अविभाजित बंगाल में ढाका जिला के विक्रमपुर में 02 सितम्बर 1920 को जन्मे बांग्ला के अज़ीम शायर बीरेंद्र चट्टोपाध्याय का यह शताब्दी वर्ष है। बेहद साधारण नज़र आने वाले इस कवि के झोले में उनकी किताबें रहती थीं हमेशा और होठों पर मंत्र की तरह काव्य पंक्तियाँ। घूम-घूम कर अपनी किताबें खुद बेचा करते। कोलकाता के पुस्तक मेले में कन्धे पर झोला लटकाए, अपनी किताबों को खुद बेचते आसानी से दीख जाते थे। जलेबी और मूढ़ी के शौकीन इस कवि के लिए कविता जीवन जीने की जरूरतों जैसी ही थी। इसलिए कविता अगर ज़ेहन में आ जाए तो तत्काल उसे सिगरेट के पैकेट या बस की टिकट पर ही लिख कर रख लिया करते। इस प्रवृत्ति का प्रभाव उनकी कविता के वस्तु और शिल्प पक्ष दोनों पर दिखाई भी पड़ता है।
बीरेंद्र चट्टोपाध्याय बांग्ला के बिरले कवि हैं जिनकी कविताएँ अपने समय की किसी नामचीन पत्रिकाओं में नहीं छपीं। हमेशा ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं की जगह उन्होंने लघु पत्रिकाओं को ही तरजीह दी। जीवन के अन्तिम समयजब अस्पताल में कैंसर से मौत की जंग लड़ रहे थे, तब एक बड़े प्रकाशन को बड़ी मनुहार के बाद अपनी दो कविताएँ प्रकाशित करने की अनुमति दी थी। कविता के बाहर और अंदर की यह सामाजिकता ही थी, जिस कारण बड़े प्रकाशनों और साहित्य के भव्य समारोहों से उन्होंने ताजिन्दगी दूरी बनाए रखी।
कोलकाता शहर की बड़ी कवि गोष्ठियों और साहित्यिक आयोजनों की चमक-दमक और बनावटीपन से उन्हें चिढ़ थी। उसकी जगह बंगाल के दूर-दराज़ के गाँव-कस्बों में युवा कवियों की साधारण कवि गोष्ठियां उन्हें बेहद प्रिय थीं। युवाओं और युवा कवियों से उन्हें बहुत उम्मीदें थीं और लगाव भी था। इसलिए युवाओं को लगातार अच्छी कविता लिखने के लिए प्रोत्साहित करते और खुद ही उनकी कविताएँ विभिन्न पत्रिकाओं में छपने के लिए भेज देते थे।
कवि बीरेंद्र चट्टोपाध्याय का काव्य-जीवन जब शुरू हुआ तब बांग्ला कविता में रबीन्द्रनाथ के बाद की पीढ़ी खासा सक्रिय थी। रबीन्द्रनाथ की कविता से दीगर दीखने की चुनौती इन कवियों ने ले रखी थी। जिसमें जीवनानन्द दास,सुधीन्द्र नाथ दत्त, अमिय चक्रबर्ती, बुद्धदेव बसु, विष्णु दे जैसे कवि शामिल थे। इस टकराहट से बांग्ला कविता के आधुनिक युग की शुरुआत मानी जाती है। इन कवियों की इस चुनौती का प्रभाव इनके बाद के कवियों पर अवश्यम्भावी रूप से पड़ा।
इस समय बंगाल का राजनीतिक परिवेश भी तेजी से परिवर्तित हो रहा था, जिसका स्पष्ट प्रभाव बीरेंद्र चट्टोपाध्याय और उनके समकालीन सुभाष मुखोपाध्याय, अरुण मित्र, सुकांत भट्टाचार्य आदि की कविताओं में दिखाई पड़ता है। बीरेंद्र चट्टोपाध्याय की शुरुआती कविताओं पर हालाँकि जीवनानन्द दास के ‘पूर्वाभास’ का रोमानी असर दिखाई पड़ता है पर जल्द ही राजनीतिक और सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करने वाले कवि की कविताओं में अपने समय की विभीषिका और चुनौतियाँ व्यक्त होने लगती हैं।
बीरेंद्र चट्टोपाध्याय की ख़ासियत उनकी समाज, राजनीति और कविता की दुनिया में बराबर की आवाजाही है। समकालीन बांग्ला कविता के प्रमुख हस्ताक्षर शंख घोष ने उन्हें ‘कविता को छोटे जगत से आज़ाद करके जनता की विस्तृत दुनिया में ले जाने वाला कवि’ कहा है। विभिन्न जन आन्दोलनों में जनता उनकी ‘राजा आते-जाते हैं’, ‘जन्मभूमि तो आग की तरह होगी ही, गर तुम्हें अन्न उगाना नहीं आता’ जैसी कविताओं की पंक्तियों को कभी गाती हुई तो कभी नारों की तरह उछालती हुई नजर आती है। लोगों के प्रति बेचैन कर देने की हद तक उनकी करुणा और उस करुणा को प्रतिरोध में परिवर्तित करने वाले एक अद्भुत कवि थे बीरेंद्र चट्टोपाध्याय।
