प्रव्रजन एक जरूरत
कोरोना अपने आप में एक भयानक विश्वव्यापी त्रासदी है। दुनिया भर में इससे जुड़े रोंगटे खड़े कर देनेवाले प्रसंग और घटनाएँ सामने आयीं। भारत में दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, बेंगलुरु, सूरत, हैदराबाद आदि शहरों, रोजगार केन्द्रों से लाखों की संख्या में अपने देस, मूल स्थान को जैसे-तैसे लौटते मजदूरों, श्रमजीवियों ने इस त्रासदी को और गम्भीर और डरावना बना दिया। पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की वापसी यात्रा में भूख-प्यास से बेहाल दुर्घटनाओं का शिकार होते और रास्ते में दम तोड़ते, और तब भी चलते चले जाते इन मजदूरों के चित्रों ने दहलाकर रख दिया। मन में करुणा ही नहीं, आक्रोश भी उपजा कि आखिर इतना विशाल हमारा तन्त्र कहाँ है, वह इनकी मदद क्यों नहीं कर पा रहा। लेकिन आखिरकार सरकारें सक्रिय हुईं और ये श्रमजीवी अपने-अपने घर पहुँचे। इस घर वापसी को हम कोरोना-प्रव्रजन कह सकते हैं, अर्थात वह प्रव्रजन जिसे इस वायरस ने सम्भव किया।
यह भी एक प्रकार से बलात् प्रव्रजन ही था, जबकि इसे उचित ही ‘विपरीत प्रव्रजन’ यानी ‘रिवर्स माइग्रेशन’ (reverse migration) की परिघटना के रूप में चिन्हित किया गया जिसमें प्रव्रजक अपने रोजगार के स्थान से अपने मूल स्थान की ओर प्रव्रजन करता है। इस प्रकरण में जो बात बहुत खली, वह यह थी कि बन्दी (लॉकडाउन) लागू करते समय या उसके पहले केन्द्र सरकार को इस बात की कल्पना तक नहीं थी कि इसकी, बन्दी की ऐसी व्यापक देशव्यापी प्रतिक्रिया देश के मजदूर वर्ग की ओर से होगी जो न केवल इसकी छवि को खराब करेगी, बल्कि समूचे तन्त्र के लिए अभूतपूर्व चुनौती प्रस्तुत करेगी। कुछ लोगों ने इस प्रव्रजन की तुलना 1947-48 के भारत विभाजन के समय दोनों तरफ से लाखों की संख्या में अपने नये देश को लुटते-पिटते, मरते-मारते जाते लोगों से की। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि इतने व्यापक स्तर का प्रव्रजन इसके पहले उसी दौर में हुआ।
प्रव्रजन या आप्रवास एक सामान्य प्रक्रिया है जो मानव आबादी के एक स्थान अथवा क्षेत्र से दूसरे स्थान की ओर गतिशीलता में अभिव्यक्त होती है। प्रव्रजन का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं मनुष्य जाति का। खाद्य सामग्री तथा बेहतर जलवायु दशाओं की खोज, व्यापार एवं युद्ध अभियान प्रव्रजन के प्रमुख कारण रहे हैं। प्रव्रजन के कारण मानव आबादियों की अंतःक्रिया हुई है, मेलजोल बढ़ा है और एक विराट मानव संस्कृति का निर्माण हुआ है। आज मनुष्य समाज विकास के जिस स्तर तक पहुँचा है, उसके पीछे प्रव्रजन एक महत्वपूर्ण कारण है। आदि काल से ही मानव समुदाय अपनी जरूरतों के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहते चले आए हैं, यह स्थिति आज भी बनी हुई है।
