के की ‘दि ग्रेट एक्सीलरेशन’।
क्या यह पर्याप्त होगा कि बड़ी संख्या में एक-एक व्यक्ति पुनर्चिंतन करेॽ मेरे अनुभव के अनुसार, कुछ पर्यावरणवादी गुटों के अलावा बहुसंख्यक लोग पुनर्चिंतक नहीं होते हैं। वे जितनी जल्दी संभव हो सके, उतनी ही जल्दी कोविड – 19 के अनुभवों को भुला देंगे।
मैं मानता हूँ कि दुर्भाग्य से आप सही हैं। महामारियों का इतिहास जो दिखाता है, वह यही है कि ये चीजें लोगों को चित्त में यह लाने के लिए मजबूर कर देती हैं कि वे हर चीज को लेकर दुबारा से सोचेंगे। किन्तु जब वे उभर जाते हैं तो वे जल्द ही चुपचाप अपने पुराने ढर्रों पर लौट जाते हैं।
क्या आप मानते हैं कि विद्वतजन, कलाकार, लेखक इस स्थिति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ॽ हम इस दुनिया को बचाने में ठीक-ठीक विशेषज्ञ नहीं हैं … मेर मतलब है कि लेखक सामान्यत: व्यावहारिक दिमाग वाले नहीं होते हैं। अगर आप किसी लेखक से दीवार में कील ठोकने के लिए कहो, तो संभवत: लेखक के हाथ और दीवार, दोनों का नुकसान हो जाएगा …
लेखकों, कलाकारों और विद्वतजनों की ओर से होने वाली ‘दुनिया को बदलने की’ बयानबाजी को लेकर मैं थोड़ा सा ख़बदरदार रहता हूँ। जैसा कि आपने संकेत किया, हम व्यावहारिक लोग नहीं होते हैं। लेकिन, दूसरी ओर दुनिया अपने स्वप्नदृष्टाओं के बिना कुछ नहीं कर सकती।
जैक ओया द्वारा लिया गया यह साक्षात्कार 26 अप्रैल, 2020 के दि हिंदू में छपा है। बेंगलूरु में रहने वाले मैजेस्टिक ट्रायलॉजी के लेखक जैक ओया साक्षात्कारकर्ता तथा जासूसी उपन्यासकार हैं। लिंक – https://www.thehindu.com/books/what-we-have-to-think-about-above-all-is-how-to-slow-down-amitav-ghosh/article31414696.ece
(अनुवादक :– डॉ. प्रमोद मीणा, आचार्य, हिंदी विभाग, मानविकी और भाषा संकाय, महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, जिला स्कूल परिसर, मोतिहारी, जिला–पूर्वी चंपारण, बिहार–845401, ईमेल – pramod.pu.raj@gmail.com, pramodmeena@mgcub.ac.in; दूरभाष – 7320920958 )