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सृजनलोक

चार कविताएँ : बाबुषा कोहली

 

जन्म : 6 फ़रवरी, 1979, कटनी ( म.प्र.)

प्रकाशन : पहला कविता-संग्रह ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित व पुरस्कृत। गद्य-कविता संग्रह ‘बावन चिट्ठियाँ’ रज़ा पुस्तक माला के अंतर्गत राजकमल से प्रकाशित व वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित। कथेतर गद्य की पुस्तक ‘भाप के घर में शीशे की लड़की’ रुख़ पब्लिकेशन्स से।

अन्य : दो शॉर्ट फ़िल्मों ‘जंतर’ तथा ‘उसकी चिट्ठियाँ’ का निर्माण व निर्देशन

सम्प्रति : केन्द्रीय विद्यालय, जबलपुर में कार्यरत।

 

समकालीन हि‍न्‍दी कवि‍ता में बाबुषा का स्‍वर, वि‍रल-स्‍वर है। उनकी कवि‍ता के शब्‍द सूफियों की तरह जिन्‍दगी के गलि‍यारों में भटकते हुए अपने भीतर वि‍न्‍यस्‍त संगीत से पाठक के मन को स्‍पर्श करते हैं और आर्द्र बना देते हैं। भोर की पहली कि‍रण पड़ते ही दूब की नोक पर ठि‍ठकी ओस की बूँद जैसे हीरक-कण की तरह दीप्‍त हो जाती है, वैसे ही इन कवि‍ताओं में जीवन और मृत्‍यु के खेल के बीच हर साँस की नोक पर भाव दीप्‍त होते हैं। यहाँ बे-फिक्री का ऐसा आलम है, जि‍सकी डोर फिक्र के हाथों में है। बाबुषा की कवि‍ताओं में प्रेम एक वि‍नम्र गर्व बन कर कबीर के ‘सोहँग तूरा’ (सोऽहं का तूर्य) की तरह नि‍रन्‍तर बजते रहता है।  — हृषीकेश सुलभ

स्केच : नुपुर अशोक

1.

अभी-अभी जन्मा है आज का चन्द्रमा 

कल जो दमकता था

घुल गया पिछली रात उस नदी में

वह नदी भी बढ़ गयी आगे

कल जो यहाँ बहती थी

अभी-अभी पैदा हुई है यह नदी

क्षण के गर्भ से 

हाथ भर की दूरी पर सिमटने ही वाली है एक सुहानी साँझ 

वह, जो अब लौटेगी

केवल स्मृतियों में

अविश्वनीयता की हद तक सरल होते हैं 

सपनीली सच्चाइयों के साक्ष्य

कौन देख पाता है हर दिन सूर्य की सैकड़ों लीलाएँ

वर्षा की बूँदों की भंगुरता पर कौन 

फफक कर रो पड़ता है

कौन चीन्हता है अन्त के सौन्दर्य को

कौन एक साथ हँसता और 

सिसकता है 

नश्वरता-

प्रकृति की सबसे जादुई शिल्पकारी है

क्षण में तराशी हुयी-

क्षण की छेनी से

( मनुष्य यदि अमर हो जाएँ 

तो क्या वे एक-दूसरे को मार ही न डालेंगे? )

जीवन सुन्दर है-

इसलिए भर नहीं कि वह आज है

बल्कि इसलिए भी कि वह एक दिन बीत जाएगा

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2 .

दबे पाँव आता है प्रेम

कि एक चिड़िया चहकती रहे नींद के घोंसले में

बारिशें बेमौसम अटारी पर ठहरा करें 

टीस का कठफोड़वा चोंच मारता रहे हृदय के काठ पर 

जीवन की बिसात पर मृत्यु अपने दाँव खेलती रहे  

कभी-कभी कविता चली आए भीतर बिन द्वार खटखटाए 

ज्यों साँझ का सूरज चुपके-से नदी में उतर जाता है

अब-

बहुत धीमे-से छूती हूँ प्रेम की कविता

देखती हूँ कैसे बसंती बयार आम के बौर को छूती है

( प्रेम को स्वप्न में-

 मैं मोरपंख से छूती हूँ )

वसन्त की रुत में जेठ से अधिक अगन है

भादो से अधिक आवेग 

तीव्रता से बरतने पर 

प्रायः कविता को क्षति पहुँचती है

प्रेम को भी

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3.

जो पीड़ित है उसे उपचार चाहिए

जो थोड़ा अधिक पीड़ित है उसे थोड़ा अधिक उपचार चाहिए

जो सबसे अधिक पीड़ित है-

वह स्वयं उपचार हो जाने से धागे भर की दूरी पर है

अंतहीन वार्तालाप नहीं

  शल्य-क्रिया के नुकीले औज़ार चाहिए

जो रोता है उसे रूमाल चाहिए

जो थोड़ा अधिक रोता है उसे काँधा, कहवा और दुलार चाहिए

जो सबसे अधिक रोता है उसे अटूट आकाश चाहिए

भँवर भरम के और नहीं

  पार चाहिए

जो जलता है उसे जल चाहिए

जो थोड़ा अधिक जलता है उसे थोड़ा अधिक जल चाहिये

जो सबसे अधिक जलता है उसे जलता रहने देना चाहिये

वर्षा के आसार हैं

   सूखे मन के भूखे कुओं को मूसलाधार चाहिए

जो प्रेम से वंचित है उसे स्वप्न चाहिए

जो प्रेम से थोड़ा अधिक वंचित है उसे थोड़ा अधिक स्वप्न चाहिए

जो प्रेम से सबसे अधिक वंचित है उसे नींद का वार चाहिए

प्रेम को लगन चाहिए, लगन को अगन चाहिए

    अगन को राख चाहिए, राख को दाग चाहिए

        दाग को आँख चाहिए, आँख को जाग चाहिए

जो हँसता है उसे देख फूल खिलते हैं

जो थोड़ा अधिक हँसता है उसे देख फूल थोड़ा और खिलते हैं

जो सबसे अधिक हँसता है फूल उसके हृदय में खिलते हैं

पृथ्वी को असंख्य बाग चाहिए

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4.

तब वह 

धरती पर सिर गड़ाए बैठा था

अपनी स्त्री के पाँवों को गोद में धरे

मृत्यु 

उस पुरुष तक आयी

ठिठकी-

और तत्क्षण वायु में विलीन हो गयी

धरती पर झुका वह

अपनी स्त्री के पाँवों की अर्द्ध-चन्द्राकार गोलाई पर

तन्मयता से महावर लगा रहा था

कभी-कभी वह पाजेब में जड़े नन्हे मोतियों को छूकर

मंद स्वर में कुछ बुदबुदाता

ज्यों कोई तिब्बती लामा मठ की घण्टियों को

प्रार्थना के शब्दों से स्पर्श करता हो

फिर झुक जाता 

सूर्य के ओज से लाल हो उठते 

आषाढ़ के निरंग मेघ

सेमल को सुर्ख में डुबो

वह पुरुष-

अपनी स्त्री के पाँवों की अर्द्ध-चन्द्राकार गोलाई में

महावर लगा रहा था

और मृत्यु 

तत्क्षण वायु में विलीन हो गयी

.

21May
सृजनलोक

चार कविताएँ : पूजा यादव

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