शोध आलेख

शैलेन्द्र के हिंदी सिनेमाई गीतों का स्त्री-पक्ष

 

  • शोध-सार

हिंदी सिनेमा की विशिष्ट पहचान हैं उसके गीत। गीतों के बिना हिंदी सिनेमा की कल्पना करना बिना नमक के दाल जैसा है। हिंदी भाषी दर्शकों के लिए हिंदी सिनेमा की आस्वादन-प्रक्रिया में इसके गीत वही भूमिका निभाते हैं जो दाल के आस्वादन में नमक। हिंदी सिनेमा ने अपने विकास-क्रम में जिन कुछ अति-महत्वपूर्ण विषयों को अभिव्यक्ति दी है उनमें से एक है स्त्री-जीवन। निश्चय ही इस अभिव्यक्ति में फिल्मी गीतों का प्रयोग एक अनिवार्य साधन के रूप में किया गया है। अब यहाँ एक समस्या यह आती है कि फिल्मों में गीत लिखने वाले गीतकार अधिकांश में (लगभग सभी) पुरुष रहे हैं। ऐसे में शैलेन्द्र, साहिर आदि कुछ गीतकारों—जिन्हें वास्तव में कवि-हृदय प्राप्त था— का दायित्व बढ़ जाता है। प्रस्तुत शोध-आलेख में शैलेन्द्र के फिल्मी गीतों में अभिव्यक्त स्त्री-जीवन के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल की जाएगी। इस आलेख का लक्ष्य उनके गीतों में चित्रित नारी-जीवन के सूक्ष्म बिंदुओं को ढूँढ़ने के साथ उनके उस संवेदनशील कला-कौशल को सामने लाना है जो उन्हें अन्य फिल्मी गीतकारों से अलग कर हिंदी साहित्य की मुख्य-धारा की अग्रिम पंक्ति का अधिकारी बनाता है। यद्यपि शोधार्थी स्तरीय सिनेमा-साहित्य को मुख्य-धारा के साहित्य में शामिल करने का पक्षधर है तथापि जब तक यह तथ्य स्थापित नहीं हो जाता तब तक उपर्युक्त पंक्तियों के आलोक में शोध जारी रखना समीचीन है।

  • बीज-शब्द

हिंदी सिनेमा, फिल्म, सिनेमाई गीत, गीतकार, स्त्री-जीवन, स्त्री-मनोविज्ञान, संवेदना, अभिव्यक्ति, स्वातंत्र्योत्तर, हिंदी साहित्य, कवि-कुशलता आदि।

  • मूल आलेख

हम जानते हैं कि हिंदी सिनेमा अपने गीतों के बिना अधूरा है। गीत हिंदी सिनेमा में हमेशा से अभिव्यक्ति के एक आवश्यक साधन (टूल) के रूप में इस्तेमाल होते आए हैं। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी सिनेमा जब धीरे-धीरे अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था उस समय हिंदी सिनेमा को कुछ शानदार गीतकार मिले। इन्हीं कुछ नायाब गीतकारों में से एक थे कवि शंकर शैलेन्द्र। शैलेन्द्र के फिल्मी गीतों के स्त्री-पक्ष पर बात करने का अर्थ है शैलेन्द्र के स्त्री-विषयक दृष्टिकोण पर बात करना। “जिस तरह प्रेमचंद कहानी लिखते-लिखते कहानी का पर्याय बन गए उसी तरह शैलेन्द्र गीत रचते-रचते गीतों के प्रेमचंद बन गए।”1 यदि हम एक रचनाकार के स्त्री-जीवन के प्रति संवेदनशीलता, उसकी मुक्ति के प्रति गंभीरता, स्त्री-मन की अभिव्यक्ति आदि पक्ष पर विचार करें तो शैलेन्द्र प्रेमचंद से बीस साबित होते हैं। शैलेन्द्र उन विरले लेखकों में से एक हैं जिन्होंने अपने लेखकीय जीवन और व्यक्तिगत जीवन में अलगाव नहीं रखा।

