यों तो प्रेमचंद जैसे कालजयी लेखक को तब तक नहीं भूला जा सकता है जबतक साहित्य से लोगों का नाता रहेगा। लेकिन उनके जन्मदिवस पर उनके साहित्य का स्मरण इसीलिए और भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि प्रेमचंद के साहित्य संबंधी विचार उनके समकालीन साहित्यकारों से अधिक तर्कपूर्ण थे। साहित्य के संबंध में प्रेमचंद का कहना था कि- “साहित्य उसी रचना को कहेंगे, जिसमें कोई सच्चाई प्रकट की गई हो, जिसकी भाषा प्रौढ़, परिमार्जित और सुंदर हो तथा जिसमें दिल और दिमाग पर असर डालने का गुण हो। उनका कहना था कि साहित्य में यह गुण पूर्ण रूप में उसी अवस्था में उत्पन्न होता है, जब उसमें जीवन की सच्चा्ईयां और अनुभूतियां व्यक्त की गई हो। तिलिस्मी कहानियों, भूत-प्रेत की कथाओं और प्रेम-वियोग के आख्यानों से किसी जमाने में हम भले ही प्रभावित हुए हों, पर अब उनमें हमारे लिए बहुत कम दिलचस्पी है। इसमें संदेह नहीं कि मानव-प्रकृति का मर्मज्ञ साहित्यकार राजकुमारों की प्रेम-गाथाओं और तिलिस्मी कहानियों में भी जीवन की सच्चाईयां वर्णन कर सकता है और सौंदर्य की सृष्टि कर सकता है। परंतु इससे भी इस सत्य की पुष्टि ही होती है कि साहित्य में प्रभाव उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि वह जीवन की सच्चाई का दर्पण हो।”
विभिन्न साहित्यकारों के द्वारा साहित्य की परिभाषाएं भिन्न-भिन्न दी गई है, परंतु प्रेमचंद के अनुसार साहित्य की परिभाषा “जीवन की आलोचना है। चाहे वह निबंध के रूप में हो, चाहे कहानियों के रूप में या काव्य के रूप में, उसे हमारे जीवन की आलोचना और व्याख्या करनी चाहिए।”
प्रेमचंद के द्वारा दी गई परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि उनके पहले जिस साहित्य की रचना हुई है, वह ज्यादातर मनोरंजन को ध्यान में रखकर रस प्रेम, श्रृंगारिकता, विलासिता पर लिखा गया। साहित्य और जीवन के संबंध में प्रेमचंद कहते हैं कि- “साहित्य का जीवन से कोई लगाव है, यह कल्पनातीत होता था। कहानी, कहानी है, जीवन, जीवन। दोनों परस्पर विरोधी वस्तुएं समझी जाती थी। कवियों पर भी व्यक्तिवाद का रंग चढ़ा हुआ था। प्रेम का आदर्श वासनाओं को तृप्त करना था और सौंदर्य का आँखों को। इन्हीं श्रृंगारिक भावों को प्रकट करने में कवि-मंडली अपनी प्रतिभा और कल्पना के चमत्कार दिखाया करती थी।”
साहित्यकारों ने साहित्य और मानव जीवन का जो संबंध था उनको कल्पना का समावेश कर अधिक लिखा गया है, जबकि प्रेमचंद साहित्य को जीवन का महत्वपूर्ण विषय मानकर, जीवन की आलोचना पर जोर देते हैं। वह कल्पनातीत न हो, बल्कि जीवन की सच्चाईयों पर आधारित हो। साहित्य का उद्देश्य यही होना चाहिए। प्रेमचंद साहित्य के उद्देश्य के संबंध में कहते हैं कि- “निस्संदेह काव्य और साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता बढ़ाना है, पर मनुष्य का जीवन केवल स्त्री-पुरुष प्रेम का जीवन नहीं है। क्या वह साहित्य, जिसका विषय श्रृंगारिक मनोभावों और उनसे उत्पन्न होने वाली विरह-व्य्ाथा, निराशा आदि तक सीमित हो- जिनमें दुनिया की कठिनाईयों से दूर भागना ही जीवन की सार्थकता समझी गई हो, हमारी विचार और भाव संबंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है? श्रृंगारिक मनोभाव मानव-जीवन का एक अंग मात्र है, और जिस साहित्य का अधिकांश इसी से संबंध रखता हो, वह उस जाति और उस युग के लिए गर्व करने की वस्तु नहीं हो सकता और न उसकी सुरुचि का ही प्रमाण हो सकता है।”
