यह शीर्षक गुजराती साहित्य परिषद की पाक्षिक पत्रिका ‘निरीक्षक’ के 16 जून 2021 के अंक में प्रकाशित पारुल खख्खर की 14 पंक्तियों की कविता ‘तारे बोलवानुं नहि’ का हिन्दी अनुवाद है। इस कविता का हिन्दी अनुवाद इन पंक्तियों के लेखक के आग्रह पर महाराजा सियाजीराव यूनिवर्सिटी बड़ौदा के गुजराती विभाग के शकील कादरी ने किया है।
पूरी कविता इस प्रकार है – “दुःखों की तुझ पे हो बौछार/ पर खामोश रहना है/ तेरा दिल रोए सौ-सौ बार/ पर खामोश रहना है/ जो बोले कत्ल कितने हो गए/ तारीख में पढ़ ले/ बहुत कुछ सोच मेरे यार/ पर खामोश रहना है/ जो बोले बैर बिक जाते हैं/ उनके सच तो हैं लेकिन/ खुशी से कर ये कारोबार/ पर खामोश रहना है/ तेरे पुरखों की खामोशी की/ अच्छाई भी कहती है/ जुबाँ तेरी भी है दमदार/ पर खामोश रहना है/ नहीं दो-चार दे देंगे/ सहारे सैकड़ों काँधे/ बयां अच्छा है तेरा यार/ पर खामोश रहना है/ सजा कर सच की महफिल/ शहर के बहरे सभी इन्साँ/ कहें इर्शाद सौ-सौ बार/ पर खामोश रहना है।”
लोकतान्त्रिक देश में खामोश रहना चिन्ताजनक है। इस कविता को पढ़ते हुए प्लेटो (ईसा पूर्व 428/427- 348/347) की याद आई। महान यूनानी दार्शनिक विचारक प्लेटो को समय-समय पर देखना पढ़ना अनिवार्य है। लगभग ढाई हजार वर्ष पहले अपनी पुस्तक ‘द रिपब्लिक’ के छठे अध्याय में उन्होंने न्याय, मानव-स्वभाव और शिक्षादि पर इस पुस्तक को पहली पुस्तक कहा है। राजसत्ता को लेकर सुकरात (ईसा पूर्व 470-399) और उसके मित्रों के बीच समय-समय पर जो बातें हुई थी, वे आज भी राजसत्ता को समझने में शायद सहायक सिद्ध हों।
प्लेटो के लिए एरिस्टोक्रेसी (अभिजात वर्ग का शासन) का महत्व था। वे इस वर्ग के शासन को निस्वार्थ और बुद्धिमता पूर्ण समझते थे। मतदाताओं के सम्बन्ध में उनका यह विचार था कि वह उन अप्रासंगिक बातों को भी महत्व दे सकता है, जिसका शासन और राजकाज से कोई सम्बन्ध नहीं होगा। प्लेटो ने अमीरों के अमीर होने और उसके धन-सम्पत्ति बनाने की भी बात कही थी, जिससे असमानता में वृद्धि होगी। डेमोक्रेसी, उनके अनुसार, एरिस्टोक्रेसी और ऑलीगार्की के बाद तीसरे दर्जे की शासन-व्यवस्था है।
इन दो शासन-व्यवस्थाओं के अतिरिक्त वे दो अन्य शासन-प्रणाली — टीमोक्रेसी और टीरैनी (उत्पीड़न) की भी बात करते हैं। टीमोक्रेसी के अन्तर्गत सम्पत्ति के मालिक ही सरकार में होते हैं। इस व्यवस्था में शक्ति धन से उत्पन्न होती है और शासक वर्ग की कोई सामाजिक राजनीतिक जिम्मेदारी नहीं होती। एरिस्टोक्रेसी (अभिजात वर्ग का शासन) के ऑलीगार्की (सीमित लोगों के हाथों में शासन) में बदलने के खतरे हैं और डेमोक्रेसी से प्लेटो ने ऑटोक्रेसी (निरंकुशता) के जन्म लेने की बात कही है। इन्दिरा गांधी का शासन कुछ समय के लिए ही सही निरंकुश शासन था।
लोकतान्त्रिक देश में किसी को भी खामोश रहने को कौन कहता है? खामोश करने वाली शक्तियाँ लोकतान्त्रिक आस्थाओं एवं मूल्यों में विश्वास नहीं करती हैं। चुप्पी और लोकतन्त्र पर 21 वीं सदी के विचारकों-बौद्धिकों ने कम विचार नहीं किया है। एक कवि की कविता ‘तुझे खामोश रहना है’ जनतन्त्र का पर्दाफाश करती है। पारुल की कविता खामोशी के समर्थन में नहीं उसके विरोध में लिखी गयी कविता है। कविता में विरोध के स्वर अमुखर भी होते हैं। ‘शव वाहिनी गंगा’ कविता कहीं अधिक मुखर थी, जिसमें ‘साहब’ को ‘नंगा’ कहा गया था। उस कविता में रंगा-बिल्ला का संकेत और अर्थ कहीं बड़ा था। लगभग तीस हजार ट्रोल किया गया। पारुल ने अपना फेसबुक अकाउण्ट बन्द किया। ‘तारे बोलवानुं नहि’ में बोलने की मनाही है। इस कविता में जुबाँ को काट कर रख देने और शहर के बहरे इंसानों की बात कही गयी है। यह कविता प्रतिरोध की कविता है। पारुल के कहने का अन्दाज भिन्न है।
