राज्य भर से लगातार पत्रकार मित्रों के फोन आ रहे हैं। कोई अपने लिए नौकरी तलाश रहा है और कोई दुकान के लिए जगह। कोरोना काल में कई हिन्दी और अंग्रेजी अखबारों के संस्करण बन्द होने के बाद जैसे सालों से मूक बनी एक बड़ी समस्या में आवाज आ गयी हो। दैनिक जागरण औऱ भास्कर जैसे बड़े राष्ट्रीय अखबारों ने अपने कई संस्करण बन्द कर दिये। इनमें काम कर रहे सिटी एडिटर तक को अपनी नौकरी गंवानी पड़ी है। दफ्तर बन्द होकर ब्यूरो ऑफिस में तब्दील होने लगे हैं, जिनमें कुछ रिपोर्टर ही रह गये हैं। हाँ तक कि प्रिंटिंग मशीन और अन्य विभागों में काम कर रहे लोगों की भी नौकरियाँ जा रही हैं। हाल ही में टेलीग्राफ के राँची संस्करण के बन्द होने के बाद कई पत्रकार एकसाथ बेरोजगार हो गये।
झारखण्ड के अन्य छोटे अखबार और पोर्टल भी अपने सबसे मुश्किल दिनों में हैं। इन संस्थानों में काम कर रहे पत्रकार कोरोना संकट में लगातार जान जोखिम में डालकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं, इसके बावजूद वेतन से वंचित हैं। पत्रकारिता में अपना जीवन झोंक चुके रिपोर्टर और फोटोग्राफर को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। अबतक जो चर्चाएँ पत्रकार बिरादरी में ही हुआ करती थीं, वह सोशल मीडिया के रास्ते आम लोगों तक पहुँच चुकी हैं। देशभर में पत्रकारों और पत्रकारिता की समस्या पर एक बार फिर से बहस शुरू हो गयी है। लोकिन इस बहस में सिर्फ वही शामिल हैं जो या तो पत्रकार हैं या उनके परिचित में से कोई पत्रकार है।
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पत्रकारिता की हालिया स्थिति से भारतीय समाज वाकिफ तो है, फिर भी चुप्पी साधे है। जबकि सच यह है कि लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ के कमजोर होने से जितना नुकसान पत्रकारों का है, उससे कहीं ज्यादा उस समाज का है, जिसकी आवाज पत्रकारिता है। पत्रकारिता पर यह बहस पत्रकारों की नौकरी से कहीं ज्यादा सामाजिक समस्या के रूप में है।
इण्डियन न्यूजपेपर सोसायटी के अनुसार भारत सरकार पर अखबारों का सैकड़ों करोड़ रुपये बकाया है। आईएनएस ने सरकार से इसे चुकाने का आग्रह भी किया है। जानकार बताते हैं कि यदि यह बकाया चुका दिया जाए तो ज्यादातर अखबारों में कॉस्ट कटिंग की नौबत नहीं आएगी। कॉस्ट कटिंग की दूसरी बड़ी वजह के बारे में वे कहते हैं कि कोविड के कारण पूरे देश का बाजार ठप पड़ा है। इस वजह से प्राइवेट कम्पनियाँ विज्ञापन देने से बच रही हैं।
लेकिन अखबारों के आय का मुख्य स्रोत सरकारी विज्ञापन है। सरकारी विज्ञापन बाजार से ज्यादा प्रभावित नहीं रहते हैं। ऐसे में यह उम्मीद की जा रही थी कि कोविड के दौरान सरकार की ओर से सूचना औऱ जागरुकता सम्बन्धी विज्ञापन अखबारों को राहत देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यहाँ तक कि सरकार ने अपना बकाया भी नहीं चुकाया। इस बीच कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी का बयान आश्चर्यजनक है, जिसमें उन्होंने कहा है कि कोविड के दौरान सरकार अखबारों को विज्ञापन देना बन्द कर दे।
अखबारों के संस्करण बन्द होने पर कुछ लोग यह मानते हैं कि देश और समाज के लिए जरूरी खबरें किसी भी संस्करण से मिल जाएँगी और जिलों का संस्करण बन्द होने का कतई यह मतलब नहीं है कि उस जिले में अखबार नहीं पहुंचेगा या वहाँ की खबरें नहीं आएँगी।
पत्रकारिता के पतन के लिए न केवल सरकार और समाज बल्कि कई मीडिया हाउस भी जिम्मेवार है। दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, टेलीग्राफ, द हिन्दु जैसे बड़े अखबार व पोर्टल भारतीय पत्रकारिता में अहम रोल अदा करते है। इनके कई संस्करण हैं, कई पत्रिकाएँ हैं और कुछ कम्पनियों के दूसरे व्यापार भी हैं।
मसलन द टेलीग्राफ अखबार आनन्द बाजार पत्रिका ग्रुप का है। इस ग्रुप में आनन्द बाजार पत्रिका, एबला पोर्टल, फॉर्चुन इण्डिया, सहित दर्जनों पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। इसके अलावा एबीपी नाम से एक राष्ट्रीय और आठ क्षेत्रीय न्यूज चैनल हैं। इसी ग्रुप का एक इन्टरटेनमेंट चैनल भी है।
इसी तरह जागरण प्रकाशन लिमिटेड के लगभग सौ संस्करण हैं, जो कि पन्द्रह राज्यों में फैले हैं। दैनिक जागरण के अलावा आईनेक्स्ट, मिड डे, नई दुनिया, इंकलाब, सखी सहित दर्जन भर प्रकाशन हैं। देश के 39 शहरों में फैला रेडियो सिटी जागरण मीडिया ग्रुप का ही है। इसके अलावा कई डिजिटल प्लेटफॉर्म भी हैं। न्यूज एजेंसी रॉयटर के अनुसार जागरण प्रकाशन के एमडी, सीईओ, सीओ आदि की सैलरी औसतन 1.5 करोड़ रुपये है।
भले ही हम आज पत्रकारिता को उसके एजेण्डे के लिए गाली दें, निष्पक्ष न होने के लिए उसे कोसें, लेकिन किसी भी रूप में पत्रकारिता की जरूरत तो समाज को जरूर है। विभिन्न चैनलों या अखबारों का भड़काऊ होना, सही रिपोर्टिंग न करना या तमाम शिकायतें एक अलग बहस का मुद्दा है। लेकिन इन वजहों से अखबारों या चैनलों का बन्द हो जाना समाधान नहीं है। आज जो अखबार या चैनल सरकार का गुणगान करते नजर आते हैं, पूरी सम्भावना है कि सरकार के बदलते ही वे सरकार के खिलाफ हो जाएँ और जो आज सरकार के खिलाफ हैं वे सरकार के साथ हो लें। देखा जाए तो इस समाज को दोनों की जरूरत है।
इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि अखबारों का बन्द होना एक साजिश के तहत है। देश के तमाम उद्योगों की तरह पत्रकारिता का भी संरक्षण भारत सरकार की जिम्मेवारी है। सरकार सामान्य तौर पर विज्ञापन देकर और बकाया चुकाकर भी अपनी जिम्मेदारी को पूरा कर सकती है। लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा।
लेखक पत्रकारिता के छात्र और दैनिक जागरण के संवाददाता रहे हैं|
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