जन गण मन

भ्रष्टाचार की उद्गम स्थली है त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था

 

प्रयागराज के नव-निर्वाचित जिला पंचायत अध्यक्ष और सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए उप्र के उपमुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्या ने जो बात कही, वह गौरतलब और विचारणीय है। उन्होंने कहा कि अगली बार जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव सीधे जनता द्वारा कराये जायेंगे। इस बार भी सरकार की मंशा ये चुनाव अप्रत्यक्ष मतदान की जगह सीधे जनता से कराने की ही थी, किन्तु कोरोना महामारी के चलते पर्याप्त तैयारियों का समय न मिलने से परम्परागत तरीके से ही ये चुनाव कराये गए।

उल्लेखनीय है कि अभी जनता द्वारा चुने गए जिला पंचायत सदस्य और क्षेत्र पंचायत सदस्य क्रमशः जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख का चुनाव करते हैं। डेलिगेटों द्वारा होने वाले इन चुनावों में धनबल और बाहुबल का अत्यधिक दुरुपयोग होता है। धनबल और बाहुबल के अत्यधिक प्रयोग के अलावा इन चुनावों में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में शासन-प्रशासन की मशीनरी का भी खूब प्रयोग होता है। इसलिए इन चुनावों के परिणाम वास्तविक जनादेश की अभिव्यक्ति नहीं करते। महज उप्र ही नहीं, बल्कि पश्चिम बंगाल, राजस्थान, बिहार, पंजाब, हरियाणा, उड़ीसा और जम्मू-कश्मीर आदि जहाँ भी त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू है, वहाँ की कमोबेश यही कहानी है। यह सर्वविदित है कि सत्तारूढ़ दल ही इनमें से अधिकांश पदों को जीतते हैं। वर्तमान परिस्थिति में कोई भी निर्दलीय या विपक्षी प्रत्याशी तभी यह चुनाव लड़ने और जीतने की सोच सकता है जबकि उसके पास जनबल, धनबल और बाहुबल की प्रचुरता हो।

सन् 2015-16 में तत्कालीन सत्तारूढ़ दल समाजवादी पार्टी ने जिला पंचायत अध्यक्ष की 75 सीटों में से कुल 63 सीटें और ब्लॉक प्रमुख की 826 सीटों में से 623 सीटें जीतकर नया कीर्तिमान बनाया था। भाजपा, बसपा, और कांग्रेस जैसे अन्य प्रमुख दल उसके आस-पास भी न थे। सन 2010 के चुनावों में सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी ने भी लगभग यही हाल किया था। सन् 2021 के हालिया संपन्न चुनावों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने उस कीर्तिमान को ध्वस्त करते हुए जिला पंचायत अध्यक्ष की 67 सीटें और ब्लॉक प्रमुख की 648 सीटें जीतकर नया इतिहास रच दिया है। 

गौरतलब यह भी है कि पंचायत चुनावों में इतनी शानदार और धमाकेदार जीत हासिल करने के बावजूद साल-डेढ़ साल के बाद संपन्न हुए विधान-सभा चुनावों में सत्तारूढ़ दलों का हश्र बहुत बुरा हुआ। सत्ता-परिवर्तन के साथ ही ब्लॉक प्रमुखों और जिला पंचायत अध्यक्षों के विकेट गिरने लगते हैं। अविश्वास प्रस्तावों की झड़ी लग जाती है और नए सत्तारूढ़ दल के लोग इन पदों को हथिया लेते हैं। इसप्रकार ये पद प्रायः सत्तामुखी होते हैं।

इस आधार पर यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल नहीं है कि ये चुनाव वास्तविक जनादेश की अभिव्यक्ति नहीं करते, बल्कि वास्तविक जनादेश से इतर जब अध्यक्ष और प्रमुख पदों का परिणाम आता है तो जनता में जनादेश के अपहरण का सन्देश जाता है और परवर्ती चुनावों में इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी होती ही है। सन् 2018 में पश्चिम बंगाल के पंचायती चुनावों में हुई छीना-झपटी और जनादेश के अपहरण की प्रतिक्रिया 2019 के लोकसभा चुनावों में दिखाई पड़ी थी। ऐसे और भी अनेक उदाहरण हैं।

