साक्षात्कार

 महिला मतदाता पहले की तुलना में बहुत ज्‍यादा महत्‍व रखती हैं – प्रणय रॉय

 

(जनमत सर्वेक्षण के सूचकांक, मतों की अदला-बदली, सत्‍ता विरोधी लहर और उत्‍तर प्रदेश के गलत कांग्रेसी पाठ पर दिग्‍गज पत्रकार )

दिग्‍गज पत्रकार और चुनाव विश्‍लेषक प्रणय रॉय ने अभी हाल में दोराब आर. सोपारीवाला के साथ मिलकर एक पुस्‍तक लिखी – ‘दि वर्डिक्‍ट : डिकोडिंग इंडिया’ इलेक्‍शन्‍स’। दि हिंदू के लिए दिये गये एक साक्षात्‍कार में प्रणय रॉय जनमत सर्वेक्षण, छप्‍परफाड़ जीत और चुनाव में भारत की अनुपस्थित रहने वाली महिला मतदाताओं पर बात करते हैं।

चुनाव पर आपके कार्य को लें तो आप और आपकी टीम के पास पत्रकारिता के कार्यकौशल के साथ अकादमिक दृढ़ता का सम्मिश्रण है, जैसे कि घटनाक्रमों की साक्षी और जाँच, दोनों वहन करना। आप एक अर्थशास्‍त्री, एक अधिकृत लेखापाल (चार्टर्ड एकाउंटेंट), एक चुनाव विश्‍लेषक और एक पत्रकार भी हैं। आपके अनुसार आपकी ये भूमिकायें आपकी पत्रकारिता के लिए क्‍या मायने रखती हैं

यह एक महत्‍वपूर्ण सवाल है। इन भूमिकाओं के गुणात्‍मक और संख्‍यात्‍मक आयाम होते हैं और इन्‍हें मिलाया नहीं जाना चाहिए। उदाहरण के लिए जब मैं जनमत सर्वेक्षण कर रहा हूँ तो वह संख्‍यात्‍मक कार्य होता है और पत्रकारों के रूप में हमें गुणात्‍मक कार्य करने की जरूरत होती है। बहुत सारे पत्रकार चुनाव का पूर्वानुमान लगाने की ओर प्रवृत्‍त हो जाते हैं जो विशेषत: इस तथ्‍य के मद्देनज़र उनका काम नहीं होता है कि हमारे यहाँ सर्वाधिक मत प्राप्‍त करने वाले को विजयी घोषित करने की व्‍यवस्‍था है। इस व्‍यवस्‍था में मत प्रतिशत में हल्‍का सा बदलाव भी सीटों में बहुत बड़ा अंतर ला देता है। मतों में 3 प्रतिशत अंतर का मतलब हो सकता है कि 100 सीट दूसरे के हाथों में चली जायें। एक पत्रकार के लिए 3 प्रतिशत के मामूली से अंतर का पता लगाना मुश्किल होगा।

मुझे लगता है कि पत्रकारिता का काम गुणात्‍मक होता है ; पत्रकारिता का काम कहानियों, मुद्दों के बारे में बात करना होता है। जनमत सर्वेक्षण के द्वारा इन्‍हें सरलीकृत रूप से संख्‍याओं में नहीं बदला जा सकता। हमने देखा कि उत्‍तरप्रदेश के किसान किस तरह परेशानी झेल रहे थे और कैसे उनकी नियति पाँच साल पहले की स्थिति से अलग थी। और हम इसे संख्‍या में नहीं रख सकते। पत्रकार का काम चुनाव को लेकर एक वृत्‍तांत सुनाना होता है और भविष्‍यवाणी करने से बचना होता है। लोगों से उनकी वरियता के मुद्दों को सूचिबद्ध करने के बारे में पूछकर चुनाव विश्‍लेषक भी गुणात्‍मक होने की कोशिश करते हैं किंतु यह आसान नहीं है। उन्‍हें लोगों से बातचीत करनी होती है, उन्‍हें समझना होता है और एक पत्रकार के रूप में मुद्दों को समझने में समय लगता है।

पत्रकार बाज़ी लगाने में हिचकिचाते प्रतीत होते हैं। आपकी पुस्‍तक की एक निष्‍पत्ति है कि अक्‍सर चुनावी विश्‍लेषक विजेता की सटीक पहचान कर लेते हैं लेकिन विजेता की सीटों के संदर्भ में वे सदैव जीत के पैमाने को कमतर रखते हैं। क्‍यों

चुनावी विश्‍लेषकों की प्रवृत्ति होती है सुरक्षित खेलना। सीटों की बजाय उनके लिए महत्‍वपूर्ण होता है विजेता की सही पहचान करना। वे पूर्वानुमान लगाते हैं कि फलाना पार्टी सबसे बड़ी पार्टी होगी किंतु वे सीटों को इसतरह प्रस्‍तुत करते हैं कि मानक विचलन कम रहे। उदाहरण के लिए अगर उनका सर्वे किसी को 280-290 सीटों की बढ़त लेते दिखाता है तो वे उस बढ़त संख्‍या को 250 तक घटा सकते हैं। इसलिए अगर कोई पार्टी 250 सीटें जीतती हैं और वह इकलौती सबसे बड़ी पार्टी होती है तो वे दावा कर सकते हैं कि उन्‍होंने विजेता को सही पहचान की थी। अगर वे सबसे बड़ी पार्टी की गलत पहचान करते हैं तो फिर इस गलती को नगण्‍य ठहराना कठिन होता है। ऐसा इसलिए भी है क्‍योंकि उत्‍तरदाता सुरक्षित खेलना चाहते हैं जो इस चुनाव में विशेष रूप से सही है। वे इसकी पुष्टि करने की ओर प्रवृत्‍त हैं कि सत्‍ताधारी दल का समर्थन करते हैं कि क्‍योंकि वे हमेंशा चुनाव विश्‍लेषक पर भरोसा नहीं करते। उत्‍तरदाताओं में भय वाला कारक कितना है … यह अनुमान लगाना चुनाव विश्‍लेषकों के लिए कठिन है।

क्‍या यह मतदाताओं के बीच विश्‍वास की कमी है या गलत दिशा में किया जाने वाला अनुमान है

इस क्षण, ऐसा नहीं है। हम यह पूछने की कोशिश करते हैं कि आप ने पिछली बार किसे वोट दिया था। और फिर हम यह भांपने का प्रयास करते हैं कि क्‍या उत्‍तरदाता पिछली बार को लेकर अतिश्‍योक्ति तो नहीं कर रहा है और उसे समायोजित करने की कोशिश तो नहीं करता है। लेकिन उत्‍तरदाता यह कहने की प्रवृत्ति भी रखते हैं कि उन्‍होंने पिछली बार सत्‍ताधारी दल को वोट दिया था। पिछली बार उन्‍होंने जिसे वोट दिया, उसे लेकर जबर्दस्‍त अतिश्‍योक्ति है। यही परिदृश्‍य दुनिया भर का होता है। इसलिए मैं नहीं मानता कि इस डर के कारक का अनुमान लगाने की कोई तकनीक है। किंतु हम इस व्‍यवहार को समझने के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्‍ता और गहन अधिगम का इस्‍तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं।