एक रचनाकार की सफलता इसी में है कि वह सरल शब्दों में गंभीर बातें आमजन तक प्रेषित कर सके। शैलेन्द्र में यह विशेषता कूट-कूट कर पाई जाती है। यूनुस खान लिखते हैं कि “शैलेन्द्र की सबसे बड़ी खासियत यह रही है कि वे बिना किसी बौद्धिक जुगाली के आम-जनता के लिए अपनी सीधी-सरल भाषा में ऐसी बात कह जाते थे जो सीधे दिल को छू जाए।”2 हम जानते हैं कि आम जन तक सिनेमा की पहुँच साहित्य की तुलना में अधिक है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को शिक्षित जनता की चित्तवृत्ति तक सीमित रखा है; किंतु सिनेमा अशिक्षित सामान्य जन तक भी अपना संदेश प्रेषित करने में सफल रहा है। आज जब सिनेमा की पहुँच हर वर्ग तक है, ऐसे में सिनेमा के गीतकार का दायित्व दुगुना हो जाता है कि वह अपने गीतों में साहित्यिकता की रक्षा करते हुए सरल-सहज शब्दों में हर तबके तक अपनी बात पहुँचा सके। यहाँ एक चुनौती उसके सामने यह भी होती है कि वह अपने शब्दों में सस्ते मनोरंजन, फूहड़ता, छिछली भावुकता आदि तक ही सीमित न रह जाए। शैलेन्द्र इन सभी चुनौतियों से बड़ी कुशलता से पार पाते दिखते हैं। सिनेमाई गीत-लेखन के तय मानकों में बँधकर भी अपनी इस विशेषता को बचाए रखना शैलेन्द्र के महत्त्व को कई गुना बढ़ा देता है। “शैलेन्द्र ने गीतकारी का अपना मुहावरा रचा। उन्होंने फ़िल्म-स्क्रिप्ट की हदों में रहकर भी अपने गानों में अपने समय और समाज पर तीखी टिप्पणी की।”3

शैलेन्द्र हिन्दी फिल्म के उस दौर के गीतकार हैं जब फिल्मी गीत-लेखन में स्त्री रचनाकार न के बराबर थीं (आज भी कमोबेश यही स्थिति है)। ऐसे दौर में जब किसी फिल्म में कथावस्तु अथवा वस्तुस्थिति (सिचुएशन) के हिसाब से स्त्री-मन को उद्घाटित करना होता था तो वहाँ पुरुष गीतकार कितने सफल हो पाते यह एक चुनौती थी। शैलेन्द्र ने न केवल इस चुनौती को स्वीकार किया बल्कि इतनी सहजता से स्त्री-मन को बोल दिए कि अभिव्यक्ति और संप्रेषणीयता की अबाध धारा बह चली। अपनी पुस्तक ‘उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र’ में यूनुस खान बताते हैं कि “हिंदी सिनेमा में महिला गीतकारों की बहुधा अनुपस्थिति ही रही है। ऐसे में महिला किरदारों के जज़्बात का इज़हार पुरुष गीतकारों के कंधे पर आन पड़ा और ऐसे अनेक उदहारण मिल जाएँगे जहाँ शैलेन्द्र ने इस जिम्मेदारी को बहुत संवेदनशीलता के साथ निभाया है।”4  ऐसा कहना इसलिए उचित है कि फिल्मी गीत-लेखन के क्षेत्र में शैलेन्द्र उन चुनिंदा गीतकारों में से हुए हैं जिनको वास्तविक कवि-हृदय प्राप्त था। वे सामान्य जीवन की स्त्री-समस्याओं से भली-भाँति परिचित थे और उन्हें जब भी किसी फिल्म की स्थिति-विशेष के लिए स्त्री-समस्याओं को अभिव्यक्त करने का अवसर मिला उन्होंने अपनी कलम का जादू चलाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। शैलेन्द्र को आम जन का कवि कहा जाता है। “अपनी गीत-यात्रा में कोई मौका शैलेन्द्र ने छोड़ा नहीं है आम आदमी के साथ खड़े होने का।”5 कई बार हम देखते हैं कि कवि या रचनाकार आम जन की अवधारणा में स्त्री को उतनी तवज्जो नहीं देता। स्त्री कहीं-न-कहीं नेपथ्य में चली जाती है; किंतु शैलेन्द्र इस मामले में सजग रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि शैलेन्द्र ने स्त्रियों को आम जन से अलगा कर नहीं देखा। वे स्त्री को केवल प्रेमिका, पत्नी अथवा माँ मानने के पक्षधर नहीं हैं। उन्होंने स्त्री को समग्रता में एक मनुष्य के रूप में देखा है।

