राहत इंदौरी : प्रतिरोध की मुकम्मल आवाज़
जब से राहत जी ने अन्तिम सांस ली तब से सोशल मीडिया में उन पर बहुत लिखा जा रहा है। जिन्होंने उन पर कई तरह के आरोप लगाए थे, वे भी कटाक्ष करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। उन्हें फिरकापरस्त, जिहादी, सांप्रदायिक, राष्ट्रविरोधी और न जाने क्या-क्या कह रहे थे? वे भी उनकी लोकप्रियता के सम्मुख नतमस्तक हैं। कभी राहत जी ने कहा था कि उनके लहज़े में गुस्सा, गाली, नारा, शोर करने वाला और चीखने वाला आदमी कहा जाता रहा है। शायद मरने के पूर्व उनका एक शेर प्रचलित है। कोरोनावायरस की भारत यात्रा के बाद।
खामोशी ओढ़कर सोई हैं मस्जिदे / किसी की मौत का ऐलान भी नहीं होता।
यूँ तो उनकी शायरी की अनेक रंगतें हैं जैसे प्यार, मोहब्बत, प्रतिरोध, बगावत, और जीवन को समग्रता से देखने का माद्दा आदि। राहत जी ने यह भी कहा था कि जो लिख रहा है और बोल रहा है, उसे सोचना चाहिए कि उसका एक-एक लफ्ज़ समाज के काम आए। जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ वे प्रतिरोध की मुकम्मल आवाज़ रहे हैं। उनकी शायरी इसे जाहिर करती रही है और प्रमाणित भी। वे जीवन के प्रारंभ में चित्रकारी और पेंटिंग करते थे। बाद में उर्दू के प्राध्यापक बने। उनकी शायरी हिंदी उर्दू का द्वैत मिटाने वाली भर नहीं है बल्कि हमारे देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब और संस्कृति की वाहक भी बनी। उनकी शायरी धर्मनिरपेक्षता की मिसाल भी साबित होती है। उनके दो शेर अर्ज़ हैं –
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में/ किसी के बाप का हिन्दुस्तान थोड़ी है।
शाखों से टूट जाएं वो पत्ते नहीं हैं हम/ आंधी से कोई कह दे कि औकात में रहे।
मैं उनसे केवल एक बार मिला और आमने-सामने सुना है। फ़िल्मों में उनके गीत भी सुने। सोशल मीडिया में अखबारों में छपा पढ़ा। ज्यादा उपलब्ध रहे यूटयूब पर। जमकर सुना है। उनका शायरी पढ़ने का लहज़ा अद्भुत रहा है बेलौस, ठोस, जीवन्त। यदि प्रेमचंद कलम के सिपाही थे तो निश्चय ही राहत जी मुशायरों के लुटेरे और अल्फाजों के मुसाफिर। इनकी अदाएं, शेर पढ़ने का ढंग और उन्हें पेश करने का तरीका लाजबाव था। जनाब फिराक गोरखपुरी को और जनाब कैफ़ी आज़मी को भी मैनें साक्षात सुना है लेकिन राहत जी का अपीलिंग पावर गज़ब था। वे अपनी शायरी से श्रोताओं को कैसे जोड़ते थे। आकाश की ओर इशारा करना, पता नहीं श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाता था और आकर्षित भी। अचानक एक शेर याद आया। ऐसा लगता था कि अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए वे कितना ज़ोर लगा रहे हैं।
पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज/कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे।
