
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से यथार्थोन्मुख आदर्शवाद की ओर प्रवृत प्रेमचंद
उपन्यास लेखन के क्षेत्र में 1905 से 1936 तक के कालखण्ड को यदि हम एक युग मान लें तो यह युग प्रेमचंद युग कहा जाएगा। यद्यपि इसी काल में विशम्भर नाथ ‘कौशिक’ श्रीनाथ सिंह, शिवपूजन सहाय, राधिका रमन प्रसाद सिंह, गोविंद बल्लभ पंत, भगवती प्रसाद वाजपेयी, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ साथ उत्तर भारत के सीमांचल क्षेत्र में अनूप लाल मंडल जैसे उपन्यासकार भी हुए। अनूप लाल मंडल का भी रचनाकाल 1929 से 1945 तक रहा। 1929 में अनुपलाल मंडल का पहला उपन्यास निर्वासिता आया उपरान्त समाज की वेदी पर, साकी, रूपरेखा, ज्योतिर्मयी, मीमांसा, आवारों की दुनिया, दर्द की तस्वीरें, के अलावा ‘बुझने न पाए’ जैसे कुल नौ उपन्यास उपरोक्त उपन्यासकारों के साथ प्रकाशित हुए किन्तु प्रेमचंद उस काल के लिए एक मात्र प्रेमचंद ही रहे। और उनके उपन्यास लेखन को लेकर कालखण्ड में बंगला के प्रसिद्ध लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘उपन्यास सम्राट प्रेमचंद’ कहा।
प्रेमचंद का लेखन उस काल में आरम्भ हुआ जब हिन्दी के क्षेत्र में रहस्य, तिलस्म, जासूसी और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर उपन्यास अधिक लिखे गये थे और नवलेखन में छायावाद के जागरण का उदय हो चुका था। अलावे भाववेग, आदर्श प्रियता, राष्ट्रीयता भावना, स्वच्छता आदि की प्रवृतियाँ भी जागृत हो चुकी थी। इन्हीं सबों से प्रभावित, प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुख यथार्थवाद लेखन का आरम्भ किया। सेवासदन, वरदान, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला आदि उपन्यास इन्ही विचारों के उदाहरण हैं।
किन्तु लेखन का यह आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के प्रति आस्था जीवन के अंतिम दिनों में डगमगा गई और उनके विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। वे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को छोड़कर यथार्थोन्मुख आदर्शवाद की ओर प्रवृत्त हो गए। जिसका सबसे बड़ा उदाहरण 1936 में प्रकाशित ‘गोदान’ है। ‘गोदान’ के संबंध में सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. नरेंद्र ने कहा है -“गोदान कृषि जीवन का महाकाव्य है।”
प्रेमचंद के साहित्य में जब भाषा की बात आती है तो उनके उर्दू में लेखन की चर्चा की जाती है। उन्हें उर्दू का कथाकार भी कहा जाता है। उर्दू में लिखने की वजह उनकी शिक्षा भाषा को जाता है। बचपन में उनकी पढ़ाई मदरसे में मौलवी साहब के द्वारा हुई जो उर्दू और फारसी में थी। इस कारण उर्दू पर पकड़ स्वभाविक था। इसलिए उन्होंने उर्दू में ही कहानी और उपन्यास का लेखन आरम्भ किया।
हिन्दी में 1918 में प्रकाशित ‘सेवासदन’ को उनके उर्दू उपन्यास ‘बाजारे हुस्न’ का प्रथम हिन्दी रूपांतर माना गया है। बाद सभी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद हुआ। जैसे 1905 में ‘असरारे मुआविद’ का हिन्दी रूपांतर ‘देवस्थान का रहस्य’ और 1907 में ‘हमखुर्मा व हमसबाब’ जिसका हिन्दी रूपांतर ‘प्रेमा’ के नाम से हुआ। प्रेमा ही एक ऐसा उपन्यास था जिसे संशोधित कर पुन: 1929 में ‘प्रतिज्ञा’ के नाम से प्रकाशित किया गया। इस दृष्टि से देखा जाए तो ‘सेवासदन’ उनकी तीसरी कृति थी जो मूल हिन्दी उपन्यास नहीं था।
प्रेमचंद द्वारा लिखा गया प्रथम हिन्दी उपन्यास ‘कायाकल्प’ है जिसका प्रकाशन 1926 में हुआ। 1921 में प्रकाशित ‘वरदान’ जलवा ए ईसा का हिन्दी रूपांतर है। 1922 में प्रकाशित ‘प्रेमाश्रम’ उर्दू उपन्यास ‘गोशाऍ आफियत’ का हिन्दी रूपांतर है। यहाँ तक कि शासन के भ्रष्टाचार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई 1925 का रंगभूमि भी उर्दू उपन्यास ‘चौगाने हस्ती’ का हिन्दी अनुवाद है। 1925 के उपरान्त 1927 में नारी जीवन के अनमेल विवाह जैसे विषय को लेकर लिखा गया उपन्यास ‘निर्मला’ प्रकाशित हुई। ‘निर्मला’ नारी विमर्श आधारित वेश्या जीवन पर लिखा गया ‘सेवासदन’ के बाद का दूसरा उपन्यास था।
अब जहाँ तक प्रेमचंद के यथार्थोन्मुख आदर्शवाद लेखन की बात है तो इस ओर प्रवृत का आरम्भ 1931 में प्रकाशित ‘गवन’ से हुआ। गवन को ‘किशना’ के नाम से प्रेमचंद ने उर्दू में भी लिखा और प्रकाशित भी हुआ। इसके उपरान्त 1933 में ‘कर्म भूमि’ और 1936 में ‘गोदान’ उनका आखरी उपन्यास था। गोदान में पूर्णरूपेण यथार्थोन्मुख आदर्शवाद दिखता है। गोदान लिखने के क्रम में ही प्रेमचंद ने ‘मंगलसूत्र’ लिखना आरम्भ कर दिया था किन्तु उसे पूरा नहीं कर पाए। बाद में ‘मंगलसूत्र’ को उनके पुत्र अमृत राय ने 1948 में पूरा किया जो उनके जीवनकाल का एक अधूरा उपन्यास था।
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