आपने जनमत सर्वे के गुणात्‍मक और मात्रात्‍मक पहलुओं के बारे में बात की। अब जनमत सर्वे इस अर्थ में उपयोगी हैं कि वे समग्र जनमत को, जैसा वोट डाले जाते हैं, उसी प्रकार टुकड़ों में स्‍पष्‍ट कर देते हैं। उदाहरण के लिए ये बता देते हैं कि कुछ विशिष्‍ट श्रेणी के लोगों ने कैसे वोट डाले थे। लेकिन अब जनमत सर्वे में एक धमाका हो गया है। वे अब मतदान प्रारूप को समझने का माध्‍यम कम रह गये हैं और स्‍वयं में एक लक्ष्‍य ज्‍यादा हो गये हैं। यह ठीक है ना

हम उम्‍दा गुणात्‍मक सूचनाओं और प्रस्‍थान बिंदुओं तक पहुँच जाते हैं जिनके आधार पर पत्रकार यह समझने का काम कर सकते हैं कि क्‍या ये चीजें चुनावी मैदान में अच्‍छे से वोटों में रूपांतरित होती हैं या नहीं होती। किंतु चुनावी सर्वों को संख्‍या से आगे नहीं जाना चाहिए। जहाँ पत्रकार मतदाताओं की वास्‍तविक प्रेरणाओं को बताता है, वहीं जनमत सर्वे ऐसा नहीं कर सकते। वे समर्थन को मापने के लिए पर्याप्‍त होते हैं किंतु मूल सवाल ‘क्‍यों’ का जबाव गुणात्‍मक पद्धतियों का प्रयोग करते हुए पत्रकारों को देना होता है। यह ऐसा कुछ नहीं है जो चुनावी विश्‍लेषक कर सकें।

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आपकी पुस्‍तक के रोचक निष्‍कर्षों में से एक निष्‍कर्ष छप्‍परफाड़ जीत को लेकर है। क्‍या आप इस परिदृश्‍य को राष्‍ट्र और राज्‍य के स्‍तर पर स्‍पष्‍ट कर सकते हैं

हमारे यहाँ अब चुनाव पूरी तरह से राष्‍ट्रीय नहीं हुआ करते हैं जैसा कि 1950 के दशक में हुआ करते थे जबकि हम अभी-अभी ही आजाद हुये थे और लोग अपने राजनेताओं एवं नायकों पर भरोसा करते थे। लोकसभा चुनाव राज्‍य चुनावों का एक संघ होता है। और हमेंशा हर राज्‍य भिन्‍न-भिन्‍न ढंग से वोट करता है और किसी भी चुनाव में अंतिम परिणाम एक-दूसरे को महत्‍वहीन बना सकने वाली छप्‍परफाड़ जीतों और राज्‍य स्‍तर की जीतों का सम्मिश्रण होता है। इसलिए हम तमिलनाडु में एक तरह की छप्‍परफाड़ जीत पा सकते हैं तो दूसरे तरह की जीत महाराष्‍ट्र में पा सकते हैं और यह सिलसिला इसी प्रकार जारी रहता है। हम पाते हैं कि 77 प्रतिशत लोकसभा चुनावों में राज्‍य स्‍तर पर इकतरफा परिणाम रहे हैं।

क्‍या तमिलनाडु एक आदर्श मामला है

94 प्रतिशत मामलों में तमिलनाडु में जीत इकतरफा रही है। यह हमेंशा इकतरफा होती है – यहाँ किसी एक दल या गठबंधन को भारी विजय मिलती है। छप्‍परफाड़ हार-जीत इसलिए घटित होती है क्‍योंकि सर्वाधिक मत पाने वाले उम्‍मीदवार की विजय वाली हमारी व्‍यवस्‍था (एफपीटीपी चुनावी व्‍यवस्‍था) अंतर्गत वोटों की हिस्‍सेदारी में मामूली सा बदलाव भी सीटों में बड़ी भारी अंतर ला देता है। एफपीटीपी व्‍यवस्‍था और खंडित विपक्ष का परिणाम छप्‍परफाड़ हार-जीत के रूप में निकलता है।

चुनावी आख्‍यान को लेकर मीडिया में जो चर्चा है, वह कहती है कि भाजपा आज लोकप्रिय राष्‍ट्रवाद पर सवार है जबकि अतीत में कांग्रेस भी दूसरी चीजों पर सवार रही है। क्‍या यह सब राष्‍ट्रीय स्‍तर पर काम करता है या यह एक मिथक है

यह किंचित सा मिथक है। उदाहरण हेतु आंध्र प्रदेश में हम बिल्‍कुल भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या बहुसंख्‍यकवाद या राष्‍ट्रवाद के विषय में नहीं सुनते। लेकिन उत्‍तरप्रदेश जैसे कुछ राज्‍यों में यह आख्‍यान कुछ सीमा तक अस्तित्‍व रखते हैं। समय के साथ हम पाते हैं कि मतदाता अपनी जीवन दशाओं के आधार पर मत करते हैं। हम उत्‍तरप्रदेश के एक गाँव में गये जहाँ मतदाताओं ने कहा कि वे सरकार के खिलाफ मत डालने जा रहे हैं क्‍योंकि एक पुल नहीं बनाया गया था। एक उत्‍तरदाता ने पुलवामा का उल्‍लेख किया किंतु उसने अपने वरीयताओं में इसे आजीविका से कम दर्ज़ा दिया।

ऐसा हो सकता है कि कोई एक ऐसा आख्‍यान न हो जो राज्‍यों पर हावी होता हो लेकिन हमारे पास जो सरकार है, वह 2014 से ही चुनावी अभियान की मानसिकता में रही है। क्‍या अतीत में कोई ऐसी सरकार रही है जो अपने संदेश को फैलाने में इतना ज्‍यादा यकीन रखती हो क्‍या यह चीज आख्‍यान की दिशा तय करने में अब महत्‍व रखती है

यह बहुत महत्‍व रखता है। यह सरकार और भाजपा बूथ प्रबंधन और परिणाम प्रबंधन में बहुत ही ज्‍यादा दक्ष हैं। वैश्विक स्‍तर पर इसे चुनाव जीतने के केंद्रीकृत तरीके के रूप में देखा जाता है। इस समय भाजपा इसमें उत्‍कृष्‍ट है, उसके पास पन्‍ना प्रमुख, बूथ प्रभारी और इसी प्रकार की और चीजें हैं। उसके पास सोशल मीडिया ऐप हैं जिनका इस्‍तेमाल पार्टी के शीर्ष नेता पन्‍ना प्रमुखों तक पहुँचने में करते हैं। ये पन्‍ना प्रमुख सेकंडों में संदेश पा लेते हैं और फिर हर कोई उन संदेशों को पा जाता है। हमने देखा है कि कम मतदान भाजपा जैसी कैडर आधारित पार्टियों की मदद करता है क्‍योंकि वे यह सुनिश्चित कर लेती हैं कि उनके मतदाता मत डालें। कैडर रहित पार्टियाँ उम्‍मीद करती हैं कि लोग स्‍वेच्‍छा से मत डालेंगे। कम मतदान वाले चुनावों में प्रतिबद्ध मतदाताओं से ही उम्‍मीद रहती है कि वे ही ज्‍यादा मत डालेंगे।

