जाति ने बचपन से मेरा पीछा किया है – पा. रंजीत
- पा. रंजीत
तमिल फिल्म निर्देशक पा. रंजीत, जिनकी विचारोत्तेजक फिल्मों और वक्तव्यों ने एक छाप छोड़ी है, वे श्रीनिवास रामानुजम् के साथ अपनी बातचीत में बताते हैं कि अपने जीवन और पेशेगत काम में राजनैतिक होने के अलावा उनके पास कोई अन्य विकल्प क्यों नहीं है।
निर्देशक पा. रंजीत के कार्यालय का स्वागत कक्ष एक पुस्तकालय सरीखा दिखता है। यह दीवारों पर लगे फिल्मी पोस्टरों से प्राय: शेखी बघारने वाले कोडम्बक्कम जैसे तमिल निर्देशकों के कार्यालयी स्थलों की चिल्लपों से बहुत दूर है। यहाँ पुस्तकों की अलमारियों में अंबेडकर, पेरियार और मार्क्स एक-दूसरे के साथ समय गुजारते हैं। कोने में एक कैरमबोर्ड है जिसका इस्तेमाल उनके सहायक निर्देशक मन बहलाव और गंभीर चिंतन-मनन के लिए करते हैं। उस स्थान पर एक भी मूवी पोस्टर नहीं है। न ही स्वयं उन्हीं के चित्र वहाँ हैं। रंजीत कंधे उचकाते हैं कि ‘ठीक ही तो है, यह सब (फिल्में) मेरे विषय में कभी था ही नहीं’ वे न सिर्फ तमिल सिनेमा की महत्वपूर्ण आवाज़ के रूप में उभरे हैं अपितु जातिवाद के विरुद्ध एक स्वर के रूप में भी उभरे हैं।
पिछले कुछ सप्ताह रंजीत के लिए व्यस्तता भरे रहे हैं – ग्यारहवीं सदी के तमिल शासक राजा राजा चोलन के ऊपर उनकी टिप्पणियों ने कुछ लोगों को नाराज कर दिया। हमारे मिलने से सिर्फ एक दिन पहले ही उन्हें सशर्त अग्रिम जमानत मिली थी। जैसे ही हम बातचीत के लिए बैठते हैं, वे कहते हैं कि ‘पुढु अनुभवम्’ (नया अनुभव है)। श्रीनिवास रामानुजम् द्वारा दि हिंदू के लिए उनके साथ की गई इस बातचीत का हिंदी उल्था इस प्रकार है :
आपने अभी राजा राजा चोलन का विषय क्यों उठाया ॽ
मैं उस स्थल (थंजावुर) के कारण उनके बारे बोला था और इसलिए भी बोला था क्योंकि हर एक दावा करता है कि राजा उनकी जाति का था। मेरा मुख्य मुद्दा यह है : उनके शासन के दौरान कामगार वर्ग के पास स्वयं की जमीन क्यों नहीं थी ॽ मैंने जो कहा, वह मेरे द्वारा पढ़े गये के.के. पिल्लई, के.ए. नीलकंडा शास्त्री, पी.ओ. वेलसामी और नोवोरु करशिमा के लेखन पर आधारित है।
राजा राजा चोलन ने भव्य मंदिर बनवाये और उनकी दीवारों की नक्काशियों में नाइयों और धोबियों के नाम भी शामिल करवाये।
मंदिरों की वास्तुकला से मैं हतप्रभ हूँ। मुझे राजा के उस आयाम को लेकर कोई समस्या नहीं है। लेकिन यह उन्हीं का शासन है कि जाति ने अपना बदसूरत सिर उठाया – अलग-अलग जातियों के लिए अलग-अलग कब्रिस्तान भी होते थे। हो सकता है कि यह पहले से प्रचलन में रहा हो किंतु उनके शासन के दौरान यह एक मजबूत प्रथा बन गई। बहुत सी पुस्तकें इस ओर संकेत करती हैं।
एक फिल्म निर्माता के लिए अपनी फिल्मों और फिल्मों के बाहर राजनैतिक होना क्यों महत्वपूर्ण है ॽ
जो मैंने जीवन से सीखा है, मुझे उसे लिपिबद्ध करना होता है। अपने कामकाज में और अन्यत्र जो मैं झेलता था, उसके बारे में मुझे बात करनी होती है। अपने बड़े होने के वर्षों से जाति के मुद्दे ने सर्वत्र मेरा पीछा किया है, चाहे यह पीछा किया जाना जश्न में रहा हो या निराशा में रहा हो। इसलिए जब मैं निर्देशक बन गया तो मुझे इसके बारे में बात करनी ही थी … ऐसा कोई रास्ता नहीं है कि मैं सिर्फ अपनी रचनात्मक प्यास बुझाने के लिए फिल्म बना सकूँ।
