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सामयिक

मोहन राकेश की ‘सावित्री’ और समकालीन स्‍त्री विमर्श

 

भारतीय समाज की कल्‍पना स्‍त्री और पुरूष की स्‍थापना के साथ ही होता है, जहाँ पितृसत्‍ता का वर्चस्‍व प्रारम्भ से अब तक बना रहा है। पुरूषों की पितृसत्‍तात्‍मक सोच आज भी कई मामलों में वैसी ही दिखाई पड़ती है जैसे पहले थी। ऐसी स्थिति में 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाया जाना कहाँ तक उचित और अनुचित है, यह एक विमर्श का विषय है, जिसका उत्‍तर महिलायें ही बेहतर तरीके से दे सकती हैं। खासतौर पर मध्‍यवर्ग की महिलाओं के संदर्भ में बात की जाये तो हमारे बीच मोहन राकेश के नाटक आधे-अधूरे की सावित्री का दृश्‍य ज्‍यादा स्‍पष्‍ट तौर पर सामने आता है। तथाकथित भारतीय समाज में सावित्री जैसी महिलायें आज भी समाज में उपस्थित हैं जो अधिकार और सम्‍मान के खोज में भटक रही हैं।Image result for वर्तमान समय में महिलाओं की

वर्तमान समय में महिलाओं की पूर्ण जीवनशैली बिल्‍कुल ही बदली हुई प्रतीत होती है। ये अपने जीवन को निरन्‍तर बेहतर बनाने की कोशिश कर रही है। किन्तु, कुछ हद तक यह भी देखा जाता है कि दिखावे वाला जीवन भी महिलाओं को आकर्षित करता है। खासतौर पर मध्‍यवर्ग की अधिकांश महिलायें अपने आप को उच्‍चवर्ग की महिलाओं की तरह पेश करने की कोशिश करती रहती हैं। इस तरह से वे जीवन में उलझती जाती हैं। इसके बावजूद महिलायें अपने मूल कर्तव्‍य से दूर नहीं होती हैं तथा संघर्षपूर्ण जीवन जीते हैं, जिसका दूरगामी परिणाम के रूप में इन महिलाओं को आर्थिक सबलता के रूप में मिल रहा है। विशेष तौर पर नौकरीपेशा महिलाओं पर दोहरी जिम्‍मेदारी होती है। इसलिये इन महिलाओं की सोच आम महिलाओं से अलग दिखाई पड़ती है। ये महिलायें स्‍वयं और अपने घर-परिवार की जिम्‍मेदारी उठा रही हैं। इनके तौर-तरीके में भी अब बदलाव देखने को मिलता है। घरेलू महिलाओं की दुनिया तो घर-परिवार में ही उलझकर रहती ही है लेकिन कामकाजी महिलाओं की भी अपनी कोई दुनिया होती  है या नहीं, यह भी सवाल है। दिनभर ऑफिस में काम करने के बाद, घर पर भी अपने परिवार को संभालने के लिए वे उतनी ही सिद्दत से मेहनत से काम करती हैं। घर के प्रत्‍येक व्‍यक्ति की भी जीवनशैली को निरन्‍तर सुधारने का प्रयास करती हैं, जिसके हिसाब से वह जीना चाहती हैं। इसके बावजूद नौकरीपेशा महिलाओं का वर्चस्‍व नहीं दिखाई पड़ता है। शायद इसी का परिणाम है कि सावित्री जैसी महिलायें समाज में विद्यमान होती जा रही हैं, क्‍योंकि सबके लिए दिनभर सोचने वाली महिलाओं को परिवार में वे मान-सम्‍मान नहीं मिल पाता जिनकी वे हकदार होती हैं। घर-परिवार अधिकांश उन्‍हें सहयोग करने के बदले उन्‍हें उपेक्षा की दृष्टि से देखता है और अपनेपन की तलाश में वह कई बार भटक जाती है। यहाँ सावित्री सही होकर भी गलत है क्‍योंकि एक ओर परिवार का हित उसने जहन में है तो दूसरी ओर स्‍वयं की जीवनशैली को परिवार के हिसाब से बदलती हुई दिखाई पड़ती है।Image result for वर्तमान समय में महिलाओं की

यही कारण है कि परिस्थितिजन्‍य ऐसी सोच-विचार रखने वाली महिलाओं की संख्‍या लगातार बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में पुरूषों की सोच में बदलाव की ज्‍यादा आवश्‍यकता है न कि महिलाओं की। पुरूषों की सोच भी कुछ हद तक महिलाओं से प्रभावी प्रतीत हो रही है। और बदलते समय के साथ नये समाज की स्‍थापना में महिला-पुरूष दोनों का योगदान मिल रहा है। इसके बावजूद पितृसत्‍तात्‍मक सोच के कारण महिलाओं को बुरी नजरों से देखना अथवा काम भावना (भोग-विलास) वाली सोच बदलने के बजाय और गहरी होती नजर आती है। इस कारण भी वर्तमान समय में सामाजिक विसंगतियों का संग्राम चरम स्थिति में दिखाई पड़ती है। महिलाओं के प्रति यौन शोषण की भावना पितृसत्‍ता समाज के केन्‍द्र में दिखाई देता, जो पुरूषों की सोच से अभी तक निकल नहीं पाया है बल्कि प्राचीन समय के अपेक्षा आज अत्‍यंत भयावह प्रतीत होता है जिसके कारण समाज में कुण्‍ठा, संत्रास, तनाव जैसी समस्‍यायें बढ़ रही है। इस कारण सावित्री जैसी महिलाओं की स्थितियाँ बदलने के बजाय यथावत दिखाई पड़ती है। सावित्री जिन चार पुरूषों के संपर्क में आती है उनमें वह पूर्णत: की खोज में रहती है। इसलिये सावित्री का पूरा परिवार सावित्री पर विश्‍वास करने के बजाय शक की निगाह से देखने लगते है। परिणामत: परिवार न सिर्फ टूटता है बल्कि बिखर भी जाता है। पारिवारिक परिवेश के कारण पूरे सदस्‍यों के अंदर नकारात्‍मक भाव पैदा हो जाती है। इन सब का प्रमुख जिम्‍मेदार और दोषी, परिवार और तथाथित सभ्‍य समाज सावित्री को ही मानता है। वह भी इसलिये क्‍योंकि नौकरीपेशा महिला का चार लोगों के साथ उठना बैठना है। यदि सावित्री जैसी महिलायें समाज में प्रतिष्‍ठा के पद पा रही हैं और प्रतिभावान हैं। ऐसी महिलाओं के प्रति पुरूषवादी सोच अभी भी नकारात्‍म‍कता है। इसलिये सावित्री जैसी महिलायें समाज के लिए सही मायने में आधे-अधूरे हैं।Image result for मोहन राकेश की आधे-अधूरे नाटक

