कथित ‘कुलीनतावाद-विरोध’ और जनतन्त्र में आबादी के तर्क का सच!
संयोग से हमने आज ही ‘द वायर’ पर प्रताप भानु मेहता से अपूर्वानंद की साल भर पुरानी वार्ता को सुना। वार्ता साल भर पुरानी होने पर भी राजनीति शास्त्र में दैनंदिन राजनीतिक घटनाक्रमों से सिद्धांत-निर्णय की अकादमिक क्रियाशीलता पर विचार की दृष्टि से गंभीर विचार की अपेक्षा रखती है।
प्रतापभानु मेहता तब दुनिया में दक्षिणपंथ के उदय के पीछे राजनीति में सर्व-समावेशी बहुलतावादी दृष्टि पर आधारित कथित ‘कुलीनतावाद’ की बौद्धिक और राजनीतिक साख के ख़त्म होने की बात को दोहरा रहे थे। जब हम आज साल भर पहले की उनकी उस स्थापना पर गौर करते हैं तो ज़ाहिर हो जाता है कि वह पूरा सिद्धांत जिस ट्रंप के उदय के काल की जिन परिस्थितियों में गढ़ा गया था, आज वही ट्रंप इतिहास के कूड़े के ढेर पर पड़ा हुआ, बतौर एक बदनाम अपराधी राजनीतिज्ञ की तरह, अपने जीवन के दिन गिनता हुआ दिखाई दे रहा है। अर्थात् कहा जा सकता है कि कथित ‘कुलीनतावादी कुटिलता’ के तिरस्कार पर टिका हुआ एक राजनीतिक परिघटना की व्याख्या का सिद्धान्त भी आज ट्रंप की तरह ही शहर के बाहर फेंक दिए जाने वाले कूड़े के ढेर पर पड़ा हुआ दम तोड़ रहा है।
इसी प्रकार, मेहता अपनी वार्ता में लगातार बहुसंख्यकवाद को जनतन्त्र में ‘गिनती’ के महत्व की कथित ‘मूलभूत’ सच्चाई से जोड़ रहे थे। भारत में बहुसंख्यकवादी हिंदुत्व के उदय को वे एक प्रकार से बुनियादी तौर पर उसे हिन्दू आबादी की संख्या की जनतन्त्र की स्वाभाविक उपज बताने की कोशिश कर रहे थे। जब वे यह कह रहे थे, तब भी 2019 के चुनाव में मोदी की जीत के बावजूद उसे देश में हिंदुओं की आबादी के अनुपात के आधे मत भी नहीं मिल पाए थे!
सच यह है कि मनुष्य कभी भी सिर्फ़ एक गिनती या एक शरीर नहीं होता है। मनुष्य की प्राणीसत्ता शरीर के साथ ही उसके भाषाई प्रतीकात्मक जगत से नैसर्गिक तौर पर जुड़ी हुई है। उसकी क्रियाशीलता में अनिवार्य तौर पर किसी न किसी कहानी के संकेतकों का खिंचाव काम करता है, सिर्फ़ उसका शरीर नहीं। कामोद्दीपन की तरह का अबूझ उल्लास भी शरीर के किसी अभाव के मूल्य से प्रेरित होता है। सांकेतिकता के संजाल की प्रेरणाओं के बिना मनुष्य मनुष्य नहीं बनता है। सभ्यता के विकास की पूरी कहानी इसी की गवाही देती है और जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था सभ्यता की उसी विकास यात्रा का एक सबसे महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसीलिए मनुष्य को मवेशियों की तरह मूलत: महज़ एक गिनती मानने वाला सांप्रदायिक सोच जनतन्त्र में सिर्फ़ एक बर्बर भटकाव हो सकता है, उसकी स्वाभाविक उत्पत्ति नहीं। यह माल्थसवादी प्रतिक्रियावादी सोच का ही एक प्रकार कहलाएगा।
