जो कविता से बड़ी कविताएँ होती हैं
मगर हिन्दी में लम्बी कविताओं की भी एक परम्परा है। बल्कि हिन्दी की परम्परा में जो महाकाव्य या खण्ड काव्य हैं, वे इतने लम्बे हैं कि उनसे पूरी किताब बन जाती है। मैथिलीशरण गुप्त की ‘साकेत’, जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ या रामधारी सिंह दिनकर के खण्ड काव्य- ‘रश्मिरथी’, ‘ऊर्वशी’ या ‘कुरुक्षेत्र’ इसके तत्काल याद आ जाने वाले उदाहरण हैं। निराला ने महाकाव्य नहीं लिखे, लेकिन ‘राम की शक्ति पूजा’ या ‘सरोज स्मृति’ पर्याप्त लम्बी कविताएँ हैं और उनमें जो उदात्तता है, वह उन्हें एक महाकाव्यात्मक आयाम देती है।
ऐसा नहीं कि लम्बी कविताएँ सिर्फ़ उस दौर में लिखी गईं, जब कविता का शिल्प मुख्यतः छंदोबद्ध था। निराला ने ही ‘जागो फिर एक बार’ जैसी लम्बी कविता छंद के आग्रह से लगभग मुक्त होते हुए लिखी। मुक्तिबोध की अधिकतर कविताएँ काफ़ी लम्बी हैं। शमशेर की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ या ‘अमन का राग’ भी छोटी कविताएँ नहीं हैं। अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’ भी एक लम्बी और महाकाव्यात्मक आशयों वाली कविता है। श्रीकांत वर्मा की भी कई कविताएँ पर्याप्त लम्बी हैं। विनोद कुमार शुक्ल का ज़िक्र ऊपर हो चुका है जिनकी किताब का नाम ही बताता है कि लम्बी कविता की दुनिया में वे विचरण करते रहे हैं। विष्णु खरे की कई कविताएँ लम्बी कविताओं की श्रेणी में ही चली आएँगी। बिल्कुल हाल में याद करें तो देवी प्रसाद मिश्र ने एक किताब बराबर लम्बी कविता लिख कर यह मिथक तोड़ दिया कि महाकाव्य पुराने ज़माने के छंदोबद्ध अभ्यास में ही लिखे जा सकते हैं। इसके अलावा भी उनके यहां कई लम्बी कविताएँ रही हैं।
लेकिन लम्बी कविताओं का ज़िक्र क्यों? क्या लम्बी कविताएँ छोटी कविताएँ से बड़ी भी होती हैं? यह बात कोई नासमझ ही कह सकता है। अधिकतम यह कहा जा सकता है कि लम्बी कविताओं में बहुपरतीय अर्थों और संदर्भों की बहुत गुंजाइश होती है, जबकि छोटी कविताएँ किसी एक बात, किसी एक भाव पर आकर टिक जाती हैं। बेशक, कई बार उनका असर काफ़ी वेधक और गहरा होता है।
लेकिन कोई कविता लम्बी और कोई छोटी क्यों होती है? क्या कवि पहले से तय कर लेता है कि वह ऐसी लम्बी या छोटी कविता लिखेगा? अगर वह ऐसा तय भी कर ले तो शायद कविता ही उसके प्रयासों का अतिक्रमण कर छोटी या बड़ी हो जाए। क्योंकि रचना सिर्फ एक पूर्व निर्धारित विचार का लिखित-सुनियोजित रूप नहीं होती, वह लगातार चलते एक द्वंद्व के बीच बनती है, वह लेखन के दौरान भी बनती-बदलती