चूँकि हम यहाँ शैलेन्द्र के स्त्री-विषयक दृष्टिकोण पर केंद्रित हैं अतः अन्य पक्षों को नेपथ्य में रखते हुए हम कहना चाहते हैं कि शैलेन्द्र ने स्त्री-जीवन के हर भाव को बहुत ही खूबसूरती से उचित बोल प्रदान किए हैं।

  • स्त्री-मुक्ति का स्वर

‘काँटों से खींच के ये आँचल/तोड़ के बंधन बाँधी पायल’6

क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि स्त्री-मुक्ति का यह सशक्त स्वर एक पुरुष गीतकार की कलम से निकला है? इस एक गीत से हम समझ सकते हैं कि क्यों शैलेन्द्र न केवल एक फिल्मी गीतकार थे बल्कि साहित्यिक कवि थे। वे न सिर्फ गहरे स्तर पर स्त्री-स्वातंत्र्य के प्रश्नों को समझते थे बल्कि उनकी मुक्ति के पक्षधर भी थे। ध्यातव्य है कि फिल्मी गीतों की रचनात्मक यात्रा अन्य साहित्यिक रचनाओं से भिन्न होती है। पटकथा के दायरे में रहकर स्थिति-विशेष के लिए तैयार धुनों पर गीत की कहानी बुननी होती है। ऐसे में इन बंदिशों के बावजूद अपनी बात कह जाना और न सिर्फ कह जाना बल्कि अपने साहित्यिक मानकों से समझौता किए बिना कह जाना शैलेन्द्र को उच्च कोटि का कवि-गीतकार बनाता है। शैलेन्द्र की कविता “तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत पर यकीन कर/अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला जमीन पर” के बारे में बात करते हुए इंद्रजीत सिंह लिखते हैं, “शैलेन्द्र उस स्वर्ग की बात करते हैं… जहाँ स्त्रियों को, ‘मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी’ की बजाय ‘काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल’ गाने का अधिकार हो, जहाँ उसे देवी या दासी बनकर नहीं बल्कि साथी बनकर जीने का अधिकार हो।”7 इसी क्रम में स्त्री-मुक्ति का एक और सुंदर नमूना हम ‘मैं चली, मैं चली देखो प्यार की गली मुझे रोके न कोई’8 गाने में देख सकते हैं। “पुरुषों से भरी हिंदी फ़िल्मकारी की दुनिया में परिस्थितियों की सताई एक महिला की भावनाओं, उसकी पीड़ा और उसके सघन अकेलेपन को शब्द देने का काम जिन गीतकारों ने पूरी संवेदनशीलता से किया है शैलेन्द्र उनमें सिरमौर हैं।”9