वास्तव में साहित्य का उद्देश्य, केवल स्त्री-पुरुष का जीवन नहीं है। साहित्य का उद्देश्य हमारी अनुभूतियों की तीव्रता को बढ़ाने के अलावा वर्तमान समाज और भविष्य के पथ प्रदर्शक का खोज करना होना चाहिए। इसलिए जिस समय साहित्य की रचना की जाती है, उस समय की परिस्थितियों का समावेश अवश्य ही होना चाहिए। “प्रेमचंद साहित्य में काल के प्रतिबिंब के सम्बन्ध में कहते हैं कि- “साहित्य अपने काल का प्रतिबिम्ब होता है जो भाव और विचार लोगों के हृदयों में स्पंदित करते हैं, वही साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं। ऐसे पतन के काल में लोग या तो आशिकी करते हैं या अध्यात्म और वैराग्यी में मन रमाते हैं। जब साहित्य पर संसार की नश्वरता का रंग चढ़ा हो और उसका एक-एक शब्द नैराश्य में डूबा, समय की प्रतिकूलता के रोने से भरा और श्रृंगारिक भावों का प्रतिबिंब बना हो तो समझ लीजिए की जाति, जड़ता और हास के पंजे में फँस चुकी है और उसमें उद्योग तथा संघर्ष का बल बाकी नहीं रहा। उसने ऊँचे लक्ष्यों की ओर से आँखें बंद कर ली है और उनमें से दुनिया को देखने-समझने की शक्ति लुप्त हो गई है।”
साहित्य का सरोकार अब व्यक्तिगत लाभ को लेकर या फिर मान-सम्मान-प्रतिष्ठा को लेकर अधिकांश लिखा जा रहा है। साहित्य का उद्देश्य जो दूरदर्शी होता था, वह कम दिखाई पड़ रहा है। शायद यही कारण है कि साहित्य के प्रति लोगों का रूझान धीरे-धीरे कम दिखाई पड़ता है। इसलिए साहित्य और नीतिशास्त्र का संबंध होना आवश्यक है। इस संबंध में प्रेमचंद का विचार है कि “नीति-शास्त्र तर्कों और उपदेशों के द्वारा बुद्धि और मन पर प्रभाव डालने का यत्न करता है। साहित्य ने अपने लिए मानसिक अवस्थाओं और भावों का क्षेत्र चुन लिया है। हम जीवन में जो कुछ देखते हैं या जो कुछ हम कर गुजरते हंै, वही अनुभव और चोटें कल्पना में पहुँचकर साहित्य-सृजन की प्रेरणा करती है। कवि या साहित्यकार में अनुभूति की जितनी तीव्रता होती है, उसकी रचना उतनी ही आकर्षक और ऊँचे दरजे की होती है। जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति और गति न पैदा हो हमारा सौंदर्य- प्रेम न जागृत हो, जो हममें सच्ची संकल्प और कठिनाईयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करे, वह आज हमारे लिए बेकार है, वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं।”