मैं नहीं कहता कि भारत में इस बार ऐसा होने जा रहा है एक चिंता है। विश्‍व के दूसरे हिस्सों में जैसा हमने देखा है, उस प्रकार के परिणाम प्रबंधन के खेल में शामिल होता है – अफवाहें फैलाना। ये अफवाहें हिंसा का भय पैदा करके चुनाव में मतदान करने को लेकर लोगों को रोकती हैं। अमेरिका में मतदाता का दमन अफ्रीकी अमेरकियों जैसे कुछ विशेष श्रेणियों के मतदाताओं को मतदान करने से रोकता है। दमन के (विभिन्‍न) तरीके मतदाता के रूप में अपना पंजीयन करवाना भी उनके लिए दुष्‍कर बना देते हैं। इसी प्रकार की समस्‍या हमारे यहाँ भी है।

क्‍या दक्षिणपंथी दल यह डर पैदा करते हैं कि महिलाएँ वोट डालने के लिए बाहर न निकलें

कई बार वे ऐसा करते हैं। लेकिन भारत में महिलाओं के मतदान में पिछले सालों के दौरान बढ़ोतरी आ रही है।

बहुत पहले अशोक लाहिरी और आपने विपक्ष की एकता का एक सूचक तैयार किया है। क्‍या आप इसके महत्‍व को हमें बता सकते हैं समरूप झुकाव पर आपने डेविड बटलर के कार्य पर चर्चा की है और उल्‍लेख किया है कि यह अखिल भारतीय समीकरणों पर कैसे लागू नहीं होता है। और आप बताते हैं कि भारत में विपक्ष की एकता वाला सूचकांक एक बड़ा निर्णायक कारक होता है।

हाँ, हमने बटलर के कार्य से बहुत कुछ सीखा है जिन्‍होंने समरूप झुकाव के सिद्धांत का प्रवर्तन किया था किंतु दो पार्टी व्‍यवस्‍था में ही यह बड़े पैमाने पर कार्य करता है। जब वह भारत आया तो उसने पाया कि यह यहाँ बिल्‍कुल भी लागू नहीं होता है क्‍योंकि यहाँ हमारे पास इतनी सारी पार्टियाँ हैं। इसलिए हमें यहाँ एक ऐसे समीकरण पर काम करना पड़ा जो यह परिभाषित करता है कि हाशिये में बदलाव को कौन निर्धारित करता है। मतों में तब्‍दीली के कारण जीत के अंतर और विपक्ष की एकता में बदलाव ही वे कारक हैं जो जीत जात-हार का निर्धारण करते हैं। अगर बिल्‍कुल ठीक-ठीक दो दलीय व्‍यवस्‍था हो तो विपक्ष की एकता का सूचकांक 100/100 होता है। यह एकता जितनी ज्‍यादा खंडित होती है, यह सूचकांक 70, 60, 50 तक उतना ही नीचे चला जाता है। यह चीज जीत के अंतर के साथ-साथ वोटों के झुकाव को भी तय करता है।

लोग अक्‍सर पूछते हैं कि क्‍या कोई मोदी लहर है ॽ हम कहते हैं कि यह सब मिथ्‍या है क्‍योंकि वे 31 प्रतिशत मतों से जीते थे। वे विपक्ष के मतों के विभाजन से जीते थे। इसीलिए हमें पूछना चाहिए कि इस बार विपक्षी वोट कितने विभाजित हैं ॽ उदाहरण हेतु उत्‍तरप्रदेश में कांग्रेस स्‍वतंत्र रूप से चुनाव लड़ रही है। वह कितना महत्‍वपूर्ण है ॽ लहरों और रुझानों की अपेक्षा यह ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है। यहाँ विपक्ष की एकता का सूचकांक 100 नहीं है। यह 50, 60 या 70 है।

तो भाजपा के लिए इस बार राज्‍यों के स्‍तर पर और राष्‍ट्रीय स्‍तर पर, दोनों स्‍तरों पर पर विपक्ष की एकता का सूचकांक कितना अच्‍छा है

यह प्रश्‍न महत्‍वपूर्ण है। विपक्षी एकता के सूचकांक पर सीटों की वास्‍तविक संख्‍या का आंकलन सिर्फ जनमत सर्वों से ही लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हमने अपने सर्वों में पाया कि उत्‍तरप्रदेश में यादव दलितों के साथ मिलकर मत करने जा रहे हैं। यह न सिर्फ योगात्‍मक है अपितु अंकगणित से परे यह एक उत्‍साहवर्धक उछाल है। कारण कि मतदाताओं का रुझान यह विश्‍वास करने में है कि यह जिताऊ गठबंधन हो सकता है और इसके पक्ष में लहर है। अत: इन दो दालों में से हर एक 20 प्रतिशत मत ले आता है तो इस कारक के कारण उन्‍हें मतों में 5 प्रतिशत बढ़ोतरी हो सकती है।

क्‍या आपके पास मतों के स्‍थानांतरण के आंकड़ें हैं लोग कहते हैं कि गठबंधन में कुछ दल दूसरे दलों की अपेक्ष अपने मतों का कम स्‍थानांतरण करते हैं। क्‍या यह सही है

यह पत्रकारों में मिलने वाली परंपरागत अक्‍लमंदी है और बिल्‍कुल भी सही नहीं है। हम पाते हैं कि मतों का स्‍थानांतरण 100 फीसदी होता है और साथ ही उत्‍साहवर्धक उछाल अलग पाया जाता है। पत्रकार कहते हैं कि हो सकता है कि यादव (बसपा प्रमुख) मायावती को मत न डालें जबकि दलित सपा को मत डाल सकते हैं। यह बिल्‍कुल भी सच नहीं है। हम पाते हैं कि यादव मायावती जी को मत डाल रहे हैं।

हम सुनते हैं कि मुसलिम रणनीतिगत ढंग से मतदान करते हैं। लेकिन मुसलिम मत विभाजित होते हैं। ये बसपा-सपा गठबंधन और कांग्रेस के बीच 80%-20% में विभाजित हो रहे हैं। ब्राह्मण भीड़ के रूप में भाजपा को मत नहीं डालते हैं। ये मत लगभग 65 प्रतिशत के लगभग हो सकते हैं। यादव सपा को सौ फीसदी मत नहीं डालते हैं। ये मत लगभग 80 प्रतिशत हो सकते हैं। पत्रकार संख्‍यात्‍मक आंकड़ों को उनके चरम रूप में देखने के आदी होते हैं। वास्‍तव में कोई भी हिस्‍सा किसी एक दल को सौ फीसदी मत नहीं डालता है।