भूमंडलीकरण भी वास्तव में इस परस्पर-निर्भरता का एक औपचारिक, मान्य तन्त्र है। देशों-समाजों की यह परस्पर-निर्भरता प्रव्रजन से भी सम्भव हुई है, चाहे वह स्थायी और एकरेखीय प्रव्रजन हो अथवा अस्थायी और चक्रीय। स्थायी प्रव्रजन में प्रव्रजक एक बार अपने मूल स्थान को छोड़ने के पश्चात वापस कभी वहाँ नहीं लौटता, यानी निवास करने के लिए नहीं लौटता। चक्रीय प्रव्रजन में प्रव्रजक बेहतर जीवन दशाओं अथवा अन्य कारणों से अन्य स्थान की ओर प्रव्रजन तो करता है लेकिन अपने मूल स्थान का त्याग नहीं करता, प्रव्रजन स्थान और मूल स्थान के बीच आवाजाही करता है।
आज की दुनिया में भी स्वेच्छा से प्रव्रजन कम होता है, बलात् प्रव्रजन (forced migration) ही अधिक होता है, यदि आबादी के आयतन के हिसाब से विचार किया जाए। युद्ध और अशांति के कारण दर-दर मारे-मारे फिर रहे, शरण की तलाश में शरणार्थी भी प्रव्रजक ही हैं, चाहे वे सीरिया, लीबिया या मध्यपूर्व के किसी अन्य देश के रहनेवाले हों या फिर होण्डुरास, ग्वाटेमाला, कोलम्बिया या मैक्सिको जैसे मध्य अमेरिकी देशों के। प्रव्रजक मैदान, पहाड़, रेगिस्तान ही नहीं, महासागरों को भी लाँघ जाते हैं। भारत से उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में रोजगार की खोज में चले प्रव्रजकों ने मॉरिशस और फिजी जैसे देश बनाए हैं। प्रव्रजकों ने धर्म-मजहब का भी प्रचार और विस्तार किया। यहाँ तक कि उपनिवेश भी बनाए।
मूल निवासियों को अपने अधीन करके – यूरोपीय प्रव्रजकों ने अफ्रीकी एवं एशियाई मूल निवासियों को पराजित कर इन देशों-महादेशों में अपने उपनिवेश बनाए। एक अनुमान के अनुसार सोलहवीं से बीसवीं शताब्दी के बीच के चार सौ सालों में कोई छह करोड़ यूरोपीय लोगों का समुद्री प्रव्रजन हुआ। ज्ञात इतिहास में सबसे बड़ा प्रव्रजन 1840 में शुरू हुआ माना जाता है, जिसे ‘ ग्रेट एटलांटिक माइग्रेशन’ कहा जाता है जिसमें यूरोप से उत्तरी अमेरिका की ओर बड़े पैमाने पर प्रव्रजन हुआ। 1880 ईस्वी में और वृहद पैमाने पर प्रव्रजन हुआ जिसमें पूर्वी एवं दक्षिणी यूरोप के लोग अंध महासागर पार करके संयुक्त राज्य अमेरिका गए। तब तक दो करोड़ से भी अधिक संख्या में यूरोपीय लोग अमेरिका पहुँच चुके थे। 1820 से 1980 के बीच, एक अनुमान के अनुसार, लगभग 3-7 करोड़ यूरोपीय अमेरिका में प्रव्रजन कर चुके थे। इस दौरान जत्थे के जत्थे यूरोपीय लोगों के, अमेरिका में प्रवेश करते रहे, उनका ताँता लगा रहा।
इस प्रव्रजन को महादेशीय अथवा समुद्री प्रव्रजन कह सकते हैं। इसके उदाहरण एशिया के अंदर भी दिखाई देते हैं। स्वयं भारतीय प्रव्रजकों ने व्यापार और साम्राज्य विस्तार के लिए पूर्वी एशिया के देशों – मलेशिया, थाईलैंड, इंडोनेशिया, कम्बोडिया आदि की राजनीतिक व्यवस्था एवं सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया। भारत स्वयं प्रव्रजकों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा है, चाहे वह आजीविका के लिए हो, धर्मप्रचार के लिए हो या फिर सम्राज्य विस्तार या उपनिवेश निर्माण के लिए। यहां मानव समुदायों, जातियों-प्रजातियों का महा-सम्मिलन हुआ।