साहित्य में नीतिशास्त्र का पूर्ण रूप से समायोजन तब तक नहीं हो सकता, जबतक साहित्य रचना करने वाला व्यक्ति का उस समय का यथार्थनुभूति नहीं होती या फिर उसकी कल्पनातीत अनुभूति ऐसी होनी चाहिए, जिसमें वास्तविकता का दर्शन हो। तब कहीं साहित्य का नीतिशास्त्र के साथ न्याय हो सकता है। यह तभी संभव है जब लेखक के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभव हो। इस संबंध में प्रेमचंद कहते हैं कि- “आधुनिक साहित्य में वस्तुस्थिति चित्रण की प्रवृत्ति इतनी बढ़ रही है कि आज की कहानी यथासंभव प्रत्यक्ष अनुभवों की सीमा के बाहर नहीं जाती। हमें केवल इतना सोचने से ही संतोष नहीं होता कि मनोविज्ञान की दृष्टि से ये सभी पात्र मनुष्यों से मिलते-जुलते हैं, बल्कि हम यह इत्मीनान चाहते हैं कि वे सचमुच मनुष्य हैं और लेखक ने यथासंभव उनका जीवन-चरित्र ही लिखा है, क्योंकि कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में हमारा विश्वास नहीं है। उनके कार्यों और विचारों से हम प्रभावित नहीं होते। हमें इसका निश्चय हो जाना चाहिए कि लेखक ने जो सृष्टि की है, वह प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर की गई है और अपने पात्रों की जबान से वह खुद बोल रहा है।”
प्रत्युक्ष अनुभव के द्वारा लिखा गया साहित्य निश्चित तौर पर उपयोगी साबित होगी। लेकिन कल्पना के माध्यम मनोविज्ञान साहित्य की रचना का दूरदर्शी बोध होना चाहिए, तब कहीं जाकर कालजयी कृति की रचना संभव है। कालजयी कृति वही हो सकती है, जिसमें साहित्य का लक्ष्य समाहित हो।
साहित्य अपने-आप में कला है जो इस कला में जितना अधिक डूबेगा, उसको साहित्य में आनंद और जीवन का बोध मिल सकता है। जैसे- प्रत्येेक कार्य करने की एक भिन्न शैली होती है, ठीक वैसे ही साहित्य रचना भी एक कला है, जिसकी एक शैली होती है। कला के संबंध में प्रेमचंद के विचार हैं- “कला नाम था और अब भी है- संकुचित रूप पूजा का, शब्द योजना का, भाव निबंधन का। उसके लिए कोई आदर्श नहीं है, जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है। भक्ति, वैरागय, अध्यात्म और दुनिया से किनाराकशी उसकी सबसे ऊँची कल्पकनाएं हैं। हमारे उस कलाकार के विचार से जीवन का चरम लक्ष्य यही है। उसकी दृष्टि अभी इतनी व्यापक नहीं कि जीवन-संग्राम में सौंदर्य का परमोत्कार्ष देखे। उपवास और नग्नता में भी सौंदर्य का अस्तित्वह संभव है, इसे कदाचित वह स्वीकार नहीं करता। उसके लिये सौंदर्य सुंदरता, स्त्री में है, उस बच्चों वाली गरीब रूप रहित स्त्री में नहीं, जो बच्चों को खेत की मेड़ पर सुलाए पसीना बहा रही है। उसने निश्चय कर लिया है कि रंगे होंठो, कपोलो और भौंहों में निस्संदेह सुंदरता का वास है। उसके उलझे हुए बालों, पपड़ियाँ पड़े हुए होठों और कुम्हिलाए हुए गालों में सौंदर्य प्रवेश कहाँॽ”
साहित्य यदि एक कला है तो इस कला का निर्णय कैसे किया जाए कि यह उत्त़म साहित्य है या निम्नतम साहित्य है। साहित्य की कसौटी के संबंध में प्रेमचंद का विचार है कि- “हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।”
संदर्भ ग्रंथः-
- प्रेमचंद- कुछ विचार (साहित्य और भाषा संबंधी कुछ विचार), प्रकाशक-सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद, वर्तमान संस्करण- 1982, पृ0 सं0-6
- वही, पृ0 सं0-18
- वही, पृ0 सं0-9
- वही, पृ0 सं0-17
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