स्‍पष्‍टत: विपक्षी एकता का सूचकांक 2014 की अपेक्षा ऊँचा है। क्‍या ऐसा नहीं है

हाँ, बहुत ऊँचा है। यह विशेषत: उत्‍तरप्रदेश में एक बड़ा अंतर लाने वाला है। उत्‍तरप्रदेश में मतों की हिस्‍सेदारी अगर ठीक वही रहती है जो 2014 में थी, तो भी सिर्फ इन दो दलों – बसपा और सपा का संयोजन भाजपा की संख्‍या को 73 से आधे तक घटा देगा। अगर कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा होती तो सीटों की यह संख्‍या 20 तक गिर सकती थी। तथ्‍य यह है कि उत्‍तरप्रदेश में सिर्फ 6 प्रतिशत मतों के साथ कांग्रेस का स्‍वतंत्र रूप से चुनाव लड़ना सिर्फ 2014 की संख्‍याओं के आधार पर भाजपा को अतिरिक्‍त 14 सीटें दे रहा है। यह राज्‍य की कुल 80 सीटों का 20 प्रतिशत होता है। भाजपा 3-4 प्रतिशत वाले सीमांत मतों की भागीदारी को समझने में बहुत चालाक है जिसका परिणाम होता है सीटों की ज्‍यादा संख्‍या। वे सहयोगियों के साथ  बातचीत करने और समझौता करने में कहीं ज्‍यादा बेहतर होते हैं। वे अतिरिक्‍त मतों की हिस्‍सेदारी प्राप्‍त करने के लिए सहयोगियों को सीटें दे देते हैं। उनके पक्ष में 4-5 प्रतिशत वोटों की हिस्‍सेदारी 10 प्रतिशत बढ़ोतरी ला देती है उनकी सीटों में।

कांग्रेस ने उत्‍तरप्रदेश में स्थिति को पढ़ने में गलती की है। बसपा और सपा के साथ गठबंधन में लड़ते हुए कुछ सीटें छोड़कर वे कहीं ज्‍यादा सीटें प्राप्‍त कर सकते थे।

अन्‍य राज्‍यों पर नज़र डालें। महाराष्‍ट्र में सूचकांक कैसे काम करता है

मुझे लगता है कि यह दोतरफा लड़ाई के काफ़ी समीप होगा। मतदान यही बतायेगा लेकिन 80 के सूचकांक का परिणाम भी निकट की लड़ाई के रूप में सामने आएगा। उदाहरण के लिए केरल में बहुत सारे दल हैं लेकिन यहाँ देश में विपक्षी एकता का सूचकांक सबसे अधिक होने के साथ उन्‍हें गठबंधन की आवश्‍यकता का अहसास है।

गठबंधनों की आवश्‍यकता को समझने में केरल शेष देश भर से आगे है।

हाँ, वे इस रास्‍ते में आगे हैं ! केरल में जनमत सर्वे करना सबसे ज्‍यादा अद्भुत अनुभव होता है और यह सबसे ज्‍यादा समय लेने वाला भी होता है। हम चुनाव पूर्व नमूना सर्वे करते हैं कि सवाल सही हैं या गलत। और केरल में उत्‍तरदाता बताते हैं कि आपके सवाल ही गलत हैं और वे लोगों से सही सवाल पूछने पर हमें 20 मिनटों का व्‍याख्‍यान दे देते हैं। प्रत्‍येक साक्षात्‍कार डेढ़ घंटे तक चलता है। हर जगह लोग हमें हटाना चाहते हैं लेकिन केरल के लोग विचार-विमर्श चाहते हैं। केरल में राजनीतिक जागरुकता शानदार है। केरल में नमूना सर्वे करते हुए चुनाव विश्‍लेषकों के लिए यह सीखने का सबसे बड़ा अनुभव होता है।

कर्नाटक में विपक्षी एकता का सूचकांक

यह बहुत फर्क ला देगा। कांग्रेस और जनता दल (सेक्‍यूलर) के बीच का गठबंधन सिर्फ वोटों के संदर्भ में ही धनात्‍मक नहीं होगा। दुर्भाग्‍य से उनका रिकॉर्ड है कि वे चुनावों के बाद साथ आते हैं …  वे थोड़ा विभाजित रहे हैं। और इसने उनकी लोकप्रियता को कम किया है किंतु गठबंधन अपने आप में एक बड़ा बदलाव लाएगा।

आप अपनी पुस्‍तक में कहते हैं कि विपक्षी एकता के सूचकांक से परे भी समरूप विधानसभा चुनाव क्षेत्रों में (सभी इलाकों में) रुझान तहत्‍व रखता है। कर्नाटक में जनता दल (सेक्‍यूलर) और भाजपा दक्षिणी इलाके में बहुत ताकतवर हैं। लेकिन जनता दल (सेक्‍यूलर) उत्‍तर में उतनी मजबूत नहीं है।

          यह बहुत ही सही है। अपने वोक्‍कालिंगा आधार के साथ जनता दल (सेक्‍यूलर) दक्षिण में बहुत मजबूत है। लेकिन उत्‍तर में भी 7 प्रतिशत का जुड़ाव गठबंधन के लिए बड़ा बदलाव ला देता है। हाँ, वोक्‍कालिंगा और लिंगायतों के संयोजन के कारण गठबंधन का प्रभाव उत्‍तर की तुलना में दक्षिण में जोरदार होगा।

कुछ मामलों में यह दिल को छू लेने वाला संकेत है किंतु साथ ही निराशाजनक भी है। आप 210 लाख लापता महिला मतदाताओं के विषय में बात करते हैं। 2014 के 250 लाख के आंकड़े से तो यह कम हुआ है। लेकिन पहले सकारात्‍मक बात। आप पूर्वानुमान लगा रहे हैं कि इस चुनाव में महिला मतदाता अखिल भारतीय स्‍तर पर लोकसभा में पुरुष मतदाताओं को पछाड़ सकती हैं।

हाँ। ज्‍यादा भागीदारी इस संदर्भ में कि मतदान के आंकड़े ज्‍यादा ऊँचे हो सकते हैं लेकिन लापता (मतदाताओं की) संख्‍या के कारण पूर्ण आंकड़े कम हो सकते हैं। लेकिन प्रतिशत मतदान के संदर्भ में ये ऊँचे हो सकते हैं। और ऐसा पूर्वानुमान लगाना बहुत कठिन बात नहीं है क्‍योंकि विधानसभा चुनावों में महिलाओं का मतदान पुरुषों की तुलना में पहले ही ज्‍यादा है।

