सामयिकस्त्रीकाल

हुल्लड़-हुड़दंग वाला शहर

 

वास्तव में विज्ञापन की दुनिया में या फिर डिजिटल जगत में छाई हुई कुछ छवियों पर एक संज्ञान लेने की इस युवा महिला-पुरुष पीढ़ी को ज़रूरत है। हमारे साथी पुरुषों को यह सोचना ही होगा कि औरत कोई बे-दिमाग प्राणी या रोबोट नहीं है जो एक अदना सा सेंट सूंघकर उस पर फिदा हो जाएगी। जब भी इस तरह के विज्ञापन टीवी पर प्रसारित हों, तब यह जरूर सोचें कि यह अपने उत्पाद को बेचने की घटिया रचनात्मकता भर है और उन पर तरस खाएँ। महिलाओं को यह जरूर मुँह खोल कर और तेज़ आवाज़ में बताना चाहिए कि यह एक घटिया विज्ञापन है जो सरासर भ्रामकता पैदा करता है। प्रेम और मोह जैसे भाव नितान्त आत्मिक होते हैं जिनका सेंट और उसकी महक से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है।

सुबह के अख़बार का पहला पन्ना यह अच्छे से जतला देता है कि आप चैन की सांस बाद में लें पहले यह जान लें कि आपके पास शहर में घर नहीं है, यह महँगी घड़ी नहीं हैं, कार नहीं है। शुद्ध नहीं खा रहे हैं इसलिए फलां ब्रांड का आटा ख़रीदने से आपकी सेहत पर अच्छा असर होगा। यह ब्रांड का हेयर कलर लेंगे तब ग्रे की समस्या दूर होगी और आप अच्छे दिखाई देने लगेंगे। चेहरे पर यह क्रीम लगाएँगे तो शादी में जाने लायक दिखेंगे वरना आपका मज़ाक बनने की सौ प्रतिशत संभावना है। इस ब्रांड का कोलगेट इस्तेमाल करने से एक आत्मविश्वास आता है.. यह फेहरिश्त इतनी लम्बी है कि हर जगह पीछा करती है। आपको नहीं लगता कि हमारा आसपास कितना ‘हुल्लड़-हुड़दंग’ से भरा जा रहा है। हमें वह वक़्त ही नहीं दिया जाता जिसमें हम शांति के कुछ पल बिता सकें।

अख़बार के अलावा, घर से बाहर अगर कहीं जाते हैं तब मेट्रो की दीवारों में कुछ प्रतिशत के ब्याज से मिलने वाले लोन के विज्ञापन पीछा करते हैं। बाहर निकलने पर सड़कों के किनारे बोझ बनकर खड़े लोहे के खम्भों के ऊपर किसी नामी हस्ती का विज्ञापन भी कुछ बेच ही रहा होता है। हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं। हमारे सोने के कमरे में लगा टीवी पूरी दुनिया के विज्ञापन चन्द मिनटों में थाली में परोस देता है। यह लोगों की ज़िन्दगी से उनका ऑक्सीजन छीन लेने जैसा है। हमें ज़रूरत नहीं है फिर भी चारों तरफ का माहौल इस तरह से तैयार किया जाता है कि न ख़रीदने पर ख़ुद को ही बुरा सा महसूस होने लगता है।

सोशल मिडिया पर हाल और बुरा है। यह चिन्ताजनक भी है क्योंकि हमारे स्कूल के बच्चों को लम्बा समय इन्हीं साइटों की ख़ाक छानते बीतता है। बच्चों के बीच की बातें सुनने से लगता है कि यह ड्रेस या वह गेम लेनी है क्योंकि उन्हों ने उसे कहीं सोशल साइट्स पर देखा था। माता-पिता पर अलग से वे इस तरह दबाव डालते हैं कि उन्हें उन चीज़ों को ख़रीदना ही पड़ता है। इतना ही नहीं अगर कोई कहीं घूमने गया है तब उस जगह की तस्वीरें साझा न करना किसी गुनाह से कम नहीं है। कुछ इसी तरह की दुनिया अब लगभग बन चुकी है। कभी कभी लगता है कि काश यह सपना हो, जागने पर सब कुछ गायब हो जाए। पर सच यह कि ऐसा हो नहीं सकता। सबसे गंभीर बात यह भी है कि जिन छवियों को कम समय में ही हर कुछ मिनटों में पेश किया जा रहा है, वह एक ख़तरनाक ट्रेंड है। इस मामले में औरतों और बच्चों के विज्ञापनों को ध्यान से देखना होगा। क्या आपने अभी तक ध्यान नहीं दिया है? तब अब दें!

