‘‘राजा बोला- ‘रात है’
मंत्री बोला-‘रात है’
एक-एक कर फिर सभासदों की बारी आई
उबासी किसी ने, किसी ने ली अँगड़ाई
इसने, उसने-देखा-देखी फिर सबने बोला–
‘रात है…’
यह सुबह-सुबह की बात है…’’
गोविंद प्रसाद जी की ‘तीसरा पहर था’ पुस्तक की उक्त पंक्तियां राजतांत्रिक व्यवस्था पर करारा प्रहार तो करता ही है, साथ ही वर्तमान लोकतन्त्र पर भी बिल्कुल सटीक बैठता है। लोकतन्त्र के नाम पर चलने वाला राजतन्त्र आज एक बेहद चिंता का विषय बन गया है। यह व्यवस्था कमोबेश हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर चुकी है। इससे शिक्षा का क्षेत्र भी वंचित नहीं रह गया है। हर साल की भांति इस साल भी पूरे देश में शिक्षकों के सम्मान के रूप में शिक्षक दिवस का आयोजन किया जा रहा है। किंतु, इस दिवस पर अब ऐसा लगने लगा है कि साल भर की यातनाओं के बाद एक दिन शिक्षकों को पुर्नजीवित करने की कोशिश से ज्यादा यह कुछ और नहीं रह जाता है, ताकि दूसरे दिन से उन्हें फिर से प्रताडि़त किया जा सके। शैक्षणिक संस्थानों में भी भाई-भतीजावाद, जातिवाद, धर्मवाद, परिवारवाद के साथ-साथ अब पार्टीवाद आदि भी चरम पर है। ऐसी अवस्था में लोग मूक-बधीर बन कर सिर्फ संस्था प्रमुखों के रबर स्टाम्प बन कर रह जाते हैं और हां में हां मिलाते रहते हैं।
अभी कुछ दिन पहले किसी विश्वविद्यालय की एक घटना के बारे में जानकारी मिली थी। इस घटना के अनुसार एक शिक्षक को उसके पीएच.डी. शोधार्थी द्वारा लगातार परेशान किया जा रहा था। किंतु, वह शोधार्थी एक खास पार्टी से संबंध रखता था, जिसके कारण उसकी हर गलती नजरअंदाज की जाती रही। वह शिक्षक के पास भी जाता तो तुरंत धूम्रपान करके, गंदी बदबू के साथ, पान या च्युंगम चबाते हुए। कमरे में घूसने के पहले अनुमति लेना भी वह मुनासिब नहीं समझता। वह शोधार्थी अपने शोध निर्देशक अर्थात् उस शिक्षक से अपनी रिपोर्ट और अन्य दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराने के बजाय खुद शोध निर्देशक का फर्जी हस्ताक्षर भी करने लगा। यह बात तब पकड़ में आयी, जब शोधार्थी के एक कंटिंजेंसी की फाइल पर पैसे के भुगतान करने से किसी कारणवश मना कर दिया गया और फाइल उसके शोध निर्देशक के पास भेज दी गई।
फिर क्या था, फाइल पर अंकित हस्ताक्षर देखते ही उस शिक्षक के होश उड़ गये क्योंकि यह फाइल कभी उस शिक्षक की नजरों से गुजरी ही नहीं थी। उसने तत्काल इसकी सूचना अपने विभाग प्रमुख को दी और फिर शुरू हुआ राजनीति का सिलसिला। विभागाध्यक्ष ने शोधार्थी को बुलाकर डांटने की बजाय शिक्षक से तुरंत कहा, पहले लिखित शिकायत दो, तभी कुछ होगा। फिर शिक्षक द्वारा लिखित शिकायत भी दर्ज करायी गयी। शिकायत दर्ज होते ही उस पार्टी विशेष से सम्बन्धित शोधार्थी को बचाने का प्रयास होने लगा। फिर इमोशनल कार्ड फेंका गया और उस शिक्षक के एक नजदीकी प्रोफेसर का इस्तेमाल कर शोधार्थी के भविष्य की दुहाई देकर समझाने-बुझाने की कोशिश की गई। कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा।
उस शोधार्थी के साथ सभी लोग, कई प्रोफेसर भी ऐसे व्यवहार कर रहे थे, जैसे दामाद के साथ किया जाता है। इस संदर्भ में उस शिक्षक ने कई लोगों से राय-मशवरा किया था और सभी ने यही कहा था कि शोधार्थी द्वारा किया गया यह कृत्य एक अपराध है। इसे क्षमा नहीं किया जा सकता। किंतु, बाद में हवा का रूख देखकर वही शिक्षकगण यह कहने लगे कि विद्यार्थी ऐसी गलतियां करते रहते हैं। इसे इस तरह से खींचना ठीक नहीं है। किसी ने भी यह नहीं कहा कि शोधार्थी ने गलत किया है। उसे सबक के तौर पर कोई सजा देनी चाहिए। ताकि भविष्य में वह दोबारा ऐसी गलती न करे। उस शोधार्थी को उस शिक्षक के सामने बैठाकर उससे उसकी इच्छा पूछी जाती रही कि वह क्या चाहता है। वह लगातार तेवर दिखाता रहा। यह पूरा परिदृश्य उस शिक्षक के लिए किसी यातना से कम नहीं थी। उस शिक्षक की गलती बस इतनी थी कि वह गलत को गलत और सही को सही कहने का जज़्बा रखती है। अंतत: उस शिक्षक ने छात्रहित को ध्यान में रखते हुए अपनी शिकायत वापस ले ली। इस प्रकार कई तरीके से उस शिक्षक का मनोबल तोड़ने का प्रयास किया जाता रहा।
