अणुशक्ति सिंह की कहानियों में महानगरीय जीवन का स्याह पक्ष
अणुशक्ति सिंह अपने उपन्यास ‘शर्मिष्ठा’ के कारण उपन्यासकार के रूप में चर्चित हुई हैं। उनका एक उपन्यास नोशन प्रेस पर ऑनलाइन प्रकाशित हुआ है जिसे 4.7 रेटिंग मिला है और 18,708 लोगों ने पढ़ा है।
अणुशक्ति सिंह की चार कहानियाँ भी क्रमशः 2017, 2018, 2021 और 2022 में अहा जिंदगी, समालोचन, जानकीपुल और परिंदे में प्रकाशित हुई हैं। इन कहानियों के नाम हैं, ‘बालकनी, मेट्रो और लाल बैग वाला आदमी’, ‘सफेद रौशनी वाली खिड़की’, ‘नो स्मेल येट नेगेटिव’ और ‘आय म अ गुड बॉय मैम’। पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में इन कहानियों को लघु कहानी कहा गया है। लघु कहानी कहने का तर्क यदि शब्द सीमा है तब उसके हिसाब से ये रचनाएँ कहानियाँ ही कही जायेंगी। यदि कहानी के तत्व के आधार पर लघु कहानी कहा जा रहा है तब नई कहानी और 1990के दशक के बाद कि कई कहानियाँ लघु कहानी में सिमट जाएगी। कहानी का काम यदि जीवन के एक छोटा हिस्सा को संप्रेषित करना है तो उपर्युक्त सभी रचनाएँ कहानी हैं।
सभी कहानियों में महानगरीय नागरिकों का जीवन है। ये नागरिक मध्यवर्ग के सम्पन्न लोग हैं जिनकी समस्या आर्थिक नहीं मनोवैज्ञानिक और सामाजिक है। इन कहानियों में पात्र से ज्यादा प्रवृत्ति महत्वपूर्ण है। इन कहानियों में व्यवस्थित कथानक न होकर एक खास तरह की ‘परिस्थिति’ ही कथानक है। कह सकते हैं कि सभी कहानियाँ परिस्थितिपरक हैं। सभी कहानियों में ‘सर्वनाम’ से काम लिया गया है ‘संज्ञा’ की उपस्थिति न के बराबर है। सभी कहानियाँ 21वीं सदी के दूसरे दशक की है।
21वीं सदी में महानगरों ने मध्यवर्ग को आर्थिक रूप से खूब समृद्ध किया। पूँजीवादी व्यवस्था ने उनके लिए स्वाद, मनोरंजन, सूचना और उपभोग के तमाम साधनों को लगातार नवीन किया है ताकि उनके जीवन में रोमानियत बना रहे और अपने आसपास की दुनिया को भूलकर एक विशुद्ध उपभोक्ता बने रहें। महानगरीय अर्थव्यवस्था अपने उत्पादन प्रणाली में हर महीने दो महीने में मध्यवर्ग के लिए कुछ न कुछ थ्रिल पैदा करने वाला उत्पाद बना देता है। कुछ नहीं तो मोबाईल, लैपटॉप, कॉस्मेटिक, कपड़े और स्नैक्स के कई नए वर्जन लॉन्च कर देता है। इतना कुछ होने के बावजूद यह व्यवस्था और इसके उपभोक्ता यह भूल जाते हैं कि वे मनुष्य हैं और मनुष्य भावनाओं का पुंज है।
महानगरीय जीवन अपने निजत्व के प्रति सचेत तो है परंतु, सामूहिकता से कटा हुआ है। सामूहिक जीवन के अपने अंतर्विरोध हैं। वहाँ आपके दुख को बाँटने की सुविधा है, मन की पीड़ा कह देने का अवसर है लेकिन साथ में आपके निजता के यदा-कदा हनन होने का खतरा भी है। निजता में आपके जीवन का हर प्रसंग आपके साथ है। आप यदि नहीं चाहते कि कोई आपका एकांत भंग करे, व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करे तो आपके ऊपर एक नैतिक दवाब है कि आप दूसरे के जीवन के साथ भी वही व्यवहार करेंगे। जब यह निजत्व का संतुलन बिगड़ता है तब दो व्यक्तियों के बीच का एकांत भी अकेलेपन में बदल जाता है। वह भीड़ में भी अकेले हो सकता है। ‘बालकनी, मेट्रो और लाल बैग वाला आदमी’ इसी आशय की कहानी है। लड़की और प्रेमी (मनोहर) के बीच निजत्व को लेकर एक मामूली सी घटना होती है। लड़का गम्भीरता से लेता है। दोनों का एकांत धीरे-धीरे अकेलापन में बदलने लगता है। अब एक दूसरे से अपनी समस्या भी नहीं बाँटते हैं। जब भी ऐसा होता है तो अकेलेपन के बोझ में व्यक्ति अपनी मौलिकता खोने लगता है।