  • प्रेम में स्त्री

प्रेम होना जितना सहज है उसकी अभिव्यक्ति उतनी ही कठिन। हिंदी भाषी समाज तक भी सीमित होकर देखें तो हम पाते हैं कि यह उन समाजों में से एक है जो अंतर्मुखी प्रेम को महान और बहिर्मुखी प्रेम को वर्जित समझता है। इसी समाज का दूसरा पक्ष यह है कि इसे किस्से-कहानियों, नाटकों, सिनेमा आदि में चित्रित प्रेम हमेशा से पसंद आया है। इसे रचनाकारों की सफलता माननी चाहिए। इन सबके बावजूद यह कहा जा सकता है कि स्त्री के सहज प्रेम को अभिव्यक्ति देने के मामले में लेखकों ने भी कंजूसी बरती है। यहीं पर एक बार फिर शैलेन्द्र की महत्ता स्वीकार करनी पड़ती है कि उन्होंने सिनेमा की परिधि में रहते हुए भी प्रेम में पड़ी स्त्री के अलग-अलग मनोभावों को अभिव्यक्ति दी और नितांत मानवीय धरातल पर जाकर दी। “शैलेन्द्र की पूरी गीत-यात्रा देखें तो पाएँगे वो मानवीय संबंधों की गहनता के कवि हैं, जो गीतकारी की दुनिया में सक्रिय रहे।”10

शैलेन्द्र द्वारा अभिव्यक्त स्त्री-मुक्ति के स्वर के रूप में हम ऊपर “मैं चली, मैं चली देखो प्यार की गली” की चर्चा कर चुके हैं। यहाँ हम गौर करें तो पाएँगे कि शैलेन्द्र अपने समय से आगे के कवि थे। जिस दौर में वे एक प्रेम में पड़ी हुई स्त्री के मुख से यह कहलवा रहे हैं उस दौर में स्त्रियों की जुबान पर प्रेम का नाम भर आ जाना भी अपराध समझा जाता था। शैलेन्द्र यहाँ अपने देशकाल से परे जाकर एक स्त्री के मनोभावों को सहज मानवीय रूप में प्रस्तुत करते हैं। “शैलेन्द्र उन गीतकारों की जमात का हिस्सा हैं जिन्होंने फ़िल्म की कहानी और किरदारों के दायरे में रहकर अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता, अपने सरोकारों का ऐलान किया है।”11 शैलेन्द्र की सामाजिक प्रतिबद्धताओं में स्त्री-जीवन की मजबूत उपस्थिति थी।

“प्यार हुआ इकरार हुआ है प्यार से फिर क्यों डरता है दिल”12 गीत में स्त्री-मन का संशय बखूबी दिखाया गया है। प्रेम को स्वीकार करने और भविष्य की अनिश्चितताओं के बीच डोलता स्त्री का मन है यह। यह मन नितांत मानवीय है। कोई भी, जो मनुष्य कहलाने का अधिकारी है, उसके मन में यह संशय कभी-न-कभी अवश्य उठता है। इसके एक अंतरे “कहो कि अपनी प्रीत का गीत न बदलेगा कभी…” पर बात करते हुए यूनुस खान लिखते हैं “यहाँ प्रेम की असुरक्षा और उसके वायदों को कितनी सुंदर पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है शैलेन्द्र ने।”13

“पिया तोसे नैना लागे रे”14 गीत को समग्रता में देखें तो पाएँगे कि स्त्री के जिस उदात्त प्रेम को पूर्ववर्ती कवियों ने अपने काव्य का विषय बनाया था उस परंपरा का निर्वाह करने में भी शैलेन्द्र कितने सक्षम थे। यह गीत हमें ‘उसने कहा था’ कहानी के लिए दिया गया आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का बयान याद दिलाता है कि “उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा है—केवल झाँक रहा है निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है।”15