उदाहरण हेतु एक पेड़ लीजिए। या एक कुँआ लीजिए या एक खेल मैदान। मेरे गाँव के अधिकांश लोग इन्हें सौंदर्य की वस्तु या आनंद के स्थल के रूप में देखते थे किंतु मैं नहीं देखता था … कारण कि समाज मुझे बताता रहा था कि यह मेरा नहीं था। कोई कहता कि मैं एक दलित होने के कारण पेड़ पर नहीं चढ़ सकता था या कुँए का इस्तेमाल नहीं कर सकता था। मैंने सोचना जारी रखा कि कुछ चीजें जिनका इस्तेमाल हर एक के लिए बहुत आम होता है, वे मेरे लिए सुलभ क्यों नहीं होती थीं ॽ इसलिए आज जब मैं एक पेड़ या कुँए को फिल्माता हूँ तो मैं इसे सिर्फ कलात्मक नज़र से नहीं देख सकता ; यह मेरे लिए एक भिन्न कहानी पेश करता है। मैं उस कहानी को सुनाने के लिए ही फिल्म निर्माता बनना चाहता हूँ।
आप, निश्चय ही, उस कहानी को वैकल्पिक सिनेमा के माध्यम से सुना सकते हैं। किंतु वाणिज्यिक, बड़ी सितारा फिल्मों में ऐसा करते हुए चुनौतियाँ क्या हैं ॽ
जब रजनी सर मेरे पास आये तो मैं जानता था कि ‘अट्टाकथि’ (2012) और ‘मद्रास’ (2014) जैसी मेरी यथार्थवादी फिल्में देखकर ही उन्होंने मेरा चयन किया था ; अत: मैं इस बात को लेकर बिल्कुल आग्रही था कि काबली (2016) और काला (2018) उसी शैली में हों जिस शैली में मैं बहुत सहज था। वाणिज्यिक सिनेमा बहुसंख्यकों से बात करता है और यही कारण है कि मैं यहाँ रहूँगा। लेकिन लोग खरी चीज की सराहना करते हैं। और अपनी फिल्मों के साथ मैं निश्चय ही कह सकता हूँ कि मैंने अपने दर्शकों के साथ संवाद कायम कर लिया है। यह मुझे आगे बढ़ाना जारी रखेगा।
क्या कोई अविस्मरणीय घटना है जिसने आपको राजनैतिक होने की ओर प्रेरित कियाॽ
यह मेरी जीवन शैली का हिस्सा था। पड़ोसी का बच्चा मुझे स्कूल में एक ग्लास पानी इसी तरह से सौंपता था। या दुकानदार मेरे हाथ में खुल्ला न रखकर उसे काउंटर पर छोड़ देता था। ऐसी बहुत सारी घटनाएँ हैं। जो सवाल मुझे उद्वेलित किये रहता था, वह था : कि हम (दलित), समाज के साथ एकीकृत क्यों नहीं थे ॽ ऐसा संभव है कि यह सवाल दूसरों के लिए तुच्छ रहा हो, किंतु यह गहराई तक मुझे व्यथित करता था।
आप अक्सर अपने बचपन की चीजों के विषय में बोलते हैं। क्या 2019 में चीजें बहुत ही ज्यादा अलग नहीं हैं ॽ
कैसे भिन्न हैं ॽ हमने अभी एक प्रधानाध्यापिका के विषय में सुना है जो बच्चों से शौचालय साफ करने को बोलती थी ; एक निर्णय के बारे में सुना है जिसने इलवरासन की मृत्यु को आत्महत्या बताया। हम कैसे कह सकते हैं कि चीजें बदल गई हैं। हम तो आरक्षण को ही नहीं पचा सकते, लेकिन हम कहते हैं कि ‘‘यह नई दुनिया है। आओ जाति को भूल जायें और बराबर हो जायें।’’ लोगों से शताब्यिों के दमन को भूल जाने के लिए कहना भी एक हिंसा है। हमें इस पर बहस करने की और क्षतिपूर्ति करने की जरूरत है। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम नहीं कह सकते कि चीजें बदल गई हैं।
उत्तरी मद्रास, मलेशिया, धारावी … आपकी फिल्में उन स्थानों पर आधरित होती हैं जहाँ दमित वर्गों के लोग होते हैं। घटना स्थल कैसे महत्वपूर्ण होता है ॽ
सब कुछ पृष्ठभमि ही होती है। अगर आप किसी गाँव में जाते हैं तो वहाँ के पोस्टरों, झंडों और मूर्तियों को देखें … वे वहाँ रहने वाले लोगों की कहानी कहते हैं। जब मैं किसी चरित्र को फिल्माता हूँ तो मैं विस्तार से (उसकी) पृष्ठभमि पर शोध करता हूँ क्योंकि मेरा मानना है कि यह अत्यधिक योगदान करती है। एक आकाशीय शॉट के बारे में विचार करें जहाँ आप एक गाँव देखते हैं जिसमें मुख्य इलाके से कुछ दूरी पर रहने वाले पचास परिवारों की एक बस्ती है। यह शॉट एकल दृश्य में ही सारी कहानी कह देता है।