उद्योग,औद्योगिक केन्द्र आधुनिक युग में पूरी दुनिया में प्रव्रजन का कारण और गंतव्य बने। उद्योगों, कल-कारखानों में प्रयुक्त मानव श्रम के सबसे बड़े स्रोत, हर कहीं, गाँव ही थे। भारत में यह दौर औपनिवेशिक शासन का था, जिसने गाँवों की आर्थिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता, आत्मनिर्भरता नष्ट कर दी थी। दस्तकारी, कुटीर उद्योग, ग्रामोद्योग विनष्ट हो गए थे, या हो रहे थे। किसानों पर लगान का भारी बोझ लाद दिया गया था जबकि खेती की उत्पादकता घट गयी थी। यह लम्बे सूखों, दुर्भिक्षों का भी दौर था, और महामारियों का भी। यहीं से किसान मजदूर बनने को मजबूर हुए। नजदीकी उद्योग केन्द्रों और शहरों में ही नहीं, दूर-दराज के बड़े शहरों – कोलकाता और मुंबई की ओर भी लोग आकृष्ट हुए और इन नगरों को बसाया और बढ़ाया। प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ का हलकू लाख अभावों और कठिनाइयों के बावजूद किसानी छोड़कर मजदूरी करने को तैयार नहीं होता।
यही हाल ‘गोदान’ के होरी का भी है, लेकिन अगली पीढ़ी के पास कोई चारा नहीं बचता और आखिरकार उसका पुत्र गोबर कलकत्ता की राह पकड़ता है। गोदान में किसान के श्रमिक बनने की परिघटना और उसके महत्व को प्रेमचंद बखूबी पहचानते हैं। तब से लेकर लगभग अस्सी सालों में यह परिघटना कितना व्यापक स्वरूप ले चुकी है, इसका तो इस कोरोना-प्रव्रजन के समय ही पता चला जबकि मजदूरों के हुजूम को सड़कों, और रेल पटरियों पर देखकर पूरा देश दहल गया। भारत में मजदूर वर्ग के आयतन का भी कुछ पता चला – यह तो प्रवासी मजदूर थे अपने घर लौटने को बेकल, मजदूरों की स्थिर आबादी से अलग, जो कि विपरीत प्रव्रजन कर रहे थे अपने काम के स्थान से मूल स्थान की ओर।
कोरोना संकट में विपरीत-प्रव्रजन कर रहे मजदूरों अथवा कामकाजियों की सबसे बड़ी संख्या उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों के लोगों की थी। इनमें से भी अधिकतर बिहार और उत्तर प्रदेश के थे। वास्तव में अंतर-राज्यीय प्रव्रजन का मुख्य स्रोत उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे हिन्दी प्रदेश हैं जो कुल प्रव्रजन के पचास प्रतिशत के लिए अकेले जिम्मेवार हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार दिल्ली और मुंबई पहुँचने वाले प्रव्रजकों की संख्या लगभग एक करोड़ (9-9 मिलियन) थी जो कि इन शहरों की कुल जनसंख्या 29-2 मिलियन की एक तिहाई थी। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जो प्रव्रजकों का मूल स्थान भी है और गंतव्य स्थान भी।
यदि हम केवल बिहार की बात करें तो यहाँ प्रव्रजन एक स्थाई प्रकृति और परिघटना है। जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पाने की विवशता में लोग, विशेषकर भूमिहीन मजदूर और सीमान्त व छोटे किसान परिवारों के लोग कोलकाता, मुंबई, पंजाब, हरियाणा, अहमदाबाद, सूरत, बेंगलुरू, चेन्नई आदि स्थानों के लिए प्रव्रजन करते रहे हैं। अस्सी के दशक के बाद रोजगार की कमी और आर्थिक गतिविधियों में संकुंचन से बड़े पैमाने पर प्रव्रजन होने लगा जिसके लिए ‘पलायन’ शब्द का प्रयोग किया गया। पलायन ‘बलात्-प्रव्रजन’ का ही पर्यायवाची माना जाना चाहिए। ऊपर जिन स्थानों की चर्चा की गयी, वहाँ बिहारी लोग केवल औद्योगिक मजदूरी के लिए ही नहीं गए, बल्कि कृषि- कार्यों में भी संलग्न रहे।