वृद्धि की दर नाटकीय ढंग से ‍भिन्‍न हो सकती है। किंतु हर राज्‍य में महिलाएँ मतदान करने के लिए पुरुषों की तुलना में ज्‍यादा बाहर आ रही हैं और दक्षिण भारत में ज्‍यादा बाहर आ रही हैं जहाँ महिलाएँ बहुत ज्‍यादा सक्रिय हैं। चुनाव विश्‍लेषकों के रूप में हम पाते हैं कि दक्षिण में घर के अंदर की महिला आपको देखकर बाहर आएगी और कहेगी कि आप क्‍या प्रश्‍न पूछ रहे हैं ॽ उत्‍तरप्रदेश में वे दरवाजे पर खड़ी रहेंगी और वे अंदर भाग जायेंगी। वे बातचीत नहीं करना चाहती हैं। यद्यपि यह चीज बदल रही है। दक्षिण में पति भी आता है और हम महिला से पूछते हैं कि क्‍या आप स्‍वतंत्रतापूर्वक मतदान करती हैं या क्‍या वे जो कहते हैं, उसे आप सुनती हैं ॽ वे कहती हैं कि उन्‍हें सुने ! वे होते कौन हैं ॽ कई बार हम उनसे पूछते हैं कि क्‍या आप उन्‍‍हें सुनते हैं ॽ ऐसा वे भी नहीं करते हैं। आदमी और औरत खुद अपना मानस बनाते हैं।

क्‍या महिलाओं के मतदान और उम्‍मीदवारी के रूप में प्रतिनिधित्‍व के बीच कोई पारस्‍परिक संबंध है

दुर्भाग्‍य से अभी तक ऐसा नहीं रहा है। पार्टियों द्वारा नामांकित महिला उम्‍मीदवारों का प्रतिशत भयावह रूप से कम रहा है। जिस 50 प्रतिशत की वे हकदार हैं, यह उसके आसपास कहीं नहीं है। किंतु महिलाओं के बढ़ते मतदान प्रतिशत द्वारा पुरुषों को पीछे छोड़ने के कारण पार्टियों की नीतियाँ महिला केंद्रित होती जा रही हैं।

वास्‍तव में गैस सिलेंडरों वाली बहुत ही दक्ष और प्रभावी नीति (उज्‍जवल योजना) ने बेहतर काम किया है किंतु दुर्भाग्‍य से उसे लेकर उत्‍साह जाता रहा है क्‍योंकि अब उन्‍हें दूसरे सिलेंडर के लिए भुगतान करना पड़ता है। इसीकारण हम बहुत सी महिलाओं से मिले जिनके यहाँ सिलेडर यों ही पड़े हुए हैं। उन्‍होंने इसे मुफ्त में पाया था। लेकिन वे अब दुबारा चूल्‍हे का इस्‍तेमाल कर रही हैं क्‍योंकि वे सिलेंडर बदलवाने के लिए 800 रुपये वहन नहीं कर सकतीं। कुछ जल्‍दी खाना बनाने के लिए इसका इस्‍तेमाल कर रही हैं। सुबह में वे जल्‍दी में सिलेंडर का कुछ उपयोग करती हैं और शाम को जब उन्‍हें किंचित समय होता है तो वे चूल्‍हे का प्रयोग करती हैं क्‍योंकि चूल्‍हा सस्‍ता होता है। यही सिर्फ एक क्षेत्र है जहाँ पार्टियाँ महिलाओं पर ध्‍यान केंद्रित कर रही हैं। लेकिन आप घोषणापत्रों को देखिए और देखिए कि वे चुनावों के समय क्‍या करते हैं, आप बहुत सारे नेताओं को यह कहते हुए पाते हैं कि क्‍या सभी महिलाएँ सामने आ जायेंगी ॽ वे अब महिलाओं से बात कर रहे हैं क्‍योंकि महिलाएँ पहले की तुलना में अब कहीं ज्‍यादा महत्‍व रखती हैं। और यह दिल को छू लेने वाला संकेत है।

और ग्रामीण महिलाएँ नागर महिलाओं की तुलना में बेहतर कर रही हैं।

वस्‍तुत: उनका मतदान प्रतिशत 5 प्रतिशत अधिक है जो बहुत ज्‍यादा है। इस देश में किसी भी श्रेणी अंतर्गत ग्रामीण महिलाओं का मतदान सबसे ज्‍यादा है और यह तेजी से बढ़ रहा है। और जबकि यह पुरुषों से 20 प्रतिशत से भी ज्‍यादा पीछे हुआ करता था। अब ग्रामीण महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत कस्‍बों के नागर मतदाताओं से ज्‍यादा है और निश्‍चय ही साथ ही साथ यह पुरुषों से ज्‍यादा है।

लेकिन आप जानते हैं कि यह दुखद है …  पुन: गुणात्‍मक पहलू पर। आप महिलाओं की सुंदर और लंबी कतारों को देखते हैं और वे सब मतदान की प्रतीक्षा कर रही हैं और फिर दो-तीन मत देने के लिए अंदर जाती हैं और बाहर आती हैं। और उनमें से एक कहेगी कि मैं वोट नहीं डाल सकी। और मैं पूछता हूँ कि क्‍यों नहीं डाल सकीं ॽ वे कहती हैं कि मेरा नाम मतदाता सूची में नहीं था। और इस प्रकार की 210 लाख महिलाएँ हैं। प्रत्‍येक चुनाव क्षेत्र में 18 साल से ऊपर की 35 हजार महिलाएँ हैं जो भारतीय हैं और मतदान नहीं कर सकतीं। उत्‍तरी भारत के राज्‍यों में स्थिति कहीं बदतर है ; दक्षिण में महिलाओं का पंजीयन लगभग 100 प्रतिशत है। यह आश्‍चर्यजनक है और यहाँ मतदान सबसे ज्‍यादा होता है। उत्‍तर में मतदाता सूची में महिलाओं का पंजीयन निराशाजनक है। सबसे ज्‍यादा प्रतिशत महिलाएँ उत्‍तर प्रद्रेश में पंजीकृत नहीं हैं। उत्‍त्‍रप्रदेश में मतदाता सूची से छूट गई महिलाओं की संख्‍या प्रत्‍येक निर्वाचन क्षेत्र में 85 हजार है। तो 85 हजार … जीत का अंतर इस से तो बहुत नीचे रहता है। अत: यह सिर्फ एक त्रासदी ही है।

पुस्‍तक में आप तीन राज्‍यों की बात करते हैं – उत्‍तरप्रदेश, महाराष्‍ट्र और राजस्‍थान जो विशेष रूप से बदतर प्रदर्शन करने वाले हैं।