फोन सेवा देने वाली भारत की एक बड़ी कंपनी का विज्ञापन बेहद आराम से आधी आबादी को एक सेविका के ही फ्रेम में फिट करने का गेम खेल रही है। विज्ञापन का सार यह है कि पत्नी दफ़्तर में मालकिन है और पति एक कर्मचारी। वह महिला काम के प्रति प्रतिबद्ध है। लेकिन दूसरे ही दृश्य में वह घर पर जाकर खाना बनाती है और वीडियो कॉल करके इंतज़ार करने की बात कहती है। यह विज्ञापन पहली नज़र में बिलकुल सादा और आकर्षक है। लोगों को प्रेम सा एहसास देने के लिए काफी है। लेकिन यह बहुत खतरनाक है कि दफ्तर में भी काम करो और घर पर जाकर खाना बनाओ। वास्तव में जिस बात को हल्के से लिया गया है वह महिला श्रम है। थकान दोनों को होती है, यह कोई नहीं सोचता। श्रम को हमेशा से ही भारत जैसे देश में छुपा के रखा गया है। उस पर बात न के बराबर होती है।

ठीक इसी तरह एक खाने के मसाले के विज्ञापन में दादी माँ जल्दी से लजीज खाना बना देती है क्योंकि उसके पास जिस कंपनी का मसाला है वह इसी काम में माहिर है। लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि दादी माँ को इस उम्र में भी किचन की शक्ल देखनी है। काम करना है। औरतों के हिस्से आए स्पेस की अगर बात की जाए तब किचन के अलावा कोई स्पेस दीखता ही नहीं। या कम से कम उससे जुड़ी छवियाँ ज़्यादा परोसी जाती रही हैं।

घर और उसके अंदर के भाग भी लंबे समय से औरतों के लिए पक्के किए जाते रहे हैं। जैसे दहलीज़ पर नहीं खड़ा होना चाहिए, खिड़की से नहीं झांकना चाहिए आदि। जब मेहमान आए तो कोई लड़की उनके सामने न आए, जैसी रस्म आज भी हमारे कस्बों और शहरों में दिखती है। दरवाज़ों पर लगे पर्दों का पूरा विमर्श ही हम औरतों को इंगित करता है। इन सब से अधिक रसोई के अंदर जमी हुई छवि माँ व पत्नी के नाम ही सुपुर्द है। इसलिए कहीं न कहीं इन परंपरागत छवियों को चटकाना जरूरी है। एक बार चटकी तो टूटेंगी जरूर। लेकिन विज्ञापन इस मामले में भी चालाकी से अपना गेम खेल जाते हैं।

इसी तरह एक मोटर साईकिल का विज्ञापन टीवी पर दिखाया जाता है। विज्ञापन के नेपथ्य में एक राजस्थानी गाना चलता है जो सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन इस विज्ञापन पर पर्याप्त निगाह डालकर समझना जरूरी है। महिला पानी भरने दूर रेगिस्तान में गई है और उसके पास लगभग पाँच पानी के धातु के छोटे-बड़े घड़े हैं। वह राह पर खड़ी है। तभी एक मोटर साईकिल वाला आता है और वह पीछे बैठती है। अपने सिर पर लगातार पाँचों घड़ों को लिए बैठी, वह यह देखती है कि घड़े गिर नहीं रहे हैं। मोटर साईकिल ऐसे चलाई जाती है कि महिला को झटके नहीं लगते और उसका पानी नहीं गिरता।

अंत में गाने में कहते भी हैं- ‘झटका झूठ लागे रे!’ विज्ञापन भले ही मोटर साईकिल के पुर्जों और बनावट का है फिर भी राजस्थानी महिला की वही पूर्ववत छवि है। अब या तो राज्य सरकारों ने अपना काम इतने सालों से ठीक नहीं किया कि आज भी उन्हें पानी लेने जाना पड़ता है। या फिर इन कंपनियों के रचनात्मक विभाग इतने दयनीय क्यों होते हैं कि वे किन्हीं दूसरी छवियों के बारे में सोच नहीं पाते? राजस्थान सोचो तो बस पानी लेती जा रही महिलाओं की छवि दिखे, क्या यही कल्पना हमारे मन में नहीं डाल दी गई है? सोचिए ज़रा ठहर कर। बर्तनों से ज़िद्दी खाने के चिपके अवशेष को लगभग औरतें ही हटाती आई हैं और आ रही हैं। यह सब किनता नॉर्मलाईज्ड है!

एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि जब गूगल पर अंग्रेज़ी में विलेज़ विमीन टाइप किया जाता है तब महिलाओं के घिसे-पिटे चित्र भी साथ में दिखाये जाते हैं।

उनमें से अधिकतर गाँव की महिलाओं को चूल्हा-चौका, खेतों में काम करते हुए, पनघट में पानी भरते हुए मटकों के साथ, रोटी थापते हुए, घर की चार दीवारी में, किसी के इंतज़ार में रहते हुए दिखाया गया है। दिलचस्प यह है कि उनके पास गाँव की महिलाओं की किसी दूसरी छवि की कल्पना ही नहीं है। यह एक अदृश्य पर भयानक तथ्य है। जिसे हम बेहद सामान्य तौर-तरीकों से लेते हैं। इसलिए गढ़ी गई छवियों से डर लगता है। यह ख़्वाहिश है कि ये सभी गढ़ी हुई छवियाँ टूटे और हम भी किसी कलाकार के रूप में, यात्री के रूप में, किसी फटॉग्राफर के रूप में, जंगल में सफारी करते हुए, आसमानी राइडिंग करते हुए, समुद्री ट्रिप का मज़ा लेते हुए आदि छवियों में दिखें और पहचानी जाएँ। ये सब छवियाँ ऐसा नहीं हैं कि मौजूद नहीं हैं पर वे सिर्फ एक वर्ग तक सीमित हैं। एक आम महिला भी यह सब कर ही सकती है तो वे क्यों न दिखे!

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के आने पर हम महिला सशक्तिकरण की बातें करने के मोड में आ जाते हैं। रैलियाँ निकाली जाती हैं। बैनर बड़े आकार में दिखने लगते हैं। कुछ ख़ास क़िस्म के नारे तेज़ आवाज़ों में सुनाई देने लगते हैं। सरकारी और गैरसरकारी संगठन अपनी आवाज़ें बुलंद करते हैं। आधी आबादी तुरंत ब्रेकिंग न्यूज़ की तस्वीरों में बदल जाती है। ये सब अच्छा है लेकिन उन मुद्दों का क्या जिनकी वास्तव में खबर लेनी चाहिए। देश में अब भी उन कच्चे और पके हुए औरताना अनुभवों की सुध नहीं ली जाती जो आधी आबादी के सशक्तिकरण में रूकावट है। पढ़ चुकी बिटियाओं के लिए अब भी रोजगार दूर का चाँद है जो बस दिखता है पर कभी हासिल नहीं होता। सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा है। इन सब मुद्दों के साथ बाज़ार द्वारा घटिया और परंपरागत जली-कुटी छवियों को भी महत्वपूर्ण मानना पड़ेगा। आज हर हाथ में मोबाइल है और हर कोई वीडियो-फिल्म्स देखने का दीवाना है। ऐसे में ये बाजारी विज्ञापन औरतों की गलत छवि पेश करते हैं जिनका हमें संज्ञान लेना ही होगा। हमें इस में कुछ बुरा भी नहीं लगता। कुछ विज्ञापन अच्छे भी होंगे इसमें कोई शक़ नहीं। लेकिन बात अच्छे बुरे से दूर निकल चुकी है।

बच्चों के विज्ञापन में भी लगभग यही शामिल है। हाल ही में सरकार ने टीवी पर दिखाए जा रहे कुछ शॉ पर संज्ञान लिया है। बच्चे बचपन में प्रतियोगिता के शिकार हैं। उनके दिमाग का विकास कितनी उम्र में हो जाता है इसलिए उसके लिए यह ‘ड्रिंक’ पिलाई जाए तो वह ऐसा बनेगा/बनेगी। यह पाउडर लगाने से उसकी त्वचा ऐसी हो जाएगी। वह तेल लगाने से मांस-पेशियाँ मज़बूत होंगी। यह खिलाइए तो उसका पढ़ने में मन लगेगा। यह सब इतना आसान बनाकर दिखाया जाता है कि हम कुछ मिनटों में भूल जाते हैं कि इसी देश में बच्चे भूख से भी मरते हैं और बीमारी से भी। हाल ही में बिहार जो हुआ वह क्या किसी आपदा से कम था जिसकी जिम्मेदारी इंसानों वाली सरकार पर है। महिला और बाल विकास मंत्रालय वाले इस देश में दोनों का कल्याण ही नहीं हो पता। लेकिन हमने अपना एयर कंडिशनर लगा हुआ दफ़्तर जरूर खोल लिया है। अगर यह सब हुल्लड़-हुड़दंग जैसा नहीं लगता तो क्या लगता है? इसे हम सब को जानना चाहिए। हमारे दिमागों में भूसा था या नहीं, यह ठीक से नहीं मालूम पर तय है कि शोर तो ज़रूर है।

.

Show More

ज्योति प्रसाद

लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो हैं। सम्पर्क-  jyotijprasad@gmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x