यही नहीं, आज भी देश के सुदूर अंचलों में वे दुष्कर कार्यों में लगे हैं। वे पहाड़ों में सुरंगें खोदते हैं, विषम जलवायु-परिस्थितियों में वे सीमाओं पर सड़कें बनाते हैं, बाड़ें लगाते हैं। वे उन दुर्गम क्षेत्रों में काम करने जाते हैं जहाँ कोई नहीं जाना चाहता। बिहार ‘पलायन की कमाई’ से पोसाता रहा है। यहाँ ‘मनीऑर्डर इकोनोमी’ की चर्चा होती रही है, पुराने छपरा जिले (सिवान, गोपालगंज सहित) में सबसे अधिक मनीऑर्डर आते थे, यह सामान्य ज्ञान में पूछा जाने वाला सवाल था कभी। बिहार से मध्य पूर्व व पश्चिम एशिया के तेल क्षेत्रों में भी लोग ‘कमाने ‘ जाते हैं, उनके ‘ तेल के पैसों ‘ से गाँवों में कुछ समृद्धि भी आई।
नब्बे के दशक से जबकि देश के अनेक राज्य नई आर्थिक नीतियों की बदौलत आगे बढ़ रहे थे, उनके यहाँ निवेश आ रहे थे, बिहार में इस ओर से आत्मघाती संकोच और निस्पृहता की प्रवृत्ति नेतृत्व और सत्ता केन्द्र पर तारी थी। शिक्षा और रोजगार की स्थिति जहाँ बेहतर होनी थी नई सामाजिक चेतना के उभरने के कारण, सामाजिक न्याय को जहाँ आर्थिक बेहतरी में प्रतिफलित होना था, बिहार गवर्नेंस और विकास के पैमाने पर गतिरोध और ठहराव का शिकार हो गया। इस दौर में अपराध, ‘अपहरण-उद्योग’ और जातीय नरसंहारों के कारण बिहार की ऐसी मध्ययुगीन पहचान बन रही थी जिसमें निजी निवेश का कोई प्रश्न ही नहीं था, उल्टे सरकारी निगम एवं संस्थान भी बैठते चले गए।
कई निजी उद्यम एवं व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने बाहर का रुख किया। इसी समय बिहार से न केवल गाँवों के मजदूर-किसान, बल्कि बड़ी संख्या में छात्रों, शिक्षित बेरोजगारों और छोटे-बड़े व्यापारियों का दूसरे राज्यों (बल्कि खाड़ी देशों तक में) प्रव्रजन शुरू हुआ। बिहार ‘पलायन’ के लिए भी कुख्यात हो गया। प्रव्रजित बिहारी ट्रेनों से लेकर विभिन्न शहरों में भेदभाव, अपमान और हिंसा का शिकार होते रहे। इन्होंने बिहार के बाहर एक समुदाय के रूप में पहचान बनाई। इसी बीच सन् 2000 में बिहार का बँटवारा भी हो गया। पूर्ववर्ती दक्षिणी बिहार, छोटानागपुर का पठार एक नये झारखण्ड राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
तब से लेकर अब तक बिहार में विभिन्न क्षेत्रों में अनेक बदलाव लक्षित किए गए। नब्बे के दशक के मुकाबले बिहार का योजना आकार कई गुणा बढ़ चुका है। जहाँ 1990-91 से 2004&05 के बीच कुल 35,264 करोड़ रुपये का बजट बना, वहीं 2006-07 से लेकर 2019-20 के बीच यह राशि 5,51,029 करोड़ हो गयी। अकेले 2020-21 के लिए 2,11,761 करोड़ रुपये का बजट प्रावधान किया गया है। बिहार की विकास दर भी वर्तमान में 6-7 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत की तुलना में 10 प्रतिशत से ऊपर ही रही है। इतना कुछ होने के बावजूद प्रव्रजन, या पलायन अब भी बदस्तूर जारी है। हर वर्ग, हर तबके का, प्रायः हर जिले से राज्य के बाहर पलायन!