मोहन राकेश की आधे-अधूरे नाटक ने मानो सावित्री के माध्‍यम से नव स्‍त्री विमर्श छेड़ दिया है। जहाँ प्रेमचंद जैसे बड़े लेखकों ने स्‍त्री की छवि- आदर्श पत्‍नी, आदर्श पुत्री, आदर्श माँ, संवेदाओं से परिपूर्ण, स्‍नेह से भरी हुई, कर्तव्‍यनिष्‍ठ, चरित्रवान, देवी आदि जैसी भावनाओं वाली नारीत्‍व को स्‍थापित करते हैं जो सम्‍पूर्ण नारीत्‍व की भावना से परिपूर्ण थी। परन्‍तु आधुनिक युग की महिलाओं का परिदृश्‍य बदला हुआ नजर आता है जिसमें मोहन राकश की सावित्री प्रासंगिक नजर आती है। यदि सावित्री के चरित्र को वर्तमान परिदृश्‍य में सामने रखकर देखा जाये तो महिलाओं की स्थितियाँ और परिस्थितियाँ बदली हुई दिखाई पड़ती है। जहाँ कामकाजी महिलाओं के अंदर एक नये भाव-बोध को दिखाया गया है। इन महिलाओं ने शर्माना और डरना छोड़कर सामाजिक परिस्थिति से द्वंद करना सीख लिया है जो तथाकथित समाज को राश नहीं आ रहा है।

वर्तमान समाज के लिए आवश्‍यक है कि स्‍त्री और पुरूष के जीवनशैली में एक स्‍वस्‍थ परम्परा और विचार विकसित करे जिससे कि नकारात्‍मक भाव के बदले सकारात्‍मक भाव पैदा हो, जिससे स्‍वस्‍थ परिवार और समाज का निर्माण हो सके। इसलिए पूरे विश्‍वास और अदम्‍य साहस के साथ महिला-पुरूष दोनों को साथ मिलकर काम करने की आवश्‍यकता है। जब ऐसी स्थिति पैदा हो जायेगी तो सभ्‍य समाज का निर्माण होगा, जिसमें लोभ, मोह-माया, ईष्‍या-द्वेष, दिखावा, लालच आदि जैसी दुर्भावनाओं के लिए जगह नहीं होगी। तब सावित्री जैसी पात्र हमारे बीच उपस्थित होगी, जो पूर्णत: की खोज पुरूष के बजाय स्‍वछंद सोच वाले पुरूष मानसिकता से है। फिल्हाल ऐसी मानसिकता वाला वर्तमान समाज कल्‍पना मात्र है।

सावित्री जैसी पात्र इस देश के पढ़े-लिखे लोगों के लिए बौद्धिक जुगाली के लिए चारा के समान है जो बेहत्‍तर लिख तो सकते हैं किन्‍तु जमीनी हकीकत से कोशों दूर होते हैं। ऐसे लोगों का चरित्र महिलाओं के चरित्र पर शंका व्‍यक्‍त करने से ज्‍यादा खतरनाक है। इसलिये सामाजिक वातावरण और परिवेश को समझते हुये, इस पर विचार करना आवश्‍यक हो जाता है। एक दिन महिला दिवस मनाने की अपेक्षा, महिलाओं के प्रति आदर और सम्‍मान की भावना होना ज्‍यादा जरूरी है, जिससे सावित्री जैसी पात्र भी पिघलकर एक कर्तव्‍यनिष्‍ठ महिला के रूप समाज के समाने आ सके।

पितृसत्‍ता समाज की विकृत मानसिकता का परिणाम है कि समाज में जब भी सावित्री जैसी महिलायें चारदीवारी के बाहर आती हैं, तो उनके नकारात्‍मक पक्ष को समाज देखता, समझता और स्‍वीकारता है। किन्‍तु इनके पीछे के कारणों को खोजने का प्रयास कोई नहीं करता है। इसलिये आवश्‍यक है कि सावित्री जैसी महिला बनने के समाजिक परिवेशों की  तरफ विचार-विमर्श करने पर जोर दिया जाये। महिला दिवस के उपलक्ष्‍य में मोहन राकेश का नाटक आधे-अधूरे की स्‍त्री पात्र सावित्री समकालीन दौर में प्रासंगिक नजर आता है जो पूर्णत: की खोज कर तो रही है किन्‍तु रह जाती है आधे-अधूरे।

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