24 अप्रैल, 1993 को 73 वें संविधान संशोधन के परिणामस्वरूप त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। इसीलिए भारत में प्रत्येक वर्ष 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के रूप में मनाया जाता है। पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने की सबसे बड़ी वजह गाँधी जी की ग्राम स्वराज की अवधारणा थी। गाँधी जी मानते थे कि ‘सच्चा लोकतन्त्र केन्द्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है।’ दरअसल, गाँधीजी की लोकतन्त्र की अवधारणा में शासन-प्रशासन का विकेंद्रीकरण अन्तर्निहित है।

उनके इसी सपने को साकार करने के लिए और लोकतन्त्र और विकास को ऊपर से नीचे की जगह नीचे से ऊपर की संभव करने के लिए पंचायती राज व्यवस्था लागू की गयी। इसमें ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत को शामिल किया गया। ग्राम पंचायत के अध्यक्ष अर्थात प्रधान या सरपंच का चुनाव तो ग्राम पंचायत के मतदाता प्रत्यक्ष मतदान के द्वारा करते हैं। किन्तु क्षेत्र पंचायत अध्यक्ष अर्थात ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष अर्थात जिला प्रमुख का चुनाव जनता द्वारा चुने हुए सदस्य करते हैं। इस अप्रत्यक्ष चुनाव के कारण ही पंचायती राज व्यवस्था के दूसरे और तीसरे पायदान इतने प्रदूषित और तमाम बुराइयों के उद्गमस्थल बन गये हैं।

क्षेत्र पंचायत सदस्यों और जिला पंचायत सदस्यों की क्रमशः ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में मतदान के अलावा कोई सक्रिय और व्यावहारिक भूमिका नहीं होती है। उनके पास कोई कार्यकारी शक्ति, बजट आदि भी नहीं होता है। इसलिए वे प्रमुख और अध्यक्ष के चुनाव में प्रायः अपने मत को एकमुश्त रकम लेकर बेच देते हैं। इसी से ये चुनाव बहुत अधिक खर्चीले हो जाते हैं। इसी खरीद-फरोख्त के कारण इन सदस्यों की सामाजिक छवि भी बहुत अच्छी नहीं मानी जाती। सदस्यों की खरीद-फरोख्त में करोड़ों रुपये लगाकर चुनाव जीते हुए प्रमुख और अध्यक्ष विकास की जगह अपने खर्च की भरपाई में जुट जाते हैं।

ये संस्थाएं विकास के नाम पर सफ़ेद हाथी बन जाती हैं और भ्रष्टाचार, गबन और खाने-पीने के बड़ेअड्डे बन जाती हैं। क्षेत्र पंचायत प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का कोई प्रत्यक्ष निर्वाचक मंडल न होने से इनकी उसके प्रति जवाबदेही भी नगण्य होती है। इसलिए ये विकास-कार्यों के लिए आवंटित राशि का कहाँ, कितना और कैसा प्रयोग करते हैं, उसका ज़मीनी हिसाब-किताब न होकर कागजी लेखा-जोखा ही अधिक होता है। विकास-राशि के बड़े हिस्से का गुल-गपाड़ा हो जाता है। क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत के चुनावों का गन्दा नाला अंततः विधान-सभा और लोक-सभा चुनावों की नदी में ही मिलता है और उसे भी गँदला कर देता है।

इस व्यवस्था में आंशिक परिवर्तन करके क्षेत्र पंचायत सदस्यों और जिला पंचायत सदस्यों के गैरजरूरी और 3बेवजह खर्चीले चुनाव से बचा जा सकता है। ग्राम पंचायत पंचायती राज व्यवस्था की वास्तविक रीढ़ है। केन्द्र सरकार और राज्य सरकार की तमाम विकास योजनाओं और नीतिगत निर्णयों के जमीनी कार्यान्वयन में ग्राम पंचायतों की ही निर्णायक और निर्विकल्प भूमिका होती है। उन्हें ही सर्वाधिक मजबूत, महत्वपूर्ण और साधन-संपन्न बनाने की आवश्यकता है। प्रधान/सरपंच का चुनाव जनता सीधे करती है।

उसके पास कार्यकारी अधिकार और वित्तीय शक्तियां और संसाधन होते हैं। उसका अपने निर्वाचकों के साथ सीधा सम्पर्क और संवाद तथा उनके प्रति प्रत्यक्ष जवाबदेही भी होती है। इसलिए उसी की तर्ज पर क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत सदस्यों के चुनाव की जगह जनता द्वारा सीधे ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव कराया जाना चाहिए। ब्लॉक के सभी प्रधानों को क्षेत्र पंचायत का सदस्य बनाकर और जिले के सभी ब्लॉक प्रमुखों को जिला पंचायत का सदस्य बनाकर क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत का गठन किया जा सकता है।