जून 2020 के पहले सप्ताह तक ही लगभग 32 लाख बिहारी प्रव्रजक बिहार आ चुके थे, यह तो मानी हुई बात है कि शत-प्रतिशत मजदूर घर वापस नहीं आए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रवासी बिहारियों की संख्या कितनी बड़ी है। बिहार सरकार इनके घर वापसी के खिलाफ थी, लेकिन केन्द्र सरकार ने एक नीति के तहत जब इनकी वापसी की व्यवस्था की तो फिर कोई चारा नहीं रहा। बिहार सरकार का संकोच या विरोध दो कारणों से रहा होगा – पहला, इन प्रवासियों के चलते कोविड-19 का बड़े पैमाने पर प्रसार होगा जिससे निपटना असम्भवप्राय होगा क्योंकि ढाँचागत व्यवस्थाओं का अभाव है, और दूसरे, कि इनके लिए वैकल्पिक आजीविका का प्रबंध कैसे हो सकेगा? दोनों ही आशंकाएँ सही सिद्ध हुईं। 15 अगस्त आते-आते संक्रमित रोगियों की संख्या एक लाख के पार हो गयी, और लगभग 500 से अधिक रोगियों की मृत्यु हो गयी।
आज बिहार दस सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में शामिल है। सरकार प्रतिदिन 80 हजार से अधिक जाँच का दावा कर रही है। पटना सबसे अधिक प्रभावित जिला है जबकि सबसे अधिक चिकित्सकीय सुविधाएँ यहीं हैं। वैकल्पिक आजीविका बिहार सरकार के लिए बहुत बड़ी समस्या नहीं बनी। जून समाप्त होते न होते अपने-अपने नियोक्ताओं के कहने पर बिहारी मजदूर अपने काम पर वापस लौटना शुरू हो गए। जुलाई के मध्य तक, एक अनुमान के अनुसार, 6 लाख से ज्यादा मजदूर अकेले मुम्बई में अपने काम पर वापस आ चुके थे। केन्द्र सरकार के पैकेज और नकद सहायता, बिहार सरकार द्वारा एक हजार रुपये प्रतिमाह की सहायता और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से खाद्यान्न की आपूर्ति के कारण स्थिति बहुत बिगड़ने नहीं पाई।
बन्दी के समय में श्रमजीवियों को राशन कार्ड के अभाव में दूसरे राज्यों, स्थानों में खाद्य वस्तुओं के लिए अभाव और संकट का सामना करना पड़ा, उसे देखते हुए केन्द्रीय वित्त मन्त्री ने ‘एक देश एक राशन कार्ड’ की नीति की घोषणा की जो मार्च 2021 में लागू हो जाएगी। इससे प्रव्रजकों को देश के किसी भी कोने में सार्वजनिक विरण प्रणाली का लाभ मिल सकेगा, उन्हें खाद्यान्न का अभाव कभी नहीं हो सकेगा। कोरोना संकट में 2014-15 के दौरान खुलवाए गए जनधन बैंक खातों का आशातीत लाभ मिला जबकि सरकारी सहायता बिना किसी बिचौलिए या अन्य माध्यम के सीधे जरूरतमंदों के खातों में जमा हो गयी।
सवाल यह है कि लगभग दस करोड़ की जनसंख्या वाले एक छोटे से राज्य में जहाँ आबादी का घनत्व सबसे अधिक है, साढ़े तीन करोड़ लोग गरीब हैं, औद्योगिक अधिरचना का अभाव है, निजी निवेश अत्यल्प अथवा अपर्याप्त है, कृषि पर अत्यधिक दबाव है, उत्तरी क्षेत्र प्रतिवर्ष बाढ़ और दक्षिणी भाग प्रायः नियमित सूखे से ग्रस्त रहता है, कृषि आधारित उद्योगों में बढ़ोतरी (16-4 प्रतिशत) के बावजूद रोजगार की स्थितियों पर कोई