हाँ, विशेष रूप से बदतर।

इन लापता महिलाओं के विभिन्‍न पहलुओं पर पहले भी बहुत सारे लोग लिख चुके हैं। और इस पर पर्याप्‍त कार्य नहीं हुआ है कि क्‍यों वे छूट रही हैं और किस श्रेणी में छूट रही हैं। और हमें जो बात समझ आती है … वह सिर्फ आकस्मिक अनुभवों और सर्वों से आने वाली समझ होती है। वह यह है कि सबसे गरीब मतदाता सूची में नहीं हैं। दलित, अनुसूचित जातियाँ, मुसलिम मतदाता और महिलाएँ पंजीकृत नहीं हैं। तो सिर्फ 210 लाख छूटी हुई नहीं हैं अपितु छूटे हुओं के प्रति एक पूर्वाग्रह भी है। और ‘क्‍यों’ वह अगला चरण है जिसे हम देखने जा रहे हैं। क्‍यों ये 210 लाख छूटी रहनी चाहिए ॽ और हमने सर्वोच्‍च अदालत जाकर यह कहने की उम्‍मीद लगाई थी कि इस एक चुनाव में हम यह स्‍वीकार नहीं कर सकते। (हमारी गुजारिश थी कि अदालत) कृपया चुनाव आयोग से कहे कि जो कोई भी महिला आती है और जिसके पास यह दिखाने वाला कोई पहचान पत्र होता है कि वह उस क्षेत्र में रहती है और 18 साल से ऊपर की है, उसे मतदान करने दिया जाए। और फिर हमने आश्‍चर्यजनक रूप से पाया कि मत डालने का अधिकार भारत में मूलभूत अधिकार नहीं है। यह एक वैधानिक अधिकार है। वैसे, नोटा एक मूलभूत अधिकार है। लेकिन मत डालने का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है। इसलिए आप समय की विवशता के मद्देनज़र सिर्फ एसएलपी (विशेष अनुमति वाली अपील) के साथ ही सर्वोच्‍च अदालत में जा सकते हैं कि क्‍या यह एक संवैधानिक अधिकार है या नहीं।

जब उन्‍होंने मतदाता सूची तैयार की तो पहली बार तो बहुत सारी महिलाएँ इसलिए छूट गईं क्‍योंकि वे अपना नाम जाहिर नहीं कर सकती थीं। वे फलाने-फलाने की पत्नियाँ होती थीं। मेरा मानना है कि पहले चुनाव आयोग ने इसे देख लिया था और उसे इन्‍हें छोड़ देने का निर्णय लेना पड़ा था। तो छूट जाने वाली महिलाओं की संख्‍या का मसला यह है। अब यह एक रोचक कहानी है।

          सशक्तिकरण और पंजीकरण के बीच एक सह संबंध होता है। जहाँ वे ज्‍यादा सशक्‍त थीं …

ऐसा हो सकता है। लेकिन बहुत सा काम करने की जरूरत है कि ऐसा क्‍यों घटित हो सहा है। मेरा मतलब है कि चुनाव आयोग के पास महिलाओं को जोड़ने के लिए बहुत सारी योजनाएँ उपलब्‍ध हैं। वे कहते हैं कि यह हमारी गलती नहीं है क्‍योंकि ऐसे-ऐसे समुदाय हैं जो अपना फोटो खिंचवाना नहीं चाहते हैं। ऐसे समुदाय हैं जो नहीं चाहते कि उनकी महिलाओं की उम्र का खुलासा हो। लेकिन मैं नहीं मानता कि पर्याप्‍त कार्य किया गया है क्‍योंकि अगर यह पक्षपाती नमूना है तो इसका चुनाव पर बहुत प्रभाव पड़ता है, जैसे कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुसलिम महिलाओं के पंजीयन नहीं हो रहे हैं।

यह कहा जाता है कि भाजपा महिलाओं की तुलना में पुरुषों में ज्‍यादा वोट लाती है। कांग्रेस महिलाओं में बेहतर करती है। जनमत सर्वेक्षणों और दूसरे सर्वेक्षणों के आधार पर हमने देखा है कि एम.जी. रामचंद्रन और जयललिता के नेतृत्‍व में एआईएडीएमके पुरुषों की तुलना में महिलाओं के बीच विशेष रूप से बेहतर करती रही थी। यदि सिर्फ पुरुषों ने मतदान किया होता तो डीएमके पराजित नहीं हो सकती थी। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर क्‍या यह लागू होता है

हाँ, पारंपरिक रूप से विगत सालों में सामान्‍यत: महिलाओं की तुलना में पुरुषों के बीच भाजपा का समर्थन ज्‍यादा रहा है। वह काफ़ी पुरुष प्रधान दल है। राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ के पास कोई महिला नहीं है। लेकिन मेरा मानना है कि वे इसे बदलने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस क्षण, तो मैं सोचता हूँ कि हाँ, वे पुरुषों के बीच बेहतर करते हैं। इसलिए महिला मतदान का बढ़ना भाजपा के लिए थोड़ा चिंताजनक होता है। यद्यपि पुन: एलपीजी गैस सिलेंडर और महिलाओं को संबोधित दूसरी नीतियों से वे इसे बदलने का प्रयास कर रहे हैं।

अब आपकी पुस्‍तक की विशेषताओं में से एक है : आपके द्वारा किया गया भारतीय मतदाता का बहुत ही सकारात्‍मक विश्‍लेषण – स्‍वतंत्र मानस रखने वाला मतदाता। वह देखता / देखती है कि उसके स्‍तर पर ये (सरकारी) कार्यक्रम कैसे क्रियान्वित होते हैं। उनकी जीवन दशा सबसे महत्‍वपूर्ण मुद्दा होता है। अगर लोग निष्‍पादन नहीं करते हैं तो ऐसे लोगों को उखाड़कर फेंक दिया जाता है। फिर खुद चुनाव आयोग है। यह संसार का एक आश्‍चर्य होना चाहिए … ।

          यह होना चाहिए। समस्‍त खामियों के बावजूद यह एक शानदार संगठन है।

          पहले ईवीएम को लें। आप अब इसे बहुत सांगोपांग ढंग से देखते हैं।

हम 1977 से इसके पीछे हैं और हमने इसे जाँचा और विश्‍लेषित किया है। और फिर 1983 में ऐसा किया। वास्‍तव में केरल में 1982 में और फिर 1983 में कर्नाटक और आंध्रा में उन्‍होंने इसका इस्‍तेमाल किया। और हमने इसे चुनाव आयोग के कार्यालयों में देखा। हमने इसके बटन दबाये। हमने इसे जाँचा-परखा। हमने इसे देखा कि यह काम करता है या नहीं। इसके बारे में मुख्‍य चीज है कि इसके साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती क्‍योंकि बाहरी संसार के साथ इसका कोई जुड़ाव नहीं है। कोई ब्‍लूटूथ नहीं। कोई वाई-फाई नहीं। इंटरनेट कनेक्‍शन नहीं। यह कागज और बैलेट पेपर की बजाय सिर्फ रिकॅर्ड करने वाली मशीन है। और यह किसी भी तकनीक को लेकर किसी के भी द्वारा महसूस की जाने वाली आशंका है कि अरे, कुछ गलत है। और सिर्फ जो हारते हैं, वे ही कहते हैं कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ की गई थी। जब वे जीतते हैं तो यह ठीक -ठाक होती है। बहुत सारे हैकर हैं जो वैश्विक स्‍तर पर कहते हैं कि इसके साथ छेड़छाड़ हुई हैं, कि यह पूरी तरह से असफल है। किंतु वे साबित नहीं कर सकते कि इनके साथ छेड़छाड़ की जा सकती है। यह बिल्‍कुल संभव नहीं है (छेड़छाड़ को साबित करना) क्‍योंकि बहुत सारे लोग कोशिश कर चुके हैं। इस क्षण, मेरा मानना है कि हमें विश्‍वास होना चाहिए कि उन्‍होंने ठीक से रिकॉर्ड किया है। कागज वाली वीवीपीएटी तो सिर्फ संदेह को दूर करने के लिए है। यह भी वही चीज है। यह डिजिटल रिकॉर्डिंग का एनालॉग संस्‍करण है। किंतु मैं सोचता हूँ कि हम सब ही एनालॉग मानस के हैं। हम किसी भी डिजिटल चीज को लेकर शक से भरे होते हैं जबकि डिजिटल संभवत: ज्‍यादा सटीक होता है।