साथ ही, इन चुनावों को राजनीतिक दलों के आधार पर नहीं लड़ा जाना चाहिए। राजनीतिक दल इन चुनावों के परिणामों से अपने प्रदर्शन को जोड़कर एड़ी चोटी का जोर लगाते हैं और साम, दाम, दंड, भेद- सब हथकंडे अपनाते हैं। अपनी प्रतिष्ठा से जोड़कर धनबल, बाहुबल और शासन-प्रशासन की मशीनरी का भी जमकर दुरुपयोग करते हैं। परिणामस्वरूप, इन चुनावों की निष्पक्षता और पारदर्शिता बुरी तरह प्रभावित होती है। ये चुनाव वास्तविक जनाकांक्षा और जनादेश की अभिव्यक्ति में पूर्णतः असफल सिद्ध होते हैं। जब ये चुनाव भी ग्राम प्रधान की तरह गैर-राजनीतिक आधार पर होंगे और राजनीतिक दलों के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से मुक्त होंगे तो जमीनी स्तर पर जनता के बीच सक्रिय और लोकप्रिय नेताओं की नयी पौध तैयार हो सकेगी।

फोटो सोर्स : patrika.com/ शिरीष

यह संयोग मात्र नहीं है कि सन् 1993 में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था प्रारम्भ होने के बाद से राजनीति में धनबल और बाहुबल का प्रयोग और वर्चस्व क्रमशः बढ़ता गया है। दरअसल, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव राजनीति में धनपशुओं और बाहुबलियों के प्रवेश-द्वार हैं। ये चुनाव जीतकर वे अपने धनबल और बाहुबल के प्रदर्शन से राजनीतिक दलों को प्रभावित करते हैं और विधान-सभा और लोक-सभा के टिकट मार लेते हैं। राजनीति के इन गंदे नालों को बंद करने या इनकी चुनाव-प्रक्रिया में तत्काल बदलाव करने की जरूरत है।

इनकी वर्तमान चुनाव-प्रक्रिया में एक और समस्या है। इन पंचायतों में संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसलिए लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में वंचित वर्गों की व्यापक भागीदारी होती है। ग्राम पंचायत सदस्य, ग्राम प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य के रूप में इन वंचित वर्गों के अनेक लोग चुनकर आते हैं। ये चुनाव प्रत्याशी विशेष के लिए आवंटित चुनाव-चिह्न पर मोहर लगाने वाली मतदान प्रणाली से संपन्न होते हैं। इसलिए मतदाताओं और प्रत्याशियों की शैक्षणिक योग्यता से निर्वाचन-प्रक्रिया प्रभावित नहीं होती, लेकिन ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव चुनाव-चिह्न आवंटित न करके प्रत्याशी के नाम के सामने वाले खाने में वरीयता क्रम में 1, 2, 3 लिखकर होता है।

परिणामस्वरूप, अनेक निरक्षर या कम पढ़े-लिखे क्षेत्र पंचायत सदस्य और जिला पंचायत सदस्य सही से मतदान नहीं कर पाते और उनके मत बड़ी संख्या में निरस्त हो जाते हैं। इसप्रकार उनकी निरक्षरता न सिर्फ उनकी भागीदारी को सीमित कर देती है, बल्कि जिस मतदाता वर्ग (वार्ड) ने उन्हें चुना है; उनके जनादेश की भी सही अभिव्यक्ति और भागीदारी नहीं हो पाती है। इसलिए यथाशीघ्र पंचायती राज व्यवस्था में चुनाव लड़ने के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता का प्रावधान किया जाना चाहिए। साथ ही, ब्लॉक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष पद के चुनाव भी चुनाव-चिह्न आवंटित करके ही कराये जाने चाहिए; ताकि वंचित वर्गों के लोगों के कम से कम मत निरस्त हों।

अगर सचमुच सरकार का विकेंद्रीकरण करना है और लोकतन्त्र को जमीनी स्तर पर मजबूत बनाना है तो उपरोक्त सुधारों की दिशा में पहलकदमी करने की आवश्यकता है। ऐसा करके ही इन पंचायती राज संस्थाओं में जनता की वास्तविक भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी और लक्षित परिणाम प्राप्त होने की सम्भावना भी बनेगी।

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रसाल सिंह

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- +918800886847, rasal_singh@yahoo.co.in
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