‘सफेद रौशनी वाली खिड़की’ कहानी की लड़की का अकेलापन उसकी मौलिकता को निगलता जा रहा है। वह खिड़की के उस पार एक ऐसी लड़की की कल्पना करती है जो रचनात्मक है। वह उसके जैसा होना चाहती है। यह ‘होना’ उस लड़की की मौलिकता है। आईना और खिड़की का भ्रम; अकेलेपन के कारण दब गयी मौलिकता का परिणाम है। सिल्विया प्लाथ का आना, नींद की गोली, बेहोशी इन सबका जिक्र आना अकेलेपन से खुद को बचाने का पलायनवादी रास्ता है। होश आते ही उसकी मौलिकता उसे उसकी ओर खिंचेगी और अकेलापन उसे उससे दूर ले जाएगी। मौलिकता और अकेलेपन के द्वंद्व से निपटने जो बौद्धिक और मानसिक ऊर्जा चाहिए उसके लिए एक सामूहिक जीवन चाहिए। यह सामूहिकता जरूरी नहीं है कि संख्या में बड़ी हो।
मात्रात्मक रूप से दो लोगों की भी हो सकती है जिसमें रचनात्मकता के लिए जगह और सम्मान हो। ऐसी सामूहिकता हो कि पलायनवादी होने से,नींद में होने से और बेहोशी से बचा ले। ऐसा होने के लिए जरूरी है कि जीवन में भरपूर प्रेम हो। महानगरीय जीवन में दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी यही सामूहिकता के हिस्से में आते हैं। यदि इनके बीच रिश्ते दरकते हैं तो व्यक्ति का अकेलापन और गहरा होता जाता है। फिर व्यक्ति अतीतजीवी होकर अपना अस्तित्व निशानियों में, अपने प्रिय से जुड़े स्मृतयों, उपहारों, रंगों और गंधों में खोजता रहता है। यह व्यक्ति के रचनात्मकता के ह्रास का चरम रूप है जो महानगरीय जीवन में प्रायः घटता है। जीवन मे जैसे-जैसे प्रेम घटता है आसपास के दृश्यों और परिवेश के प्रति नजरिया भी बदलने लगता है। ‘नो स्मेल येट नेगेटिव’ कहानी में इसका सघन (इंटेंस) रूप देखने को मिलता है। लड़की के जीवन में प्रेम की तीव्रता जैसे-जैसे घटती है उसके फूल सूखने लगते हैं और अंततः ठूँठ होकर रह जाता है। कोरोना में गन्ध जाना एक शारीरिक कमजोरी थी जो उस लहर की वजह से था। रिश्तों में गंध का खत्म होना भावनात्मक मसला है। यह लहर जितना फैलेगा मनुष्यता और मनुष्य की रचनात्मकता उतना संकटग्रस्त होता जाएगा।
महानगर के मध्यवर्गीय जीवन में घरेलू हिंसा का स्वरूप ग्रामीण या छोटे शहरों से बिल्कुल अलग है। छोटे शहरों में यह हिंसा दिखता है, उसके पक्ष-विपक्ष होते हैं और सामाजिक दवाब दिखता है। महानगर का जीवन अपार्टमेंटनुमा है। वहाँ निजत्व का दवाब इतना है कि कोई चाहकर भी दूसरे के मामले में नहीं पड़ना चाहता। कोई अतिरिक्त तनाव नहीं लेना चाहता न अपने अपने कम्फर्ट जोन को भंग करना चाहता है। सामूहिकता के अभाव में घरेलू हिंसा का शिकार व्यक्ति अपनी आवाज को मुखर भी नहीं कर पाता है। एलिटनेस के चार्म को बनाए रखने के लिए हिंसा को बर्दाश्त करते जाना अपनी नियति मान लेता है। इसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है और बच्चों से होता हुआ स्कूल तक चला आता है। स्कूल समाज का लघु संस्करण है। परिवार के बाद बच्चों के समाजीकरण की प्रक्रिया में प्राथमिक विद्यालय मुख्य भूमिका निभाता है। ‘आय म अ गुड बॉय मैम’ कहानी