आपके संवाद जबर्दस्त होते हैं, चाहे ‘गाँधी ड्रेस – अंबेडकर कोट’ वाला चुटकुला हो या ‘नीलम एंगल उरिमाइ’ हो। क्या आपको कभी यह डर लगता है कि वक्तव्य देने की बजाय ये पंचलाइन बनकर रह जायेंगे।
मैं याद करता हूँ कि ‘गाँधी-अंबेडकर’ वाली पंक्ति लिखते हुए और रजनी सर के सामने नोट पैड रखते हुए मैं परेशान था कि वे क्या कहेंगे। वे चीख पड़े – ‘सुपर, सर’, किंतु कुछ ऐसी चीज की तो मैं बिल्कुल भी उम्मीद नहीं कर रहा था। शॉट पूरा करने के बाद मैं शौचालय में गया और दिल खोलकर रोया। यह बहुत ही भावुक बात थी ; मुझे लगा कि मैंने एक ताकतवर आवाज़ के साथ मुखर वक्तव्य दे दिया था।
आपकी फिल्मों में महिलाएँ बहुत मजबूत होती हैं। क्या हम शीघ्र ही महिला केंद्रित फिल्म की उम्मीद कर सकते हैं ॽ
जिन महिलाओं के इर्द-गिर्द मैं बड़ा हुआ, वे कामगार वर्ग की थीं। सिनेमा में जो मैंने देखा, वह कुछ ऐसा था जिसका अपने वास्तविक जीवन में मैंने कभी सामना नहीं किया था – दब्बूपन के साथ अपने पतियों के बगल में खड़ी महिलाएँ। मैंने अपने माता-पिता, मेरी जगह की महिलाओं और इस प्रकार के चरित्रों को कभी भी तमिल सिनेमा में फिल्मांकित नहीं देखा। यही कारण है कि मैं महिलाओं के लिए मजबूत चरित्र लिखता हूँ। मुझे दृढ़ता से लगता है कि अगर वे ज्यादा सशक्त हो जाती हैं तो वे समाज को सुधार सकती हैं। कारण कि ये वे ही हैं, जो बच्चों को बड़ा करती हैं, उन्हें बताती हैं कि किसके साथ घुलना-मिलना है और कैसे घुलना-मिलना है। मेरे पास पूरी तरह से महिला केंद्रित कुछ योजनाएँ हैं। पूर्णत: स्त्री के दृष्टिकोण से कही गई एक प्रेम कहानी है। मैं किसी दिन एक सुपरहीरो की कहानी फिल्माने की भी उम्मीद करता हूँ … वंडर वीमैन की तर्ज़ पर।
‘काला’ के क्लाइमेक्स में रंग के संदर्भ में महत्वपूर्ण उपपाठ था। आपके नाटकों में से एक का शीर्षक है ‘मंजल’। आप रंग के माध्यम से अवधारणाओं को समझाने का प्रयास करते हैं। क्या यह सफल होता है ॽ
मेरा मानना है कि मैं सफल रहा हूँ। भारत के संदर्भ में रंग बहुत महत्वपूर्ण हैं। झंडे को लीजिए – कुछ लोग सोचते हैं कि केसरिया, हरा और सफेद क्रमश: हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंबेडकर समानता के व्यंजक एक रंग के रूप में नीले रंग की बात करते हैं। मैं इस सब को ‘काला’ के क्लाइमेक्स में रखना चाहता था। यह मूलत: एक लड़ाई वाला सिक्वेंस था, लेकिन मैं कुछ दार्शनिक सा सूचित करना चाहता था – वह यह कि अगर लोग इन तीन रंगों के नीचे एक साथ आ जाते हैं तो वे वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष कर सकते हैं। और मेरा मानना है कि नीला चक्र इसी एकता को प्रतिबिंबित
करता है।
- अवाडि के निकट एक गाँव में इनका जन्म। चेन्नै के राजकीय ललित कला महाविद्यालय से स्नातक।
- 2012 में रोमांटिक कॉमेडी अट्टाकथि से निर्देशकीय आगाज। पहली गैर तमिल परियोजना – स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा पर आधारित जीवनीपरक फिल्म पर काम जारी।
- गंभीर रूप से प्रशंसित पेरियारम पेरुमाल (2018) का निर्माण
- नीलम कल्चर सेंटर नामक स्वयंसेवी संगठन के साथ काम करते हैं। दि कास्टलैस कलैक्टिव नामक मुखर रूप से प्रखर म्यूजिक बैंड की पृष्ठभूमि में है यही स्वयंसेवी संगठन।
अनुवादक :– डॉ. प्रमोद मीणा