आजाद भारत के असली सितारे -5
देश की पहली महिला विधायक मुथुलक्ष्मी रेड्डी
आज संसद तथा राज्यों की विधान-सभाओं में महिला विधायकों की कमी नहीं है और एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए सुरक्षित करने की माँग लम्बे समय से की जा रही है। लेकिन एक समय था जब हमारे देश में महिलाओं को स्कूल जाने पर भी पाबन्दी थी। डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी (30.7.1886 – 22.7.1968) देश की ऐसी महिला हैं जिन्हें पहली महिला विधायक बनने का गौरव हासिल है। इतना ही नहीं, उन्हें मद्रास विधानसभा की पहली महिला सदस्य, लड़कों के कॉलेज में अध्ययन करने वाली पहली छात्रा, सरकारी अस्पताल की पहली महिला हाउस सर्जन, राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड की पहली अध्यक्षा, विधान सभा की पहली उपसभापति आदि बनने का भी गौरव हासिल है। मद्रास विधान सभा में उन्होंने महिलाओं के पक्ष में कई ऐतिहासिक निर्णय लेने में केन्द्रीय भूमिका निभायी।
डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी का जन्म तमिलनाडु के पुड्डुकोट्टई रियासत में हुआ था। उनके पिता एस. नारायण स्वामी अय्यर चेन्नई के महाराजा कॉलेज के प्रिंसिपल थे। उनकी माँ का नाम चंद्रम्माल था। वे पहले एक देवदासी थीं। उनके पिता ने एक देवदासी से शादी की थी जिसके नाते उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया था। उन दिनों देवदासी प्रथा तमिलनाडु ही नहीं अपितु दक्षिण कई क्षेत्रों में एक कलंक की तरह था। अपनी माँ की सामाजिक उपेक्षा के कारण मुथुलक्ष्मी का लगाव अपनी माँ के प्रति अधिक था।
उन दिनों कम उम्र में ही लोग लड़कियों का विवाह कर देते थे। लड़कियाँ उन दिनों मानो केवल विवाह के लिए ही जन्म लेती थीं। उनकी माँ भी समाज की मान्यताओं के अनुसार अपनी बेटी की शादी जल्दी ही कर देना चाहती थीं। किन्तु मुथुलक्ष्मी की रुचि पढ़ाई करने और जीवन में कुछ बनने की थी। उन्होंने समाज की इस मान्यता का विरोध किया कि पढ़ाई सिर्फ लड़कों को करनी चाहिए। उनके पिता भी बेटी की पढ़ाई के विरोधी थे। लेकिन मुथुलक्ष्मी की माँ ने अपनी बेटी की भावनाओं को समझा और उसे पढ़ाने का फैसला किया। इस तरह पति और समाज के तानों के बावजूद मुथुलक्ष्मी की माँ चंद्रम्माल ने बेटी को पढ़ने के लिए स्कूल भेजा।
मुथुलक्ष्मी पढ़ाई में बहुत तेज और कुशाग्र बुद्धि की थीं। 10वीं के बाद उन्होंने पुड्डुकोट्टई के महाराजा कॉलेज में दाखिले के लिए फॉर्म भरा। उस समय महाराजा कॉलेज में सिर्फ लड़कों को ही पढ़ाया जाता था। उनके आवेदन पर कॉलेज के प्रिंसिपल ने विरोध किया। कॉलेज द्वारा उनका फॉर्म खारिज कर दिया गया। पर मुथुलक्ष्मी हिम्मत नहीं हारीं। पुड्डुकोट्टई के महाराज के संज्ञान में मामला आने पर उन्होंने मुथुलक्ष्मी को कॉलेज में प्रवेश की इजाजत दे दी और साथ ही पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति की भी व्यवस्था कर दी। मुथुलक्ष्मी के पिता उन्हें एक शिक्षक बनने के लिए प्रेरित करते थे किन्तु मुथुलक्ष्मी के इरादे कुछ और थे।
स्कूल में इकलौती छात्रा होने की वजह से मुथुलक्ष्मी को पढ़ने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा, परन्तु वे हार नहीं मानीं और न तो उन्होंने अपनी माँ को कभी निराश किया। 1907 में वे मद्रास मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाली पहली महिला बनीं। वहाँ पढ़ाई का उनका शानदार रिकार्ड रहा। उन्हें अनेक स्वर्ण पदक और पुरस्कार प्राप्त हुए। यहाँ से 1912 में उन्होंने एमबीबीएस की परीक्षा पास की और मद्रास की पहली महिला डॉक्टर होने का गौरव हासिल किया।