वे सामाजिक चेतना जगाने वाली ऊर्जा के शायर हैं। उनकी शायरी सियासत के पाखंड और धूर्तताओं की हर सीवन उधेड़ने वाली है। बेख़ौफ़ आवाज़, अपने समय को अभिव्यक्त करने वाली विचार सम्पदा का अक्षय स्रोत। उन जैसी निडरता, साहस, संकल्प कम लोगों में ही होती है। इस दौर में मीडिया में केवल इस तरह की निडरता रवीश कुमार में है। अपनी कविता या शायरी की अदायगी के लिए वे लंबे अरसे तक पहचाने जाते रहेंगे। उनमें हर तरह की सत्ता से टक्कर लेने की कूवत रही है और प्रतिरोध की अपार क्षमता भी। जब नागरिकता के संदर्भ में पूरा देश खौल रहा था। तरह-तरह की लपटें उठ रही थीं। उस दौर में उनका शेर जनता की आवाज़ बना।
साथ चलना है तो तलवार उठा मेरी तर / मुझसे बुजदिल की हिमायत नहीं होने वाली।
वे ऐसा इसलिए कह सके कि उनमें सामाजिक चेतना का ताप रहा है। वे खुले खेल की चाहत वाले शायर रहे हैं। शायद एक कार्यक्रम में वे रीवा आए थे 2018 में। कृष्णा राजकपूर ऑडिटोरियम में। उनकी लोकप्रियता जनता और सम्भ्रान्त समाज में बहुत थी। जनता की ओर से उनके सुनने की बार-बार फरियाद की जा रही थी लेकिन आयोजक विलंबित कर रहे थे। आधे समय के बाद दर्शक उठ रहे थे। कितनी तालियाँ बजीं। काफ़ी अच्छी ग़ज़लें उन्होंने खूलूस के साथ सुनाई। वे हमेशा अपने समय पर हस्ताक्षर करना जानते थे। जनता की नब्ज़ के ज्ञाता भी थे। राहत खुलकर बोलते थे। कोई आगा-पीछा नहीं। कोई मुरौवत नहीं। सच है जनपक्षधरता के ख़िलाफ़ लामबन्द शक्तियाँ उन पर अनरगल टीका टिप्पणी करती रहीं। पूर्व में वे विचलित होते थे। बाद में उनका यही एटीट्यूट या रवैया बन गया।
सहजता को लोग जल्दी समझ कहाँ पाते हैं। नज़ीर अकबराबादी को पहले कहाँ समझा गया। राहत साहेब ने अपनी ज़िन्दगी में अनेक दौर देखे। फ़िल्मों के लिए गीत लिखे। जब समझ आया कि इस दुनिया में अपना गुज़ारा नहीं तो वहाँ से चल डगरे। यही घटना तो प्रेमचंद जी के साथ घटी थी। उनको सुनते हुए उनका खिलंदड़ा पन अच्छा लगा। कोई इसे उनका कट क्या था। उनकी आवाज़ में दम खम बहुत था। वे हमेशा अपनी शायरी में जनता की पक्षधर आवाज़ बने। उसी जनता को टेर ते,उसी की शक्ति को वाणी देने की कोशिश करते जिसमें अभूतपूर्व क्षमता होती है जिजीविषा होती है। वे जनता की बात को उजागर करने वाले जादूगर थे। दो अशआर मुलाहिजा करें।
बन के इक हादसा बाज़ार में आ जाएगा / जो नहीं होगा वो अख़बारों में आ जाएगा। अभी गनीमत है सब्र मेरा, अभी लबालब भरा नहीं हूँ / जो मुझको मुर्दा समझ रहा है, उससे कहो मैं मरा नहीं हूं।
जहाँ हमारे कुछ लेखक प्रतिरोध करना भूल गये हैं। वे जनता को ही छका रहे हैं। हम अदम गोंडवी दुष्यंत कुमार, बल्ली सिंह चीमा,निदा फ़ाज़ली जैसों को इसीलिए तो हमेशा स्मरण करते हैं।