है। जिसे हम रचना प्रक्रिया कहते हैं, दरअसल वह रचना और रचयिता के बीच का द्वंद्व है- विषय और व्याख्याकार के बीच का घर्षण जिसके बीच से रचना निकलती है। मुक्तिबोध द्वारा व्याख्यायित सृजन के तीन क्षणों से हम परिचित हो चुके हैं। उनका एक लेख है- ‘एक लम्बी कविता का अन्त’। इसकी शुरुआत कुछ इस तरह होती है- ‘कल ही मैंने एक लम्बी कविता खत्म की। उसका अन्त मुझे शिथिल-सा जान पड़ा। उसके अन्त पर जितना अधिक सोचता गया, मुझे लगा कि उस कविता को और बढ़ाना होगा, कि वह अपने-आप ही बढ़ जाएगी। मुझे उसकी संभावित लंबाई-चौड़ा देख भय-सा जान पड़ा। भय इसलिए कि इतनी प्रदीर्घता हमारे यहां इतनी अच्छी नहीं समझी जाती।‘ आगे वे लिखते हैं कि कैसे यह कविता उन्हें लगातार परेशान कर रही है।
जाहिर है, कविता के आकार का वास्ता उसकी रचना-प्रक्रिया से भी है। लेकिन रचना-प्रक्रिया का वास्ता किस बात से है? उस संवेदना या विचार से, जिसे रचा जाना है। कई बार यह होता है कि कोई अनुभव बहुत स्पष्ट और चमकता हुआ होता है, जिसे एक बार में व्यक्त किया जा सकता है, जिसकी कौंध को संक्षिप्तियों में बचाया जा सकता है। लेकिन कई बार यह भी होता है कि रचना की कोई छटपटाती हुई रूह हमारे भीतर कहीं छुपी होती है, नज़र नहीं आती, बस हम उसे महसूस कर पाते हैं। जब हम उसे लिखते हैं तो अपने भीतर की परिक्रमा करते हैं, अपने अलग-अलग तहख़ानों को खोजते-खंगालते हैं, कहीं भीतर बसे पानी में उतरते हैं- कि जहाँ भी छुपा हो वह मोती जो महसूस तो हो रहा, दिख नहीं रहा, पकड़ में आ जाए। साफ़ है कि बहुत जटिल मनोविज्ञान से निकली हुई, बहुत अन्तस्तल में बसी हुई बेचैनी एक अलग तरह का मंथन मांगती है जिसके बीच कविता आकार लेती है। दरअसल ख़ुद मुक्तिबोध इस प्रक्रिया के सबसे बड़े उदाहरण हैं। उनकी लगभग सारी कविताएँ एक गहरी बेचैनी और वेदना से निकली जान पड़ती हैं- उल्लास वाली कविताओं में भी वेदना का एक संपुट महसूस किया जा सकता है।
इस सिलसिले में विचार करने लायक एक प्रश्न और है- हालांकि उसके उत्तर भी बार-बार दिए जाते रहे हैं। छंदोबद्ध रचना-विधान की विदाई और महाकाव्यों का अन्त किस प्रक्रिया का हिस्सा रहे? क्या वे इसलिए चले गए कि आधुनिक समय की जटिलता को संजोने का सामर्थ्य उनमें नहीं था? या आधुनिक मन ही इस तरह बदल गया कि वह किसी भी छंद-विधान को अपने लिए अनुपयुक्त पाने लगा? लेकिन अगर ऐसा है तो हमें छायावादी कविताएँ क्यों याद रहती हैं? या अपने समय के बहुत जटिल अनुभवों को भी व्यक्त करने के लिए हम ग़ालिब या मीर के अशआर का सहारा क्यों लेते हैं?