मेरा मानना है कि चुनाव आयोग ने हर व्‍यक्ति को अपने कार्यस्‍थल पर आने और जाँच करने के लिए आमंत्रित करके बहुत ही अच्‍छा किया है। इसे बाहर अपने घर या कर्यालय नहीं लेकर जाना है। और अभी तक यह खरी उतरी है।

बिल्‍कुल। उन्‍होंने बहुत कुछ किया है।

जूलियन अंसाजे मुझे यह कहते हुए याद आते हैं कि हाथ से निकल जाने वाले दस्‍तावेजों को अपने पास रखने का सबसे अच्‍छा तरीका है कि उन्‍हे व्‍यैक्तिक रूप से रखो। खुद पर निर्भर रहो। इंटरनेट नहीं। मोबाइल फोन नहीं। अपना मोबाइल फोन पास में मत रखो। वे जाँचने-परखने के लिए सभी प्रकार की चीजों पर काम कर रहे थे।

लेकिन यह एक विशाल कैलकुलेटर की तरह है। इसमें ऑपरेटिंग सिस्टम भी नहीं है।

बिल्‍कुल सही। यह सिर्फ एक कैलकुलेटर है। और आप कहते हैं कि 3 + 3 को 6 बताने वाले कैलकुलेटर में कहीं कोई गड़बड़ है। तो प्रिंट आउट ले लेते हैं।

तो यह  वीवीपीएटी वास्‍तव में कुछ विलासिता सरीखा है।

संदेह निवारण हेतु बहुत ही महँगी विलासिता ..

इसकी लागत बहुत ज्‍यादा है …

फिर मशीन खुद ही महँगी है। और मेरे लिए यह घृणास्‍पद है कि जो कागज इस्‍तेमाल हो रहा है, उसके लिए बहुत सारे पेड़ काटे जा रहे हैं।

मैं नहीं मानता कि इसकी बिल्‍कुल भी जरूरत है। लेकिन यह मनोवैज्ञानिक संतुष्टि का मसला है।

अब, चुनाव में पैसे की भूमिका। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ चुनाव आयोग पर आरोप लगाना गलत है। वे बिल्‍कुल असहाय हैं। चुनाव के वित्‍तीय तंत्र के बाहर राजनीतिक वित्‍त काम करता है। आपके पास पहले से ही ये संसाधन हैं। राजनीतिक दल विभिन्‍न तरीकों से पैसा एकत्रित करते हैं। और अब आपके पास एक नया नवाचार है जो कम पारदर्शी है – चुनावी बांड। यह कानून को गधा बनाना है। यह कानून नि(हायत ही मूर्खता से भरा कानून है। खर्च की सीमा के मसले पर चुनावी कानून है। और हर कोई इसे जानता है (इसकी सीमा को जानता है) । तमिलनाडु में किस्‍सा है कि … लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के लिए न्‍यूनतम व्‍यय 30 करोड़ होता है। कुछ मामलों में वे इसे 50 करोड़ बताते हैं।

हाँ, कर्नाटक भी ऐसा ही है। पुन: यह चुनाव का एक उपाख्‍यान है।

तो इसे लेकर हम करें क्‍या क्‍या आपकी अगली पुस्‍तक इस पर ही होगी

हाँ, हम वास्‍तव में इस पर और अकादमिक कार्य करने जा रहे हैं जिसे निश्‍चय ही कोई नहीं पढ़ेगा। हमारे पास बहुत सारे स्‍तंभों वाली टेबिल नहीं है। हम इसे एक ही आंकड़े के तले लाने का प्रयास करेंगे। एक मुख्‍य आंकड़ा। पैसे जैसे कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जिन्‍हें हमने एक बार छुआ और हमें बहुत सारी प्रतिक्रियाएँ प्राप्‍त हो गई। किंतु एक समुचित निष्‍कर्ष तक यथार्थ में आना अभी बहुत जल्‍दबाजी है। अमेरिका में बहुत सारा शोध किया गया है जो बताता है कि सीनेटरों और गवर्नरों के पुन: चयन में पैसा बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। वहाँ पुन: चयनित होने की दर लगभग 90 प्रतिशत होती है। सत्‍ता पक्ष के प्रति लहर रहती है। पैसा इस सत्‍ता पक्ष वाली लहर को प्रभावित करता है। यहाँ, भी इसी प्रकार की बात है। जैसा कि आपने कहा ही है कि किस प्रकार के आंकड़े इसमें आते हैं। इसके अतिरिक्‍त, टेलीविजन, सड़कों पर दिखने वाले विज्ञापन हैं और प्रेस वक्‍तव्‍यों के पीछे से झलकने वाले विज्ञापन हैं। इसी के साथ -साथ इसके लिए मेरे पास संभवत: आख्‍यानमूलक सबूत हैं। अमेरिकी मतदाताओं से भारतीय मतदाता किंचित ज्‍यादा समझदार हैं। वे दोनों पक्षों से पैसा लेते हैं और मत वैसे ही देते हैं जैसा कि वे चाहते हैं। कारण कि वे जानते हैं कि उसका निर्णायक मत गुप्‍त होता है। उनका इसमें गहन विश्‍वास है कि अंतत: उन्‍होंते मत कैसे दिया, इसे कोई नहीं जान पायेगा।

आपने सत्‍ता पक्ष के प्रति लहर का जिक्र किया है। और इस पुस्‍तक में आप रुचिर शर्मा को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में कोई नहीं जानता कि सत्‍ता विरोधी लहर क्‍या होती है। लेकिन आपकी पुस्‍तक में तीन दौरों का ऐतिहासिक विश्‍लेषण है। 1952 से 1977 वाला पहला दौर सत्‍ता पक्ष के प्रति रुझान वाला है। और फिर आपके यहाँ 1977 से 2004 का स्‍पष्‍ट सत्‍ता विरोधी लहर का दौर है।

हाँ, 2002 तक … । पच्‍चीस साल तक।

और फिर 50-50 का मामला है।

वर्तमान चरण 50-50 वाला है जिसमें …

ये सिर्फ आंकड़े हैं क्‍योंकि पहले पच्‍चीस साल 80% से ज्‍यादा सरकारें पुन: चुन ली गई थीं। तो यह सत्‍ता पक्ष समर्थक लहर थी। अगले 25 सालों में जो मतदाता थे, उन्‍होंने पाया कि राजनेताओं ने उनके चयन को गलत साबित कर दिया है तो उन्‍होंने बस हर एक को उखाड़ फेंक डाला। अच्‍छी हो या बुरी, 70 प्रतिशत से ज्‍यादा सरकारें उखाड़ फेंकी गई। जबकि पहले 80 % वापस ला दी जाती थीं किंतु फिर पूर्णत: उलटा हो गया था।