प्रेम संबंध टूटने अथवा प्रेम का प्रस्ताव अस्वीकार हो जाने पर व्यक्ति के क्रूरतम पक्ष को बहुतायत में अभिव्यक्त किया गया है। समाज में वास्तविकता भी ऐसे ही लोगो की हैं; किंतु प्रेम में हारकर भी एक स्त्री कैसे अपनी और सामने वाले की सुंदरता (ग्रेस) बनाए-बचाए रखती है इसका उदहारण ढूँढ़ना हो तो वह भी शैलेन्द्र के पास मिल जाएगा। “अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़तम”16 की पूरी दास्तान यही बयान करती है। “फिल्मी दुनिया में शैलेन्द्र जैसे कुछ ही गीतकार हुए जिन्होंने प्रेम को एक मानवीय और सामाजिक सच और यथार्थ के स्वस्थ रूप में निरूपित किया, जनता की माँग पर सतही भावुकता, ओछे रोमांस और ऊल-जलूल हाय-तौबा को जगह नहीं दी।”17

“पिया आज बाती जली मत छोड़ो”18 प्रेम में जी रही एक स्त्री का अपने प्रेमी पर अधिकार और उसकी अधीनता के बीच की मनःस्थिति का सुंदर चित्रण है। चाहत और समर्पण के बीच का सुंदर गीत। “पिया आज बाती जली मत छोडो जहाँ एक तरफ एक बोल्ड स्टेटमेंट है, वहीं दूसरी तरफ विनती है, एक विकल पुकार है, जिसे ठुकरा दिया जाता है”19

एक मंझे हुए साहित्यकार की सफलता इसमें होती है कि वह अपने समय की जन अभिरुचि और प्रचलित विधा में साहित्य को ठीक-ठीक अभिव्यक्त कर दे। शैलेन्द्र यहाँ भी पूरी तरह से सफल रहे हैं। इसे ठीक-ठीक समझने के लिए हमें हिंदी साहित्य के इतिहास में दाखिल होना पड़ेगा। हिंदी साहित्य का आदिकाल-मध्यकाल ऐसा समय रहा है जहाँ कवि-लेखकों को अपने ग्रंथों में विषय-विस्तार का पूरा-पूरा अवकाश रहता था। जायसी को जब प्रेम में पड़ी नागमती का वियोग दिखाना होता था तो उनके पास इतना अवकाश था कि वो साल के बारहों मास का एक-एक कर वर्णन कर सकें। आधुनिक काल तक आते-आते प्रबंध की यह परंपरा क्षीण होती गई है। तेजी से भागते युग में पाठकों को कम समय में अधिक-से-अधिक पाने की चाह होती है। काफी हद तक इसी चाह ने सिनेमा विधा को फलने-फूलने में मदद पहुँचाई है। यहीं पर सिनेमा के गीतकार की कुशलता देखिए कि जिस युग में मुख्यधारा के साहित्य में भी कविताओं का आकार छोटा होता गया है उस दौर में उन्हें चंद मिनटों के गीत में अपनी पूरी बात कहनी होती है। ये चंद मिनट भी सिनेमा की कहानी के हिसाब से सिचुएशन में बँधे होते हैं। “फिल्मों के लिए लिखे गए गीत कई अर्थों में गैर फिल्मी गीतों से विशिष्ट और अलग होते हैं। फिल्मी गीत एक तरह से एक विशिष्ट श्रव्य-दृश्य-प्रबंध का हिस्सा होते हैं जिनका फिल्म के कथानक के साथ उपयुक्त होना तो जरूरी होता ही है, स्वतंत्र रूप से भी अपनी स्थिति बनानी पड़ती है। फिल्मी गीतों के लेखक में प्रबंधकार कवि की क्षमता आवश्यक है। उसे गीत को फिल्म के परिवेश, दृश्य और पात्र के चरित्र आदि के अनुशासन में रहते हुए उसके ताने-बाने के अनुरूप तनना-बनना होता है।”20 जायसी के नागमती वियोग वर्णन की चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। इसी से जोड़कर हम ‘आवारा’ फ़िल्म में शैलेन्द्र का लिखा हुआ गीत “तेरे बिना आग ये चाँदनी”21 देख सकते हैं। हिंदी सिनेमा के परदे पर फिल्माए गए विरह-वर्णनों के इतिहास में यह एक अद्भुत गीत बन पड़ा है। इतना ही नहीं करीब नौ मिनट के इस गीत के दूसरे हिस्से “घर आया मेरा परदेशी”22 में संयोग सुख का भी मार्मिक वर्णन देखने को मिल जाता है। “शैलेन्द्र ने सचमुच ‘गागर में सागर’ भर दिया है।”23