यह तर्क यह साबित करने के लिए नहीं दिया जा रहा कि छंदोबद्ध या गेय कविता को छोड़ कर हमने कोई भूल की है- जैसा कई नवगीतकार या ग़ज़लें लिखने (कहने) वाले महसूस भी करते हैं और इसकी शिकायत भी करते हैं। इसका मक़सद बस यह समझने की कोशिश करना है कि कविता चाहे जिस हद तक भी निजी अभिव्यक्ति हो, एक सीमा के बाद वह अपने समाज, अपनी सार्वजनिकता से भी संचालित होती है। क्योंकि अन्ततः कविता एक अनुभव है- वह अनुभव जीवन के अलावा कहीं और से नहीं मिलता। हर दौर का अपना एक मिज़ाज होता है और हमारे इस बेडौल समय का मिज़ाज ऐसा नहीं कि छंदों में समा जाए। जो छंद में समाता है, जो गेयता के दायरे में आता है, वह दिलचस्प हो सकता है, मनोरंजक हो सकता है, कहीं-कहीं विचार और संवेदना का वाहक भी हो सकता है, लेकिन इस गान से वह कविता नहीं निकल सकती जिसमें हमारे समय का ख़ून, हमारे बदन का पसीना, हमारे पांवों के नीचे की मिट्टी और हमारे चारों ओर फैली हवा के रंग, निशान, ख़ुशबू और एहसास सब शामिल हों।
लम्बी कविताओं पर लौटें। लम्बी कविताएँ एक साथ कई काम करती हैं। उनमें एक तरह की औपन्यासिकता होती है। उनमें बड़े मूल्यों तक उठने की एक पूरी प्रक्रिया दिखती है- कई बार वह किसी सुघड़ कवि के हाथ में आकर बेहद उदात्त और मानवीय हो उठती है। उनका होना हमारे जीवन और अध्ययन में उस लम्बी सांस का होना है जो आम धुकधुकी के बीच बन रही कविताओं में नहीं मिलती। लिखते-लिखते अचानक शमशेर बहादुर सिंह की ‘अमन का राग’ की कुछ पंक्तियां उद्धृत करने का मोह जाग रहा है। शायद यह टिप्पणी इन पंक्तियों से कुछ सुंदर और सार्थक हो उठे-
‘देखो न हक़ीक़त हमारे समय की जिसमें
होमर एक हिन्दी कवि सरदार जाफ़री को
इशारे से अपने क़रीब बुला रहा है
कि जिसमें
फ़ैयाज़ खाँ बिटाफ़ेन के कान में कुछ कह रहा है
मैंने समझा कि संगीत की कोई अमर लता हिल उठी
मैं शेक्सपियर का ऊँचा माथा उज्जैन की घाटियों में
झलकता हुआ देख रहा हूं
और कालिदास को वैमर कुंजों में विहार करते।‘
देशकाल को अतिक्रमित करती शमशेर बहादुर सिंह की यह कविता कहां तक जाती है? उसके पास बहुत उजला- बल्कि इंद्रधनुषी स्वप्न है। कविता की आगे की पंक्तियां हैं-
‘आज मैंने गोर्की को होरी के आंगन में देखा
और ताज के साए में राजर्षि कुंग को पाया
लिंकन के हाथ में हाथ दिए हुए
और ताल्स्ताय मेरे देहाती यूपियन होंठों से बोल उठा
और अरागों की आंखों में नया इतिहास
मेरे दिल की कहानी की सुर्खी बन गया
मैं जोश की वह मस्ती हूं जो नेरूदा की भवों से
जाम की तरह टकराती है
वह मेरा नेरुदा जो दुनिया के शांति पोस्ट आफ़िस का
प्यारा और सच्चा क़ासिद
वह मेरा जोश कि दुनिया का मस्त आशिक़
मैं पंत के कुमार छायावादी सावन-भादों की चोट हूं
हिलोर लेते वर्ष पर
मैं निराला के राम का एक आंसू
जो तीसरे महायुद्ध के कठिन लौह पर्दों को
एटमी सुई-सा पार कर गया पाताल तक
और वहीं उसको रोक दिया
मैं सिर्फ एक महान विजय का इंदीवर जनता की आंख में
जो शांति की पवित्रतम आत्मा है।
इन पंक्तियों के सम्मान में यह टिप्पणी यहीं खत्म की जाती है- इस इसरार के साथ कि यह पूरी कविता ज़रूर पढ़ें।