यह कोई एक विश्वविद्यालय की घटना नहीं है। देश के कमोबेश अधिकांश विश्वविद्यालयों में यही स्थिति बनी हुई। विश्वविद्यालयों में भी चमचों की बड़ी फौज होती है। चमचों के भी चमचे बड़ी तादाद में बढ़ते जा रहे हैं। अध्ययन-अध्यापन से परे लोग इन्हीं चीजों में ज्यादा लिप्त नजर आते हैं। सरकार को खुश करने या फिर सरकारी आदेशों से बाध्य होकर आये दिन पढ़ाई-लिखाई रोक कर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है और उसके नाम पर लंबी-चौड़ी समिति बना दी जाती है। इन समितियों में अधिकांश चमचों की दावेदारी सर्वोपरि होती है। तथा अपने-आप को बेहतर चमचा साबित करने की होड़ मच जाती है। ऐसे कार्यक्रमों के मंचों पर सांसद, विधायक और अपने परिवार वालों को सुशोभित करना प्रमुख और पसंदीदा कार्य होता है। इन सबसे से शैक्षणिक व्यवस्थायें चरमराती जा रही है।
प्राइमरी स्कूल के शिक्षकों से तो वे तमाम गैर-शैक्षणिक कार्य कराया जाना आम बात है। अभी हाल की घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है, जब उत्तर प्रदेश में कावरियों के स्वागत में वहां के शिक्षकों को तैनात कर दिया गया था। किंतु, इन गैर-शैक्षणिक कार्यों से विश्वविद्यालय के शिक्षक भी अछूते नहीं हैं। आये दिन उनका समय आकड़ा जुटाने-भरने और इकट्ठा करने में ही बीत जाता है। शिक्षण से ज्यादा उन्हें बाबूगिरी में लिप्त रखा जाता है। एक समय था, जब शिक्षकों का सम्मान समाज में सर्वोपरि था। किंतु, आज एक हवलदार का भी सम्मान शिक्षकों से ज्यादा होता है। विद्यार्थी तक शिक्षकों को वह सम्मान नहीं देते जिसके शिक्षक हकदार होते हैं। उच्च शिक्षण संस्थान तो राजनीति से प्रेरित होकर सरकार के सुर में सुर मिलाने में ही लगी रहती है। देश में जिसकी सरकार उस पार्टी के विद्यार्थियों का दबदबा संस्था और शिक्षकों दोनों पर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। इस स्थिति में शिक्षक भी राजनीतिक पार्टियों से जुड़कर काम करने लगते हैं। इस तरह शैक्षणिक संस्थान भी राजनीतिक अखाड़े में तब्दील होते जा रहे हैं।
शिक्षकों को सुविधाहीन व्यवस्था में रखना, अध्ययन-अध्यापन से वंचित करना, स्वस्थ्य शैक्षणिक वातावरण नहीं तैयार होने देना, भेदभाव करना, मानसिक आघात पहुंचाना, जरूरत से ज्यादा काम लादना आदि जैसी समस्यायें शिक्षकों को प्रतिदिन तिल-तिल मारती है। उन्हें अवसाद में जाने पर मजबूर कर देती है। इससे उनका मनोबल टूटता जाता है। पीएच.डी., पीडीएफ, नेट, जेआरएफ तमाम डिग्रीधारी सड़कों पर रोजगार की तलाश में या तो भटक रहे हैं या फिर 10-15 हजार रूपये में नौकरी करने को बाध्य हो रहे हैं। मरता क्या न करता की स्थिति पैदा होती जा रही है। ऐसे डिग्रीधारी चपरासी तक की नौकरी करने को तैयार हैं। प्राइवेट महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में भी ऐसे डिग्रीधारियों की मजबूरी का फायदा उठाकर भरपूर शोषण किया जा रहा है। इतनी प्रताड़ना के बाद भी जब ये डिग्रीधारी स्थायी नौकरी के लिए आवेदन करते हैं तो उनके आवेदन को यह कहकर खारिज कर दिया जाता है कि आपका वेतनमान सरकारी नौकरी के नियमानुसार नहीं है। इस प्रकार उनका पूरा भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
ऐसी स्थिति में यदि विश्व गुरु बनने की दुहाई दी जाये तो यह बात बेईमानी होगी। जिस देश में शिक्षकों का सम्मान नहीं होगा, उन्हें उनके अधिकार से वंचित किया जायेगा, वह देश विश्व गुरु तो क्या गुरू भी नहीं बन सकता। ऐसे देश में एक समय के बाद लोग गुरु बनना ही छोड़ देंगे। जहां शिक्षकों का सम्मान नहीं होगा, वहां शिक्षक दिवस का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता। बस इस दम तोड़ती शिक्षण व्यवस्था में शिक्षक असहाय होकर बेईज्जती के घूंट पीने को मजबूर होते रहेंगे। यदि सरकार सच में शिक्षकों को सम्मान देना चाहती है तो उन्हें उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार दिया जाये, उनसे सिर्फ शैक्षणिक कार्य कराये जायें, भाई-भतीजावाद खत्म करके निष्पक्षता को बढ़ावा दिया जाये। चमचागिरी खत्म करने की कड़ी पहल की जानी चाहिए। पार्टी अथवा राजनीतिक प्रभावों से शैक्षणिक संस्थानों को मुक्त रखा जाये। तभी रीढ़ विहीन शिक्षक हां में हां मिलाना छोड़कर अपनी योग्यता और विवेक के बल पर निर्णय ले पायेंगे और समाज को नई दिशा देंगे। यही असली मायनों में शिक्षक दिवस की सार्थकता होगी और शिक्षक समाज में सम्मान की नजरों से देखे जायेंगे।