अपने निबंध ‘कविता क्या है’ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल बताते हैं कि “कविता का अंतिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य-हृदय का सामंजस्य-स्थापन है।… मनोरंजन वह शक्ति है जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्तवृत्ति को स्थिर किए रहती है, इधर-उधर जाने नहीं देती।”24 शैलेन्द्र फिल्म व्यवसाय से जुड़े थे। इस व्यवसाय का प्राथमिक उद्देश्य दर्शकों का मनोरंजन कर धनोपार्जन करना होता है; किंतु यहाँ एक बार फिर शैलेन्द्र के साहित्यिक व्यक्तिव का पता लगता है जब वे ‘कविता क्या है’ के अनुसार मनोरंजन के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए श्रोता/दर्शक का चित्त स्थिर रखते हुए कविता के मूल उद्देश्य को संप्रेषित कर पाते हैं। “दिल तेरा दीवाना है सनम”25 गीत इसका सटीक उदाहरण है। ऊपर से देखने पर यह गीत मनोरंजन की सीमा तक सीमित लगता है; किंतु जब हम गहरे उतरते हैं तो तो इस गीतों के जादूगर की जादूगरी का नमूना एक बार पुनः देखने को मिलता है। इस गीत के फूहड़ अथवा उच्छृंखल होने की पूरी-पूरी संभावना थी; किंतु कवि का कौशल देखिए उसने ऐसे अवसर पर भी गीत में कहीं उच्छृंखलता नहीं आने दी।

  • शैलेन्द्र की लोरियों में स्त्री

यद्यपि लोरियों को केवल स्त्री के दृष्टिकोण से देखना रूढ़ि माना जा सकता है तथापि हिंदी समाज में लोरियों के स्त्री (माँ, दादी आदि) से सीधे जुड़ाव के तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता। विशेषतः हम जिस कालखंड की बात कर रहे हैं उसमें तो कतई नहीं। हमने ऊपर कहा है कि शैलेन्द्र को वास्तव में कवि-हृदय प्राप्त था। एक कवि-हृदय व्यक्ति ही एक स्त्री, एक माँ के हृदय से साक्षात्कार कर ऐसी लोरियाँ लिख सकता है जैसी शैलेन्द्र ने लिखी हैं, वह भी फिल्म के बने-बनाए दायरे में रहकर। “उन्होंने कुल 170 फिल्मों में गीत लिखे थे और ज़िंदगी के हर मौके और विषय पर उनका लिखा हुआ कोई न कोई गीत मौजूद है।”26 हम यहाँ कह सकते हैं कि यह मौजूदगी केवल खानापूर्ति भर नहीं है। इन गीतों का अपना मुहावरा है जो कालातीत होकर हमारे जीवन में रच-बस गया है।  फिल्म ‘दूर गगन की छाँव में’ के लिए लिखा गया शैलेन्द्र का लोरी गीत “खोया-खोया चंदा खोए-खोए तारे/सो गए तू भी सो जा चाँद हमारे”27 देखिए। यह कवि के कवित्व का पराक्रम है कि उन्होंने फिल्म के लिए लिखी गई लोरी में नानी-दादी की परिकथाओं को इतनी बारीकी से पिरो दिया है। फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के लिए लिखी गई उनकी लोरी “आ जा री आ निंदिया तू आ”28 तो हिंदी पट्टी की माँओं की जुबान पर रहते हैं। शैलेन्द्र की कलात्मक पहुँच का एक सुंदर नमूना फिल्म ‘ब्रह्मचारी’ के लिए लिखे गए “मैं गाऊँ तुम सो जाओ”29 गीत में भी हम देख सकते हैं। इस फिल्म में दो अलग-अलग स्थितियों के अनुसार शैलेन्द्र को इस गीत के दो अलग-अलग संस्करण लिखने पड़े। एक दुःख और एक आशा का संचार करता हुआ। उनकी कामयाबी की मिसाल इसी से दी जा सकती है कि दोनों संस्करण अपनी प्रभावोत्पादकता में अद्भुत रहे हैं। “वो अपनी लिखी लोरियों में सामाजिक सरोकारों को पिरोने में माहिर रहे हैं।”30 शैलेन्द्र रचित लोरियों की सूची में एक और नाम जोड़ा जाए तो वह ‘नई राहें’ फिल्म के लिए लिखा गया उनका गीत “कल के चाँद आज के सपने/तुमको प्यार बहुत-सा प्यार/लाल तुम्हारे दम से ही/कल जगमग होगा संसार”31 देख सकते हैं। इस एक गीत में उन्होंने समस्त माताओं की उम्मीदों को बोल दे दिए हैं।