राहत इंदौरी की शायरी ऐसा लगता है जैसे किसी फैक्ट्री से निकलती हो जो रूह की बेचैनी से ढलती है। वह गरजती भी थी और बरसती भी थी। उनके अशआर लोगों के दिलों में उतर जाया करते वे दिल के शायर थे मात्र मन के नहीं। उनकी शायरी में समूचा हिंदोस्तान धड़कता था। उनकी शायरी बोलती बतियाती भी थी और भेद भी खोलती थी। वे जितने बड़े मोहब्बत के शायर थे उससे बड़े सियासत की ग़लत करतूतों से टकराने वाले भी। उनकी शायरी हिंदोस्तान भर में नहीं थी वह दुनिया के अन्य मुल्कों भी बेधड़क गई। खुडपैचिए उन्हें जनता का सगा और सियासत का दुश्मन मानते थे। सत्ता भी उन्हें इस रूप में चिन्हित करती रही है। यही उनकी शायरी का गुण धर्म भी है।
पत्रकार रवीश कुमार की किताब है बोलना ही है। राहत इंदौरी इस बोलने और अपनी कहन को जनता के दिलों में लिखते थे और सीधे सियासत को चुनौतियां देते हैं। वे खोखले शायर नहीं रहे कभी भी। मुशायरों में उनकी बादशाहियत रही है। राहत के अल्फ़ाज़ खनकते भी थे। वे ध्वनियों प्रति ध्वनियों में नाचते भी थे क्योंकि वे जनता की समस्याओं और सच्चाइयों से निर्झर की तरह बह कर आए थे। सत्ता और सुविधाओं की गुफाओं से नहीं। वे पुरस्कारों की चाहत से नमूं नहीं हुए थे। जनता की चाहत और प्यार ने उन्हें इज्जत भी बख़्शी थी और मालामाल भी कर दिया था।
उनके कुछ शेर बंगी के तौर पे पढ़ें और गुनें।
यहीं के सारे मंज़र हैं, यहीं के सारे मौसम हैं/वो अंधे हैं जो इन आंखों में पाकिस्तान पढ़ते हैं/
मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना /खून से मेरी पेशानियों पे हिंदुस्तान लिख देना।
ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था /में बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था/
चरागों का घराना चल रहा है, हवा में दोस्ताना चल रहा है/नए किरदार आते जा रहे हैं, मगर नाटक पुराना चल रहा है।
यह भी पढ़ें- राहत सिर्फ राहत नहीं दिलों की चाहत भी थे..
राहत इंदौरी बहुत अर्थवान मार्मिक और जनता के सुकून को बयां कर रहे थे। नके लेखन में एक फकीरी अंदाज़ रहा है। मायानगरी में जब उन्हें लगा कि शब्द मर रहे हैं और और वे मुर्दों के साथ जी नहीं सकते तो उसे अलविदा कह दिया। उनका उत्साह देखते बनता था। अभी वे और अच्छा लिखते। लगता है वे अपने अधूरे काम छोड़ गये हैं। मुझे कवि विनोद कुमार शुक्ल की कविता का अंश याद आ गया। लगता है कोई पूरा नहीं होता। जो काम उन्होंने किया वह बेहद महत्वपूर्ण है। उनके शब्द हमारे पास उनकी धरोहर है। पहले विनोद जी की कविता।
कोई अधूरा पूरा नहीं होता/ और एक नया शुरू होकर/ नया अधूरा छूट जाता/ शुरू से इतने सारे/ कि गिने जाने पर भी/ अधूरे छूट जाते हैं/ परन्तु इस असमाप्त/ अधूरे से भरे जीवन को /पूरा माना जाए, अधूरा नहीं/ कि जीवन को भरपूर जिया गया।
राहत इंदौरी जनपक्षधर शायर रहे हैं और उनकी आवाज़ एकदम निर्भीक। मुशायरों में उनके अशआर प्रज्ज्वलित देदीप्यमान होते रहे हैं और सोच समझवालों को लगातार जागृत भी करते रहे हैं। उनकी शायरी जिन्दगी के प्यास की शायरी है। जिसमें प्रतिरोध की ज्वाला धधकती है। उनकी शायरी दिलो-दिमाग की आवाज़ है जो गूंजती हैं और प्रतिध्वनित होती है। ज़िन्दा शायरी के अमर सेनानी को सलाम।
.