आज अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप की पराजय और डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बायडन की जीत तथा बायडन के द्वारा ट्रंप के तमाम प्रतिगामी प्रशासनिक फ़ैसलों को कलम की एक नोक से ख़ारिज कर दिये जाने के बाद ‘कुलीनतावाद-विरोधी’ सिद्धांतों के महल की बुनियाद ही ख़त्म हो चुकी है। बायडन को अमेरिकी सत्ता-प्रतिष्ठान के पारंपरिक कथित कुलीन हलके का बहुत ही जाना-माना प्रतिनिधि कहा जा सकता है। अर्थात्, मात्र चार साल में कुलीनतावाद के अंत ने कुलीनतावाद के लिए जगह बना दी ! ट्रंप ने अमेरिकी राजनीति में जिस अभाव की सृष्टि की उस अभाव की क्रियात्मकता से अमेरिकी उदारतावाद के अपने सत्य के आवर्त्तन में बहुत ज़्यादा समय नहीं लगा।
भारत में भी 2019 के बाद बहुत जल्द ही मोदी कम्पनी को सड़क से लेकर संसद तक में कम बड़ी चुनौतियाँ नहीं मिल रही है। भारत के किसानों का आन्दोलन विश्व इतिहास की एक अनोखी घटना है जो अब न सिर्फ़ मोदी सरकार के पूरे अस्तित्व को ही चुनौती दे रहा है, बल्कि पूंजीवाद के विरुद्ध एक सभ्यतामूलक संघर्ष की पीठिका तैयार कर रहा है। लोक सभा चुनावों में जीतने के बाद भी अब तक एक के बाद एक तमाम विधान सभा चुनावों में मोदी की पराजयों का सिलसिला चुनाव के मोर्चे पर भी उसे मिल रही चुनौतियों को दर्शाता है। यह आश्चर्य की बात नहीं होगी कि मोदी कम्पनी भी ट्रंप की तरह ही पराजित हो कर यहाँ शीघ्र ही इतिहास के कूड़े पर सड़ती हुई अपने दिन गिनती दिखाई देने लगे। और, प्रताप भानु की दृष्टि में आरएसएस की ‘सर्व-व्यापी’ ईश्वरीय सत्ता भी देखते ही देखते भ्रष्ट तत्त्वों का जमावड़ा साबित हो कर पूरी तरह से श्रीहीन हो कर हवा में विलीन हो जाए। हम आरएसएस की रणनीति के उस पूरे इतिहास से वाक़िफ़ है, जिसमें अनुकूल अवसरों पर वह अपनी शक्ति को श्री कृष्ण के ‘विराट रूप’ की तरह बेहद बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है, और थोड़ी सी प्रतिकूलता में ही संस्कृति की खाल में दुबक कर बैठ ज़ाया करता है।
कुल मिला कर, जो सामने दिखाई दे, उसे ही सनातन सत्य मान कर सिद्धांतों के महल तैयार करना एक प्रकार की बौद्धिक दुकानदारी, साफिस्ट्री है। बौद्धिकता का असली काम हमेशा प्रत्यक्ष की दरारों में झांक कर सभ्यता के व्यापक परिप्रेक्ष्य में उसकी गति के लक्षणों को खोजना होता है। वह एक द्वंद्वमूलक क्रियाशीलता है। प्रताप भानु की उस वार्ता को अधिक से अधिक समकालीन राजनीति पर शैक्षणिक अटकलबाजियों का एक अधुना उदाहरण भर कहा जा सकता है।
प्रताप भानु खुद यह स्वीकार रहे थे कि मोदी कम्पनी को चुनावों में पराजित करना कोई कठिन काम नहीं है। यह तो विपक्षी दलों और वामपंथियों की अदूरदर्शिता है, जिसकी वजह से यह पूरी तरह संभव नहीं हो पाता है। इसीलिए, हमारा कहना है कि विपक्ष के राजनीतिक दलों की कार्यनीतिगत कमज़ोरियों के लिए आबादी की संरचना और सभ्यता के मूल्यों में निहित कथित कमज़ोरियों की चर्चा से सिद्धांतों के बड़े-बड़े महल तैयार करना एक ऐसा अकादमिक व्यायाम है जो वैचारिक धुँध के अलावा नया कुछ भी देने में असमर्थ होता है।
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