और 2002 से मसला 50-50 वाला है। आधी सरकारें बाहर फेंक दी गई हैं, आधी वापस आई हैं। और जिन सरकारों को वापस मत दिया जाता है, वे ऐसी सरकारें होती हैं, वे ऐसी सरकारे होती हैं, जिन्‍होंने वास्‍तव में ही जमीन पर काम किया होता है। वे काम करने वाली होती हैं। यह अब स्‍पष्‍ट है कि मतदाता निरी वक्‍तृत्‍व कला और महान भाषणों से आकृष्‍ट नहीं होते हैं, कारण कि सर्वाधिक सफल राजनेता …

नवीन पटनायक

काम करने वाले हैं। वे अपनी वक्तृत्‍व कला के लिए नहीं जाने जाते हैं। यहाँ तक कि रमन सिंह भी अपनी वक्तृत्‍व कला के लिए नहीं जाने जाते हैं। शिवराज सिंह चौहान इसी प्रकार के हैं। पहले के मानिक सरकार भी ऐसे ही थे। यहाँ तक कि शीला दीक्षित भी काम करने वाली थीं, उन्‍होंने दिल्‍ली के लिए बहुत कुछ किया। वे वक्‍ता नहीं थी।

वे (मतदाता) चाहते हैं कि जमीन पर कार्य हो। आपकी वक्‍तृत्‍व कला सहायक हो सकती है। किंतु अगर आपने जमीन पर कार्य नहीं किया है तो आपको वापस मत नहीं दिया जाएगा।

अब भ्रष्‍टाचार पर आते हैं। मुद्दों को देखें। सामान्‍यत: आजीविका के मुद्दे सबसे ऊपर आते हैं। वे सबसे ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण होते हैं।

अब बात यह है कि किसी मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनने के लिए दो आयामों पर खरा उतरना होगा। पहली बात तो इसे मेरे जीवन में महत्‍वपूर्ण होना होता है – भ्रष्‍टाचार अधिकांश लोगों के लिए मायने रखता है। आप पुलिस थाने जाइए, वहाँ भ्रष्‍टाचार है। विधवाएँ हजार रुपये माहवार पेंशन को लेने के लिए बैंक जाती हैं। शाखा प्रबंधक उसे हजार रुपये देने के लिए 500 रुपये उससे ले लेता है। वह कहेगा, ‘अरे, बड़ी समस्‍या है। कम्‍प्‍यूटर में कुछ ….’ । तो शाखा प्रबंधक गरीब, विधवा महिला को देखकर भी उससे 500 रुपये ले लेता है। मेरा मतलब है कि यह बिल्‍कुल भयावह है। और सब कुछ कम्‍प्‍यूटरीकृत है, अत: कुछ करना ही नहीं है। भ्रष्‍टाचार कम्‍प्‍यूटर को भी पछाड़ देता है। तो भ्रष्‍टाचार हमेंशा से बहुत ज्‍यादा रहा है।

लेकिन दूसरा आयाम है : एक दल को इसका समाधान करते हुए दूसरे से बेहतर दिखना चाहिए। भ्रष्‍टाचार को लीजिए, इसे चुनावी मुद्दा बनाने के लिए दलों के बीच इस पर स्‍पष्‍ट अंतर होना चाहिए। मेरा मानना है कि आम आदमी पार्टी ने एक बार दिल्‍ली में छप्‍पर फाड़ जीत इसलिए पा गई क्‍योंकि दूसरे मुद्दों के अतिरिक्‍त एक समय उनके पास यह अंतर था कि वे भ्रष्‍ट पार्टी नहीं है जबकि दूसरी सभी पार्टियों को भ्रष्‍ट देखा जाता था।

हिंदी इलाकों में वी.पी. सिंह …

हाँ, उन्‍हें भ्रष्‍ट नहीं समझा जाता था। उन्‍होंने एक बड़ा अंतर ला दिया। चो रामास्‍वामी ने एक बार कहा था कि जब एक तरफ आपके पास जेबकतरा हो और दूसरी तरफ आपके पास चोर हो तो भ्रष्‍टाचार कैसे मुद्दा हो सकता है ॽ

एक चीज जिसका आपने उल्‍लेख किया, वह यह है कि जनमत सर्वे अगर जीत के पैमाने को नहीं भी पकड़ पाते तो भी वे सामान्‍यत: विजेता की सटीक पहचान कर लेते हैं। एक अपवाद 2004 का चुनाव है। आपके अनुसार उस समय वह क्‍या चीज गलत गई और जिसके लिए चुनाव विश्‍लेषकों ने जोड़-तोड़ किया था

आप जानते हैं कि लोग अभी भी 100 फीसदी सुनिश्ति नहीं हैं कि यह गलत क्‍यों हुआ किंतु 2004 में हर सर्वे गलत निकला था। इसके कारणों में से एक कारण और जिसे लेकर इस बार भी बहुत सारे चुनाव विश्‍लेषक चिंतित हैं, वह कारक है – सवालों के जबाव देते हुए मतदाताओं द्वारा ‘सुरक्षित खेलना’।  वे यह कहने की ओर प्रवृत्‍त हैं कि उनका मत सत्‍ताधरी दल के लिए है। अगर आपने यह सर्वे आपातकाल के तुरंत बाद किया होता तो किसने कहा होता कि मैं इंदिरा गाँधी को मत देने नहीं जा रहा हूँ। आपने इंदिरा गाँधी को सुरक्षित बताया होता क्‍योंकि भय का भाव था। 100 में से 5 प्रतिशत ऐसा कर सकते हैं किंतु 5 प्रतिशत एक बड़ी संख्‍या है। तो भय वाला कारक अगर 2%, 5% या 7% होता है, तो यह पूर्वानुमान को पूरी तरह बदल सकता है। अत: हर चुनाव में वह चिंता का विषय होता है और कुछ चुनावों में किंचित ज्‍यादा होता है। और हमने पाया है कि उत्‍तर भारत के गाँवों में और यहाँ तक कि छोटे कस्‍बों में आज बहुत ही ज्‍यादा तनाव है। ऐसा 5 साल पहले या 20 साल पहले न था। जातियों और धर्मों के बीच बहुत तनाव है। और क्‍या इस माहौल में डर का अतिरिक्‍त कारक काम करने जा रहा है या नहीं, चुनाव विश्‍लेषक इसका अनुमान लगाना बहुत कठिन पा रहे हैं और यही एक बड़ी चिंता का विषय है।                    

अनुवादक :– डॉ. प्रमोद मीणा

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प्रमोद मीणा

लेखक भाषा एवं सामाजिक विज्ञान संकाय, तेजपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +917320920958, pramod.pu.raj@gmail.com
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