भारत की सामाजिक संरचना में सबसे निचले पायदान पर जीवन बसर करने वाली अनुसूचित जाति के उत्थान के लिए अब तक किसी भी दल या सरकार ने ईमानदारी से काम नही किया है। अब तक जितनी भी सरकारें बनी उनने इनके साथ दोगली नीति को ही प्रमुखता में रखा। केन्द्र की मोदी सरकार ने जिस तरह से वार्षिक बजट में दलित उत्थान के लिए राशि का आवंटन किया इससे भी मंशा जाहिर हो जाती है। भाजपा की मोदी सरकार दलितों की कितनी हितैषी है और सही मायने में यह सरकार उनका कितना सामाजिक, आर्थिक उत्थान चाहती है ये दलितों के लिए बजट में जारी राशि को देख कर भी अंदाज लगाया जा सकता है। बजट में इस समुदाय की महिलाओं की बेहतरी के लिए जितनी राशि जारी की गयी है वह गायों की बेहतरी से भी कम है। जिस तरह से चुनावी बजट होने के बावजूद दलित समुदाय के हित में राशि आवंटित की गयी है उससे पूरे देश के दलितों में नाराजगी पसरी हुई है।
बता दें कि दलितों ने 2014 में भाजपा की लोकसभा चुनाव जीत में अहम योगदान दिया था बावजूद इसके ऐसा दुराभाव किया है। पिछले चार वर्षों में नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में अनुसूचित जाति (एससी) और जनजातियों (एसटी) के लोगों के साथ मारपीट और लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं से भी साबित होता है कि ये लोग दलित और आदिवासियों को लेकर कितनी विरोधी मानसिकता रखते है। अगर कहा जाए कि आरएसएस और उसका अनुषांगिक संगठन भाजपा दलित विरोधी है तो अतिशयोक्ति नही होगा। अब लोकतन्त्र के इस उत्सव में एक बार फिर दलित और आदिवासियों को अपना शासक चुनने का अवसर मिला है। जो दल इस समुदाय का घोर विरोधी माना जाता है उसे अपना मत देने से पहले सौ बार सोचना चाहिए।
बहरहाल चुनावी दौर में भाजपा ने दलितों को लुभाने के लिए बजट में टुकड़ा फेकने का काम तो किया है लेकिन इस दोगलेपन को समझना जरूरी है। भाजपा कभी भी दलितों का हित नही कर सकती है। इतिहास गवाह है कि जब-जब भी जहाँ- जहाँ भी भाजपा की सरकारें बनी है तब-तब वहाँ दलितों पर अन्याय अत्याचार बढ़े हैं। इनकी कथनी और करनी को छोटे से उदाहरण से समझना होगा। एक तरफ तो इनकी सरकारें दलित अत्याचार में रिकार्ड बनाती है वहीं दूसरी तरफ ये दलित- आदिवासियों की भावनाओं के साथ शोषण कर हितैषी बनने की कोशिश करते हैं। सनद रहे कि पिछले साल भाजपा एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के उल्लंघन पर तुरंत गिरफतारी पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटने के लिए अध्यादेश लेकर आ गई थी, वहीं केन्द्र में चुनावों को देखते हुए एससी-एसटी कल्याण मद में थोड़ा सा बजट बढ़ाकर खुद को आर्थिक विकास का पक्षधर बताने का भरषक प्रयास किया है। मोदी सरकार ने एससी कल्याण के लिए आवंटित राशि में 35.6 फीसदी की वृद्धि करते हुए 2018-19 के 56,619 करोड़ रु. के मुकाबले उसे 2019-20 में 76,801 करोड़ रु. कर दिया जबकि एसटी के लिए आवंटित राशि, जो 2018-19 में 39,135 करोड़ रु. थी, 2019-20 में बढ़ाकर 50,086 करोड़ रु. कर दी है। यह लालीपॉप देकर दलित वोट साधने की कोशिश तो कि लेकिन इसका दलितों पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा है। एससी-एसटी समुदाय के बीच में काम करने वाले सामाजिक संगठनों का भी यही मानना है कि एससी-एसटी फंड में वृद्धि दलित समुदायों के लिए अप्रासंगिक है, क्योंकि प्रत्यक्ष रूप से आवंटित राशि बहुत कम है और फंड आवंटन के दिशा निर्देशों का उल्लंघन करता है। नीति आयोग के 2017 के दिशा निर्देशों के अनुसार एससी-एसटी के विकास के लिए आवंटित फंड उनकी आबादी के अनुपात से कम नहीं होना चाहिए जबकि मोदी सरकार ने ऐसा ही किया है।