कहा तो यह जाता है कि वे देश की पहली महिला डॉक्टर बनी थीं। किन्तु ऐसा नहीं है। उनके काफी पहले 1886 में कलकत्ता की कादम्बिनी गांगुली डॉक्टर बन चुकी थीं। इसलिए उन्हें इस सम्मान को पाने का अधिकार मिलना चाहिए। कादम्बिनी गांगुली प्रख्यात ब्रह्मसमाजी द्वारकानाथ चट्टोपाध्याय की पत्नी थीं। इसी वर्ष अर्थात 1886 में ही गुजरात की आनंदीबाई जोशी ने भी पैंसिल्वेनिया से डॉक्टर बनकर लौटी थीं। यद्यपि वहाँ से लौटने के एक वर्ष बाद ही तपेदिक से उनका निधन हो गया था।
जब मुथुलक्ष्मी मेडिकल की पढ़ाई कर रही थीं उसी दौरान ही उनकी भेंट सरोजनी नायडू और एनी बीसेंट से हुई। बाद में इन दोनों से उनकी गहरी दोस्ती हो गयी। उन्होंने स्वीकार किया है कि उनके जीवन पर एनी बीसेंट और महात्मा गाँधी का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा है। इन दोनो विभूतियों से उन्होंने महिलाओं के अधिकार के बारे में समझा और उसके लिए संघर्ष करने की प्रेरणा ली। इन दोनों से वे बहुत प्रभावित हुईं और डॉक्टरी के साथ महिलाओं के स्तर को सुधारने की लड़ाई लड़ने का भी उन्होंने संकल्प लिया। जिस समय मुथुलक्ष्मी मेडिकल की पढ़ाई कर रही थीं, उस वक्त ऐसा करने वाली वह पहली महिला थीं।
मेडिकल की पढ़ाई पूरी होने तक मुथुलक्ष्मी अपनी निजी लड़ाई लड़ रही थीं, लेकिन इसके बाद उन्होंने महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ने का फैसला किया। उन्होंने मद्रास के सरकारी मातृत्व और नेत्र अस्पताल की पहली महिला हाउस सर्जन के रूप में भी काम किया।
डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी को इंग्लैंड जाकर आगे पढ़ने का मौका भी मिला। वे अपनी पढ़ाई के लिए लन्दन गयीं भी, किन्तु मद्रास में भारतीय महिला संगठन के सदस्यों के अनुरोध पर वे बीच में ही, अपनी आगे की पढ़ाई छोड़कर भारत लौट आईं। समाज के लिए यह उनका बड़ा त्याग था। उन्होंने अपने कैरियर की जगह पूरे महिला समाज के लिए काम करना ज्यादा जरूरी समझा। उन्होंने वूमेंस इंडियन एसोसिएशन से जुड़कर उसके लिए काम करना शुरू कर दिया। इस संगठन के माध्यम से वे संदेश देना चाहती थीं कि स्त्रियों को यदि समुचित अवसर दिए जाएँ तो वे दुनिया के लिए प्रेम, शान्ति और एकता की दूत बन सकती हैं।
गाँधी के रास्ते पर चलकर ही उन्होंने ‘वूमेन्स इंडियन एशोसिएशन’ को आगे बढ़ाया। बाद में इसी संगठन के माध्यम से उन्हें मद्रास विधान सभा में जाने का रास्ता खुला। वे ‘वूमेंस इंडियन एसोसिएशन’ की सह-संस्थापक थीं। एनी बीसेंट तथा सरोजिनी नायडू के सहयोग से 1917 में उन्होंने इस संगठन की स्थापना की थी। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने देश में महिलाओं के प्रति होने वाले भेद-भाव के लिए लड़ाई लड़ी और अपनी उपलब्धियों से साबित कर दिया कि पुरुषों की तुलना में महिलाएँ किसी भी मामले में कम नहीं हैं।
डॉ. मुथुलक्ष्मी ने कम आयु में लड़कियों की शादी रोकने के लिए नियम बनाए और अनैतिक तस्करी नियन्त्रण अधिनियम को पास करने के लिए काम किया। लम्बी लड़ाई के बाद 1947 में जाकर अनैतिक तस्करी अधिनियम बिल पास हो सका। उन्होंने महिलाओं के उत्थान और लैंगिक असमानता के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ी और इस तरह भारत की स्वतन्त्रता के लिए महात्मा गाँधी के प्रयासों का समर्थन किया और उनका सहयोग किया।
