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गाँधी जी सत्य अहिंसा
सामयिक

गाँधी जी एवं सत्य और अहिंसा

 

कल (1 अक्टूबर) के ‘टेलिग्राफ’ में हिलाल अहमद का एक लेख ‘सत्याग्रह’ की बद्धमूल धारणा के संदर्भ में ‘एक संभावनापूर्ण हथियार’ (Potent Weapon) अपने तमाम संकेतों के साथ बहुत महत्वपूर्ण लेख था। उसे पढ़ते हुए ही आज गाँधी जयंती के मौक़े पर  सत्य, हिंसा, अहिंसा पर चंद बातें :

हिलाल अहमद के लेख में गाँधी जी के सत्याग्रह के संदर्भ में परमेश्वर (god) का ज़िक्र आता है। परमेश्वर का आम और रूढ़ अर्थ है- भगवान। लेकिन दर्शन के संदर्भ में इसका अर्थ होता है — परम का ऐश्वर्य। जगत के, बल्कि किसी भी पदार्थ के परम तत्त्व का ऐश्वर्य। पदार्थ का शुद्ध रूप, उसका सत्य।

पदार्थ जीवन-जगत के साथ संबंधों से, अर्थात् संसार की तमाम वस्तुओं की मध्यस्थता से एक प्रमाता का अर्थपूर्ण यथार्थ रूप ग्रहण करता है। प्रमाता का परमेश्वर उन संबंधों से बुने गए आवरण में छिप जाता है। जीवन में उसके सत्य की तलाश का अर्थ होता है,  ऐसे सभी आवरणों से उसे यथासंभव दूर करना। पूर्ण परम सत्य को पाना तो संभव नहीं होता है, क्योंकि वह उसे शुद्ध, असंबद्ध और इसीलिए अर्थहीन बना देता है।

पदार्थ का परम रूप ही उसकी प्राणी सत्ता, अर्थात् उसका प्रारंभिक और अंतिम तात्त्विक रूप होता है। कोई वस्तु जहाँ से शुरू होती है, वहीं समाप्त भी होती  है। इसे मनुष्य के जीवन के संदर्भ में मृत्यु से मृत्यु तक का चक्र, निर्वाण भी कहा जाता है। जिसे जीवन कहते हैं, वह मृत्यु तक, अर्थात् वस्तु के मूलभूत सत्य तक लौटने के बीच की अवधि भर है। इसीलिए, जब भी साध्य के रूप में सत्य की बात की जाती हैं तो वह वस्तुतः साध्य की प्राणीसत्ता को ही साधने की बात होती है।

गाँधी जी साध्य और साधन की एकता की बात कहते थे। उनके शब्द हैं — जहाँ साधन की शुद्धता होती है, वहाँ परमेश्वर वास करता है। दरअसल, साधन की शुद्धता का ही अर्थ है साध्य की शुद्धता को बनाए रखना। यह साध्य-साधन के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध का मसला है। साधन की अशुद्धता साध्य को शुद्ध नहीं रहने दे सकती है।

उपरंच, हिंसा साध्य की आंतरिक संहति को ही नष्ट कर सकती है। यह प्रकारांतर से साधन को शुद्ध, प्राकृतिक बनाने का उपक्रम कहा जा सकता है। साधन जब शून्य होगा तो साधन का प्रयोग करने वाला प्रमाता – निस्पृह। निष्काम कर्म के सिद्धांत का मूलाधार।

जाहिर है कि इस तर्क पर सचेत अहिंसा को भी साधन का अभिन्न अंग नहीं माना जा सकता है। जब साध्य की शुद्धता के प्रति अटूट निष्ठा ही सर्वोपरि हो तो साधन हिंसक-अहिंसक किसी भी सचेत उपक्रम का क्या काम!

पर, हिंसा साध्य की संहति को ही नष्ट कर सकती है, अहिंसा उसे अक्षुण्ण रखती है। यही वजह है कि जब हिंसा और अहिंसा के बीच चयन की बात आती है, तो गाँधी जी का चयन साफ था – अहिंसा। पुनः, हिंसा साध्य की संहति को ही बिखेर देने का खतरा पैदा करता है। और जिससे साध्य ही बिखर जाए, उस पथ की ओर कदम बढ़ाना, अपने ही लक्ष्य से दूर होने के अलावा क्या होगा!

साध्य के सत्य के प्रति दृढ़ आग्रह एक कठिन तपस्या है, इसीलिए गाँधी जी अहिंसा को कमजोरों का नहीं, सबसे मज़बूत इरादों के लोगों का अस्त्र मानते थे। भारत के गरीब, पर पक्के इरादे के लोगों के संघर्ष का सर्वोत्तम हथियार।

हिलाल अहमद के लेख में यह बात आती है कि सत्याग्रही को अपराध और अपराधी के बीच फर्क करना कभी नहीं भूलना चाहिए। जॉक लकान ने अपराधशास्त्र में मनोविश्लेषण की भूमिका में इसी बात से अपनी बात का प्रारंभ किया था कि अपराधशास्त्र में जिस सत्य की तलाश रहती है उसका एक पहलू पुलिस की तलाश का पहलू होता है, जो दंड प्रणाली की ज़रूरतों को पूरा करता है, पर उसका दूसरा पहलू अपराधी के सत्य का मानवशास्त्रीय पहलू है। मनोविश्लेषण का कार्य उसके मानवशास्त्रीय पहलू से जुड़ा हुआ है। कहना न होगा, सत्याग्रही की भूमिका सत्य की तलाश के एक विश्लेषक की भूमिका के मानिंद ही है।

सत्य ही परमेश्वर है और इसे हासिल करने का सर्वोत्तम उपाय अहिंसा, अर्थात् प्रेम का है। प्रेम दो के बीच संबंधों से निर्मित मानव जीवन का वह अंतरंग जगत है जिसमें सचमुच अन्य के प्रवेश की न्यूनतम गुंजाइश होती है। यह साध्य की शुद्धता को साधन के प्रभाव से बचाने का मार्ग है। सत्याग्रह में प्रेम के महत्व का यही सार है। इसमें अगर कोई साधन हो भी सकता है तो वह अहिंसा का वह शुद्ध साधन है जो शून्य होता है, अकर्मक होता है।

इसीलिए गाँधी ने सत्याग्रह को आदमी का अंतिम हथियार भी कहा गया है। इसके आगे उसके सामने सिर्फ मृत्यु ही बचती है। इसीलिए गाँधी जी का आग्रह था कि इसे बहुत सोच समझ कर अपनाया जाना चाहिए। इसे राजनीति की कोई कूट चाल नहीं समझना चाहिए। इसीलिए गाँधी जी राजनीति में सत्याग्रह के लिए विषय के प्रति व्यापक जन-जागरण को सबसे प्रमुख शर्त माना था। सत्याग्रह अपने लक्ष्य को व्यापक जन-समर्थन के बिना प्राप्त नहीं कर सकता है।

हिलाल अहमद ने अपने लेख में इस बात को रेखांकित किया है कि  “किसी भी आन्दोलन का परिणाम उस आन्दोलन में ही निहित होता है।” यह हर वस्तु के अपने जगत और अपने परमेश्वर की बात है। हर सिद्धांत की उसकी उद्भावक शक्ति की बात। हर क्षेत्र के सिद्धांतों की आंतरिक संहति ही उसकी उद्भावक शक्ति की भूमिका अदा करती है। हिंसा उस आंतरिक संहति को नष्ट करती है, इसीलिए स्वतंत्रता सहित मानव सत्य के किसी भी रूप की प्राप्ति के आन्दोलन में हिंसा का परिहार जरूरी है

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