  • बहन के रूप में स्त्री

जब भी भाई-बहन के संबंधों पर बात चलती है तो “भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना”32 गीत जरूर गाया-बजाया जाता है। राखी का तो त्योहार ही इस गीत के बिना अधूरा लगता है। बहुत कम लोग जानते होंगे कि हमारे समय का मुहावरा बन चुका यह कालजयी गीत भी शैलेन्द्र की कलम का चमत्कार है। चमत्कार इसलिए कि इतने वर्षों में जाने कितने गीत लिखे गए जो बहनों के दृष्टिकोण को प्रतिपादित करते हैं; किंतु कोई भी इस गीत को विस्थापित नहीं कर पाया। यह गीत आज भी अपनी जगह ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। किसी भी साहित्यकार-रचनाकार के लिए यह उसकी सर्वकालिक सफलताओं में से एक माना जा सकता है। “अबके बरस भेज भैया को बाबुल”33 सुनकर आज भी कितनी बहनों का गला रुँध जाता है और आँखें भर आती हैं। स्त्री की नियति है कि एक समय के बाद उसे अपना घर बदलना होता है। जो कभी अपना घर था वह मायका हो जाता है। जिस भाई के साथ बचपन बीता है उसको देखने भर के लिए भी बरस-दर-बरस इंतज़ार करना होता है, रक्षाबंधन के त्योहार की तरह किसी अवसर विशेष की राह तकनी होती है। ऐसे समय अपने पिता से अपने भाई को भेजने की गुहार लगाना हृदय द्रवित कर जाता है। एक बहन की अपने भाई से मिलने की उत्कंठा का इससे सुंदर चित्रण और क्या हो सकता है! “अच्छे गानों का सफ़र अपनी पटकथा और फ़िल्म से परे चले जाता है। वह हमारे जीवन में दाखिल हो जाते हैं। कई पीढ़ियों के गीत बन जाते हैं। उनकी निजी अभिव्यक्ति बन जाते हैं। इस गीत को हम सिर्फ फ़िल्मी गीत नहीं कह सकते, हमारे जीवन का गीत है यह।”34 शैलेन्द्र के ये सभी गीत हमारे जीवन के गीत हैं।