बाद में डॉ. मुथुलक्ष्मी राजनीति में भी आईं और सामाजिक सुधार के कार्यों को खूब बढ़ावा दिया। वर्ष 1927 में वे मद्रास विधान सभा की सदस्य चुनी गयीं थी और इस तरह वे देश की पहली महिला विधायक बनीं। जब वे विधान सभा की उपसभापति चुनी गयीं तो वे दुनिया की पहली उपसभापति बन गयीं। उन्होंने शादी के लिए लड़को की उम्र कम से कम 21 वर्ष तथा लड़कियों की कम से कम 16 वर्ष करने का सुझाव दिया था जिसे स्वीकार कर लिया गया।
अनाथों तथा लड़कियों के साथ होने वाले शोषण के खिलाफ भी उन्होंने अपनी आवाज बुलन्द की। उन्होंने विधानसभा से देवदासी प्रथा उन्मूलन विधेयक पारित करवाने का आग्रह किया। उन्होंने मद्रास में पढ़ाई करने वाली लड़कियों को प्रोत्साहित करने के लिए नि:शुल्क भोजन व आवास की व्यवस्था की।
उन्होंने विधान सभा में महिलाओं और बच्चों के लिए अलग से अस्पताल खोलने का बिल पास कराया। सरकार ने उनके सुझाव को स्वीकार करते हुए सामान्य अस्पतालों में भी बच्चों तथा महिलाओं के लिए अलग से विभाग खोले। उनके ही प्रयास से म्युनिसिपैलिटी की ओर से स्कूलों तथा कॉलेजों में समय- समय पर डॉक्टरों की टीम द्वारा विद्यार्थियों के स्वास्थ्य की जाँच का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। इतना ही नहीं, उन्ही के प्रयास से मुस्लिम छात्राओं के लिए छात्रावास खोला गया और दलित लड़कियों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था की गयी।
उन्होंने कैन्सर के मरीजों के लिए कैन्सर रिलीफ फंड की शुरुआत की जो बाद में बहुत बड़े कैन्सर शोध संस्थान के रूप में विकसित हुआ। यह देश भर के कैंसर के रोगियों को आकर्षित कर रहा है।
हार्टोग एजूकेशन कमेटी के लिए किया गया उनका काम भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिसके माध्यम से भारत में शिक्षा की प्रगति की समीक्षा और उसके अनुसार कार्य योजना तय की गयी थी। इस कमेटी में वे अकेली महिला सदस्य थीं। उन्होंने कमेटी की ओर से शिक्षा की प्रगति का अध्ययन करने लिए पूरे भारत का दौरा किया था।
डॉ. मुथुलक्ष्मी अखिल भारतीय महिला सम्मेलन की अध्यक्ष थी और उसकी पत्रिका ‘रोशनी’ का भी उन्होंने सम्पादन किया था। वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों तक गाँधी के रास्ते पर चलते हुए महिलाओं तथा समाज के अन्य दलित और उपेक्षित वर्ग के कल्याण के लिए काम करती रहीं। वे गाँधी की परम अनुयायी थीं। गाधीजी को एक बार जब गिरफ्तार कर लिया गया था तो उन्होंने उनकी गिरफ्तारी के विरोध में विधान सभा की सदस्यता से त्यगपत्र दे दिया था।
डॉ. मुथुलक्ष्मी ने समूचे तमिलनाडु में प्रचलित देवदासी जैसी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए नेतृत्व किया। 1930 के दौर में उन्होंने झोपड़पट्टियों में रहने वाले गरीब तबके के नागरिकों के लिए तथा महिलाओं के लिए शौचालयों तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए व्यापक प्रयास किया।
1930 के आस- पास एक बार तीन देवदासी लड़कियों ने शरण के लिए उनका दरवाजा खटखटाया, तब उन्होंने महसूस किया कि तमिलनाडु में ऐसी लड़कियों के साथ साथ उम्रदराज देवदासी महिलाओं के लिए भी आवास की व्यवस्था होनी चाहिए और उन्होंने उनके लिए भी अव्वयी होम का निर्माण किया। आज इस तरह के होम में शिक्षण की भी व्यवस्था है और शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी। पहले यह सिर्फ देवदासियों के लिए आरक्षित होता था किन्तु आज इसके दरवाजे सबके लिए खुले हैं। उन्होंने देवदासियों के लिए बहुत किया क्योंकि वे खुद उसी समाज से जुड़ी थीं और उनके दुखों से परिचित थीं।