प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता, जहाँ अब भी शत-प्रतिशत नामांकन सुनिश्चित नहीं किया जा सका न ही स्कूलों में छीजन ही रोका जा सका, जहाँ अधिकतर प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक-छात्र अनुपात अब भी सही नहीं है, जो राज्य मातृ एवं शिशु मृत्युदर में अब भी पिछड़ा है, जहाँ प्रायः प्रत्येक वर्ष महामारियों में सैंकड़ों जानें जाती हैं, जहाँ विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक डाक्टर प्रति एक हजार जनसंख्या के मुकाबले 43,788 लोग एक डाक्टर के जिम्मे हों – उस राज्य में प्रव्रजन रोकना क्या सचमुच प्राथमिकता हो सकता है?
या कि प्रव्रजन बिहार जैसे राज्य के लिए वास्तव में एक वरदान है! प्रव्रजन तो शिक्षा, स्वास्थ्य, आय, रोजगार, यहाँ तक कि कानून-व्यवस्था की दृष्टि से भी सरकारी व्यवस्थाओं और संसाधनों पर दबाव कम करता है, उल्टे परोक्ष रूप से राज्य की आय में योगदान ही करता है। फिर प्रव्रजन और पलायन को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों? क्यों नहीं केन्द्र और राज्य सरकारें प्रव्रजकों के लिए ऐसी नीतियां बनाएँ जिनसे उनके कामकाज और जीवन स्थितियों में सुधार हो, उनके अधिकारों और सुविधाओं के लिए न केवल स्रोत या मूल-राज्यों बल्कि गंतव्य-राज्यों को भी जिम्मेवार बनाया जाए। अगर सरकारें इस दिशा में पहले से सजग और इन श्रमजीवियों के प्रति संवेदनशील होतीं तो हाल के कोरोना-संकट के दौरान अपने नियोक्ताओं और सम्बन्धित सरकारों के हाथों अपमान और बेदखली का शिकार नहीं होना पड़ता। प्रव्रजक देश की अर्थव्यवस्था में अपना योग दे रहे हैं, केवल ‘ प्रवासी ‘ या ‘ बाहरी ‘ मानकर संकटकाल में या राजनीतिक अभियानों में उन्हें दुरदुराया नहीं जा सकता।
यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि प्रव्रजन अपने आप में कोई आदर्श स्थिति नहीं है। कहीं न कहीं यह आत्महीनता और परजीविता को प्रश्रय देता है। अपने मूल से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े रहने की मनुष्य की सहज प्रवृत्ति होती है। प्रव्रजन इसके विरुद्ध जाता है। स्रोत-राज्यों पर यह जिम्मेदारी बनती है कि वे ऐसी व्यवस्था करें जिसमें कम से कम मजबूरी में लोगों को बाहर नहीं जाना पड़े। बिहार में यह चुनौती बहुत विषम है – शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। वर्तमान में राज्य को लघु एवं कृषि आधारित उद्योगों के विकास पर अधिकाधिक ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। बड़ी पूँजी का आसरा छोड़ छोटी पूँजी से नये अर्थतन्त्र की रचना करनी होगी। इसमें आधुनिक प्रौद्योगिकी और तकनीक तथा ‘ स्टार्ट-अप्स ‘ जैसी पहलों का समुचित समावेश करना होगा। विकेन्द्रीकरण एक संभावना है, और तकनीक इसमें रुकावट नहीं है।
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