अविभाजित बंगाल में पैदा होने वाले कवि को ताजिन्दगी विभाजन का दुख सालता रहा। ऋत्विक घटक और मंटो की ही तरह यह दुःख उनके पूरे रचना- संसार में अनुगूँज की तरह मौजूद है। गहरी व्यथा के साथ लिखा उन्होंने, ‘अपनी जन्मभूमि को अपना वतन नहीं कह सकता अब’। उनकी कविताओं से गुजरते हुए यह यकीन होता है कि मातृभूमि से विस्थापित होकर मनुष्य अगर अपनी जड़ों से कट जाता है तो मनुष्य-विरोधी होने पर मातृभूमि को भी मरुभूमि में तब्दील होते देर नहीं लगती। उनका मातृभूमि प्रेम और उसके बिछोह से उपजा दर्द अश्रु विगलित कारुणिक व्यापार मात्र नहीं है, जैसे उनका कविता लिखना भी प्रलाप मात्र नहीं है। बकौल कवि ‘छत्तीस हजार काव्य-पंक्तियाँ लिखने की जगह मैं इस धरती को जानता’।
धरती को ठीक से नहीं जानने-समझने का दर्द उनकी कविताओं में टेक की तरह मौजूद है। अन्त-अन्त तक वह धरती को और प्रकारांतर से लोगों को ही कविता की सार्थकता और विश्वसनीयता का पैमाना मानते थे। 1980 ई. में वह अपने एक कविता संग्रह की भूमिका में लिखते हैं, “सिर्फ स्वयं बचे-खुचे रहना ही तो किसी मनुष्य का लक्ष्य नहीं होता। …और तुम्हारे पाँवों के नीचे की ज़मीन? उसे क्या तुम ढूंढ पाए?” तमाम ज़िन्दगी वह अपनी कविताओं में उस ज़मीन की तलाश करते दिखाई पड़ते हैं, जिसे अपने पाँवों तले महसूस किया जा सके। अर्थात उधार या आभार की नहीं बल्कि सचमुच की जिन्दगी को जिया जा सके।
अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने का अपार साहस और लोगों के प्रति कभी न ख़त्म होने वाले प्यार से भरे हुए इस व्यक्ति को हमेशा कविता के अंदर और बाहर संघर्षरत देखा गया। उनकी तरुणाई के समय से मृत्युपर्यंत (1985) समाज में घटित हर आन्दोलन मेंउनकी सक्रिय भागीदारी रही। देश विभाजन, 1959 का खाद्य आन्दोलन, 1961 में आये नाट्य-नियंत्रण कानून, बांग्लादेश का मुक्तियुद्ध, राजनीतिक बंदियों की मुक्ति का आन्दोलन, सभी में उनकी सक्रिय भागीदारी रही, जेल भी जाना पड़ा। शंख घोष ने उनकी भूमिका को लक्षित करते हुए सटीक लिखा कि “हर अर्थ में वह बांग्ला के प्रतिरोध के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं।”
बीरेंद्र चटोपाध्याय मनुष्य बने रहने को सबसे बड़ी प्रतिबद्धता और प्रतिरोध मानते थे। इसलिए लिखा था उन्होंने कि ‘कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो जाए, अन्ततः कवि को होना ही पड़ता है मनुष्य’। इसलिए कविता को वह जवाब देने की जगह सवाल पैदा करने वाली मानते थे। लिखा है उन्होंने “अभी सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ कि मनुष्य की उम्मीद अविनाशी है। इसलिए चारों तरफ मौजूद जहालत के बावजूद वह सपने देखता है। मौत खुद भी उसके सामने आकर खड़ी हो तब भी वह आसानी से उसे रास्ता नहीं दे देता, उससे भी सवाल करता है। प्रश्नों का उत्तर देना नहीं, प्रश्न करना ही शायद कवि का धर्म होता है।” कहना न होगा कि इस कवि-धर्म का पालन उन्होंने बखूबी किया। इस संदर्भ में उनकी कविताएँ और उनका जीवन प्रमाण और प्रेरणा दोनों हैं।
कवि को उनके पाठकों और जनता से भरपूर प्यार मिला। इसी का परिणाम है कि बांग्ला के सभी प्रमुख जन-संगीतकारों ने उनकी कविताओं को स्वर दिया, जो आज भी जारी है। हेमांग बिश्वास, प्रतुल मुखोपाध्याय, बिपुल चक्रवर्ती, अजीत पाण्डे, हाबुल दास जैसे अनेकों प्रसिद्ध गायकों ने उनकी कविताओं को आवाज़ दी है। ऐसे शानदार कवि को आज उनकी शतवार्षिकी पर कवि को कोटि-कोटि नमन।
अन्त में उनकी एक कविता –
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भात की अनोखी खुशबू
रात की हवाओं में बिखरी है भात की अनोखी खुशबू
जाने कौन लोग हैं जो आज भी भात पकाते हैं
भात परोसते हैं, भात खाते हैं।
और हम भात की खुशबू सूंघते
जागते रहते हैं
सारी रात, प्रार्थना में नत।
(अनुवाद मेरा)