साल 1914 में जब डॉ. मुथुलक्ष्मी 28 साल की थीं तो उन्होंने डॉक्टर सुंदर रेड्डी से इस शर्त पर विवाह किया कि वे उनके साथ बराबरी का व्यवहार करेंगे और उनको अपने सपने को पूरा करने से कभी बाधा नहीं डालेंगे। डॉ. सुन्दर रेड्डी भी एक प्रतिष्ठित डॉक्टर और समाजसेवी थे तथा शादी के समय दिए गए अपने वचन का उन्होंने आजीवन पालन किया और हमेशा डॉ. पुथुलक्ष्मी का सहयोग किया। उनकी शादी भी 1872 के नेटिव मैरेज एक्ट के अनुसार हुई थी।
डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी सामाजिक असमानता, लिंग असमानता और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की दिशा में अपने प्रयासों के लिए देशभर में मशहूर थीं। वे तमिलनाडु के सरकारी अस्पताल में सर्जन के रूप में काम करने वाली पहली महिला भी थीं।
डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी के जीवन में एक ऐसा मोड़ आया, जिसने उन्हें अंदर से तोड़ दिया। कहा जाता है कि उनकी बहन की मृत्यु कैंसर की वजह से हो गयी थी। बहन को बढ़िया इलाज नहीं मिल पाने का दर्द उन्हें सालता रहा। डॉक्टर होने के नाते उन्होंने कैंसर के मरीजों की सहायता करने का फैसला किया। एक बड़ा कैंसर संस्थान का निर्माण उनका सपना था जिसे उन्होंने 1954 में साकार करके दिखा दिया।
डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी के अथक प्रयास से ही चेन्नई में अद्यार कैंसर इंस्टीट्यूट की नींव रखी गयी। इसकी नींव भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1952 में रखी थी।18 जून 1954 को यह अस्पताल विधिवत आरम्भ हो गया। 450 बेड का यह अस्पताल कैन्सर के रोगियों के लिए रिसर्च से लेकर इलाज तक की सभी सुविधाओं से पूर्ण है। आज यह भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कैन्सर अस्पतालों में से एक है। यहाँ प्रत्येक वर्ष हजारों मरीजों का इलाज किया जाता है।
डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी एक प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री, सर्जन, विधायिका और समाज सुधारक थीं। भारत की महिलाओं के अधिकारों के लिए वे आजीवन लड़ती रहीं और उनके संघर्ष का अनुकूल प्रभाव भी पड़ा। महिलाओं और बच्चों के अधिकार तथा उनके स्वास्थ्य की दिशा में उनके द्वारा किया गया कार्य हमेशा स्मरणीय रहेगा। वे अपना भाग्य स्वयं निर्मित करने वाली दृढ़ इच्छा शक्ति की महिला थीं। उन्होंने स्त्री की प्रगति के मार्ग में बाधा डालने वाले तमाम सामाजिक बन्धनों को स्वयं तोड़ा और आगे आने आने वाली महिलाओं के लिए भी उदाहरण बनीं।
डॉ. मुथुलक्ष्मी एक प्रतिष्ठित लेखिका भी हैं। ‘माई एक्सपीरिएँस एज ए लेजिस्लेटर’ उनकी चर्चित पुस्तक है। इस पुस्तक में उन्होंने अपने जीवन में किए गए संघर्षों के बारे में विस्तार से लिखा है। 22 जुलाई 1968 को 81 साल की उम्र में डॉ. मुथुलक्ष्मी रेड्डी का निधन हो गया। उनकी 133वीं जयंती के अवसर पर उन्हें सम्मान देते हुए गुगल ने इनका डूडल बनाया। तमिलनाडु सरकार ने उन्हें सम्मान देते हुए उनकी स्मृति में हर साल उनके जन्मदिन 30 जुलाई को ‘हॉस्पिटल डे’ मनाने का निर्णय लिया। वर्ष 1956 में सामाजिक क्षेत्र में किए गए उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।