अपने शीर्षक से ही स्पष्ट है कि यह बच्चा (अमन) महानगर के मध्यवर्गीय परिवार का है। अमन के व्यवहार में जो उग्रता है वह अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए है। इसे वही समझ सकता है जो घरेलू हिंसा को झेल चुका हो। कृष्ण बलदेव वैद का उपन्यास ‘उसका बचपन’ घेरलू हिंसा और बच्चों के व्यवहार में उग्रता, भटकाव और बिखराव के सम्बन्ध का प्रभावशाली वर्णन करता है। यह कहानी ठीक उस तरह तो नहीं लेकिन आधुनिक बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से लिखी गयी बेहतरीन कहानी कही जा सकती है।
कहानी पढ़ते हुए ‘तारे जमीन पर’ फ़िल्म का नायक और बच्चा का सम्बन्ध याद आता रहता है। कहानी का पात्र नायक अकेलेपन और डर का शिकार है। उसे प्यार का स्पर्श चाहिए। हॉस्टल के नाम से बच्चा अचानक उग्रता छोड़ देता है। इसकी वजह बस अकेलेपन का डर है। यह अकेलापन महानगरीय जीवन के बच्चों तक में घर कर गया है। यह अचानक से नहीं हुआ है। यह शहरीकरण, बन्द जीवन, सामूहिकता से अलगाव और परिवार में जनतांत्रिक स्पेस के घटते रहने से विकसित हुआ है। इससे बच्चों को मुक्त करना स्कूल का काम है। कॉन्वेंट स्कूल में कॉउंसलिंग एक खानापूर्ति और अस्थाई व्यवस्था है। अकेलेपन को प्रेमिल स्पर्श की जरूरत है जो उस शिक्षिका के पास है। दुर्भाग्य से भारत में इसकी घनघोर कमी है। यही वजह है कि महानगर के स्कूली बच्चों में हिंसा की खबरें बढ़ती जा रही हैं। शिक्षिका अमन की माँ तक अपनी बात पहुँचाती है। समस्या के मूल को समझे बिना अर्थात, प्राथमिक शिक्षा में बच्चों के अभिभावकों को समझे बिना डायग्नोसिस हो ही नहीं सकता। आज बच्चों में एकाग्रता की कमी, निर्णय लेने की क्षमता की कमी और इमोशनल इंटेलिजेंस की कमी की बड़ी वजह प्राथमिक शिक्षा में बाल मनोविज्ञान की समझ का न होना है। यह रचना इस पूरे जटिल मामले को हिन्दी कहानी में लाती है।
चारों कहानियों में स्त्रियाँ और उसकी परिस्थितियाँ केंद्र में है। कहानियों में बॉलकनी और खिड़की की मजबूत उपस्थिति है। यह अनायास नहीं है। लेखिका स्त्री हैं। उन्हें जो समय मिलता होगा वह निश्चित तौर बॉलकनी और खिड़की से बाहरी दुनिया के अवलोकन में गुजरता होगा। महानगर के अपार्टमेंट में खिड़की और बॉलकनी ही वह जगह होता है जहाँ से बाहर के दृश्यों को, आती हुई रौशनी और धूप को महसूस किया जा सकता है। फ्लैट की कीमत खिड़की और बॉलकनी के आकार और लोकेशन से तय होता है। कह सकते हैं कि प्राकृतिक धूप,हवा और रौशनी की भी कीमत महानगर वसूलता है। खिड़की और बॉलकनी का प्रभाव कहानी के शिल्प पर बहुत गहरा है। कहानियाँ विवरण में कम दृश्यों के कोलाज में ज्यादा हैं। छोटे-छोटे दृश्यों से कहानी बनी है। महानगरीय जीवन की कहानियाँ कैसे बन रही हैं उसे इस तरह भी विश्लेषण करना चाहिए।
कहानी के शीर्षकों पर अँग्रेजी वाक्य का दबदबा है। हिन्दी आलोचकों को यह अखर सकता है। भाषा बिगाड़ने का आरोप लेखिका पर लग सकता है। लेकिन, यह भी देखना चाहिए कि कहानी किस परिवेश की है। इसके अलावा जबतक भाषा की मौलिकता और वाक्य क्रम में दूसरे भाषा के शब्दों के कारण कोई बिखराव नहीं हो और जबर्दस्ती संप्रेषणीय बनाने के लिए ठूँसा नहीं गया हो तो इस तरह का आरोप हवा-हवाई ही समझना चाहिए।