हेरोडोटस (ईसा पूर्व 484-425) के बाद ग्रीक के एक प्रमुख इतिहासकार थूसाईडाइड्स (ईसा पूर्व 455-400) की प्रमुख पुस्तक ‘द हिस्ट्री ऑफ पेलोपौनेसियन वार’ के आधार पर जॉन जुम्ब्रुनेन ने अपनी पुस्तक ‘साइलेंस एंड डेमोक्रेसी : एथेनियन पॉलिटिक्स इन थुसाईडाइड्स हिस्ट्री’ (पेंसिलवानिया स्टेट यूनिवर्सिटी प्रेस, 2008) में जनता की चुप्पी और लोकतन्त्र के अर्थ पर विचार किया है। छह अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक का पहला अध्याय है ‘द साइलेंस ऑफ डेमोस एण्ड द मीनिंग ऑफ डेमोक्रेसी’। जॉन जुम्ब्रुनेन आज के अमेरिका और दूसरे देशों की भी बात करते हैं। लगभग ढाई हजार वर्ष पहले ग्रीक इतिहासकार थूसाईडाइड्स ने पूछा था कि जब शासन एक व्यक्ति के हाथ में है तो लोकतन्त्र नाम में क्या धरा है? चुप्पी का सम्बन्ध भय से है।
विगत एक दशक में लोकतान्त्रिक देशों में भय बढ़ा है और इस भय के कारण चुप्पी भी बढ़ी है। पाश ने अपनी कविता में ‘मुर्दा शांति’ से मर जाना ‘सबसे खतरनाक’ माना है। उन्होंने सब कुछ सहने और तड़प के ना होने को सबसे खतरनाक कहा है। मुखर लोकतन्त्र में चुप्पी नहीं होती। मौन और चुप रहने का अर्थ लोकतन्त्र के हरण और नष्ट होने से है। लोकतन्त्र में चुप रहना सब के लिए चिन्ता का विषय है। लब खोलने से केवल मनुष्य ही नहीं, समाज और लोकतन्त्र भी जीवित रहता है। आधुनिक राजनीतिक नेताओं में 37 वें अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन (9.1.1913 – 22.4.1994) को बहुसंख्यकों की चुप्पी से जोड़ा गया है जो उनकी अलोकप्रिय नीतियों को ‘जस्टिफाई’ करने के लिए था।
लोकतन्त्र में नागरिकों के मौन पर काफी कुछ लिखा गया है। 2015 में एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी – ‘डेमोक्रेसी एंड साइलेंस : रीथिंकिंग द मीनिंग्स एण्ड सिग्निफिकेन्स ऑफ साइलेण्ट सिटीजनशिप इन डेमोक्रेटिक सिस्टम’। भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। क्या ‘शव वाहिनी गंगा’ कविता के विरोधी सही अर्थों में लोकतन्त्र के समर्थक हैं? क्या उनका लोकतान्त्रिक संस्थाओं और मूल्यों में विश्वास है? 20 जून 2017 के ‘हटिंग्टन पोस्ट’ में अमेरिकी लेखक डेविड गुडमैन (13.12.1962) का एक लेख प्रकाशित हुआ था ‘द बिगेस्ट थ्रेट टू आवर डेमोक्रेसी इन साइलेंस’।
इस लेख में उन्होंने 28 अगस्त (बुधवार) 1963 को अफ्रीकी अमेरिकियों के नागरिक-आर्थिक अधिकारों के पक्ष और समर्थन में वाशिंग्टन में नाजीवाद के प्रबल विरोधी रैबी जॉयसिम प्रिंज (10.5.1902 – 30.9.1988) के भाषण के एक हिस्से (उद्धरण) को हमेशा अपने बटुए में रखे रहने की बात लिखी है। प्रिंज ने अपने भाषण में यह कहा था कि हिटलर के शासनकाल की सर्वाधिक ट्रैजिक परिस्थितियों में कट्टरता और घृणा सर्वाधिक आवश्यक समस्या नहीं थी। सर्वाधिक जरूरी, अपमानजनक, शर्मनाक और ट्रैजिक समस्या चुप्पी है। डेविड गुडमैन ने इसे नैतिक शालीनता का शक्तिशाली वसीयतनामा (पावरफुल टेस्टामेंट) कहा है।
लोकतन्त्र में हम सब में बोलने के साहस का होना जरूरी है। यह साहस बौद्धिक वर्ग और कवियों में सर्वाधिक होता है। पारुल खख्खर ने केवल ‘शव वाहिनी गंगा’ में ही नहीं ‘तारे बोलवानुं नहि’ (तुझे खामोश रहना है) में साहस का परिचय दिया है। कवि का भयभीत होना समाज और लोकतन्त्र के लिए ही नहीं, उसके लिए भी घातक है।
गुजरात साहित्य अकादमी एक सरकारी संस्था है और गुजराती साहित्य परिषद...