  • निष्कर्ष

उपर्युक्त अध्ययन के दौरान कुछ चुनिदा गीतों के माध्यम से हमने गीतकार शैलेन्द्र के साहित्यिक पक्ष को उद्घाटित करते हुए उनके स्त्री-विषयक दृष्टिकोण पर प्रकाश डाला। शैलेन्द्र के फिल्मी गीतों का नारी-पक्ष इतना उज्ज्वल है कि एक शोध-आलेख में उसको समग्रता में समेट पाने का अवकाश नहीं है; किंतु उपर्युक्त अध्ययन से हमने एक गीतकार और एक साहित्यकार के रूप में शैलेन्द्र की कलात्मकता, कार्य-कुशलता, दायित्व-बोध, संवेदनशीलता आदि पक्षों को सामने रखते हुए उनके गीतों में स्त्री-अभिव्यक्ति का दिग्दर्शन किया है। हमने यह भी देखा कि कैसे स्त्री गीतकारों से लगभग शून्य हिंदी सिनेमा में उन्होंने स्त्री-मन को किस संवेदनशीलता से वाणी दी। कहना चाहिए कि इस प्रक्रिया में वे पूरे-पूरे सफल रहे हैं। सिनेमा के बँधे-बँधाए दायरे में रहकर उन्होंने स्त्री-जीवन को बँधे-बँधाए दायरे से बाहर निकालने का स्तुत्य प्रयास किया है। स्त्री की पारंपरिक छवि को तोड़ते हुए उन्होंने स्त्री को एक समग्र मनुष्य के रूप में देखा और उसकी मुक्ति का आह्वान किया। अतः उपर्युक्त तथ्यों पर विचार करने के उपरांत हम कह सकते हैं कि गीतकार शैलेन्द्र के सिनेमाई गीतों का स्त्री-पक्ष अत्यंत सशक्त है।

  • संदर्भ
  1. भारतीय साहित्य के निर्माता : शैलेन्द्र, इंद्रजीत सिंह, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2024 ई., पृ. 7
  2. उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र, यूनुस खान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025 ई., पृ. 207-208
  3. वही, पृ. 70
  4. वही, पृ. 59
  5. वही, पृ. 26
  6. फिल्म : गाइड (1965 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  7. भारतीय साहित्य के निर्माता : शैलेन्द्र, इंद्रजीत सिंह, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2024 ई., पृ. 31
  8. फिल्म : पड़ोसन (1968 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  9. उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र, यूनुस खान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025 ई., पृ. 169-70
  10. वही, पृ. 184
  11. वही, पृ. 25
  12. फिल्म : श्री 420 (1955 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  13. उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र, यूनुस खान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025 ई., पृ. 40
  14. फिल्म : गाइड (1965 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  15. हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021 ई., पृ. 406
  16. फिल्म : दिल अपना और प्रीत पराई (1960 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  17. गीतों का जादूगर : शैलेन्द्र, ब्रज भूषण तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013 ई., पृ. 134
  18. फिल्म : जागते रहो (1956 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  19. उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र, यूनुस खान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025 ई., पृ. 60
  20. गीतों का जादूगर : शैलेन्द्र, ब्रज भूषण तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2013 ई., पृ. 113
  21. फिल्म : आवारा (1951 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  22. वही
  23. उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र, यूनुस खान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025 ई., पृ. 234
  24. चिंतामणि : पहला भाग, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021 ई., पृ. 132
  25. फिल्म : दिल तेरा दीवाना (1962 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  26. हिंदी सिनेमा के गीतकार, जावेद हमीद, अतुल्य प्रकाशन, दिल्ली, 2024 ई., पृ. 89
  27. फिल्म : दूर गगन की छाँव में (1964 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  28. फिल्म : दो बीघा जमीन (1953 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  29. फिल्म : ब्रह्मचारी (1968 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  30. भारतीय साहित्य के निर्माता : शैलेन्द्र, इंद्रजीत सिंह, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2024 ई., पृ. 201
  31. फिल्म : नई राहें (1959 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  32. फिल्म : छोटी बहन (1959 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  33. फिल्म : बंदिनी (1963 ई.), गीतकार शैलेन्द्र
  34. उम्मीदों के गीतकार : शैलेन्द्र, यूनुस खान, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025 ई., पृ. 40
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कुमार दिव्यांशु शेखर

लेखक भारतीय भाषा विभाग, दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गयाजी में शोधार्थी हैं। सम्पर्क +918298599401, kumardivyanshushekhar@gmail.com
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