अस्तित्वगत संघर्ष का प्रतिदर्श : नियमगिरि
दक्षिण-पश्चिमी ओडिशा में स्थित नियमगिरि पर्वत डोंगरिया कोंध और कुटिया कोंध का मुख्य रहवास है। वो इन पहाड़ों पर खेती (डोंगर चास) करके अपना जीविकोपार्जन करते हैं। इन आदिवासी समूहों का संकेन्द्रण यहाँ कब हुआ इसका ठीक-ठीक अनुमान लगाना मुश्किल है। डोंगरिया कोंध ऐसा मानते हैं कि उनका अस्तित्वबोध इस पहाड़ से जुड़ा हुआ है। डोंगरिया कोंध आदिवासियों का ऐसा मानना है कि इन पहाड़ों के शीर्ष पर इनके आदिदेव नियमराजा निवास करते हैं। इस आदिवासी समूह का ऐसा मानना है कि नियमराजा, डोंगरिया कोंध आदिवासियों के जीवन-यापन की सारी सामग्री उपलब्ध कराते हैं।
इस पहाड़ से सैकड़ों बरसाती और सदाबाहर झरनों की निष्पति होती है। नियमगिरि पहाड़ दो प्रमुख नदियों का उद्गम स्थल है जिसका नाम क्रमशः नागबली और वंशधारा है। इसी नागबली और वंशधारा के जल से आसपास के लाखों लोगों को आवयश्क जलापूर्ति होती है। हालाँकि वंशधारा नदी के उद्गममंडल को वेद्नता एलुमिना कम्पनी के अपमार्जन इसे बुरी तरह प्रदूषित कर देती है लेकिन नागबलि नदी की शुद्धता अभी बरकरार है। नियमगिरि के तलहटी में बसने वाले ग्रामीण समुदाय इस पर्वत से निकलने वाले नदियों और नालों पर सुबह-दोपहर-शाम एकत्रित होते हैं और अपने दैनिक क्रियाकलापों को पूर्ण करते हैं।
इन्ही जल श्रोतो के आसपास लोग धान इत्यादि के फसल की सिंचाई करते हैं। नियमगिरि के जंगलों में आदिवासी हल्दी, कटहल, संतरा, नीम्बू, केला, अनानास की खेती करते हैं। साथ ही अन्न के रूप में मंडिया, दलहन में अरहर (कांदुल) इत्यादि का उत्पादन कर अपना भरण-पोषण करते हैं। जंगल के उत्पाद जैसे साल के पत्ते, जलावन की लकड़ियाँ, इमली, आम, माटी आलू इत्यादि को जमा कर ये आसपास के बाजारों जैसे कि मुनिखल (मुनिगुडा), चाटीकोना, हाट मुनिगुडा, लंजिगढ़, त्रिलोचनपुर इत्यादि बाजरों में उसकी बिक्री करते हैं। इन विक्रय से जो धन की प्राप्ति होती उसका सदुपयोग डोंगरिया कोंध, घर की आवयश्क जरूरतों की पूर्ति के लिए करते हैं। आप जब मुनिगुड़ा के बाजारों में घुमने निकलेंगे तो डोंगरिया आदिवासी खुबसूरत झाड़ू बेचते हुए नजर आ जायेंगे।
डोंगरिया कोंध की सामाजिक-धार्मिक संरचना
डोंगरिया कोंध आदिवासियों में संयुक्त और एकल परिवार दोनों मिलते हैं। इस समुदाय में संगोत्रिय विवाह का निषेध है। डोंगरिया समुदाय सामाजिक रूप से वर्ग और उपवर्ग में विभाजित हैं। इन वर्गीय विभाजन को कुडा और पूंजा के नाम से जाना जाता है। जानी, पुजारी, दिसारी और मंडल ये चार पूंजा की छोटी इकाई है। जबकि कुडा डोंगरिया कंध के मुख्य वर्गों का द्योतक है। डोंगरिया कोंध के मुख्य नाम के साथ इनके कुडा के रूप में उपनाम जुड़ा होता है। कई वर्गों का समूह एक गाँव में साथ रहते हैं।
डोंगरिया कोंध बहुदेवतावादी होते हैं। प्रत्येक कुल (वर्ग) के अपने कुलदेवता होते हैं। लेकिन धरती माता (धारिणी पेनू) के प्रति सबकी सामान आस्था होती है। कंध पशु बलि को मेरिया पर्व के रूप में मनाते हैं। इनके उपवर्ग धार्मिक क्रिया कलाप में निपुण होते हैं। ऐसे निपुण पात्रों को जानी पुजारी, दिसारी, पेजू, पेजुनी के नाम से जाना जाता है। इनके धार्मिक रीती-रिवाजों में महिलाओं की भूमिका प्रमुख होती है। शादी-विवाह और अन्य मासिक पर्वों को ये लोग सामूहिकता में मनाते हैं। डोंगरिया कोंध की सबसे बड़ी पहचान सामुहिकता में अभिव्यक्त होती है। उत्सवों में सलप को पेय पदार्थ के तौर पर ग्रहण किया जाता है। सलप के पौधे नियमगिरि के पहाड़ में यत्र-तत्र उगे होते हैं, इससे निःसृत द्रव्य हल्का मादक होता है।
डोंगरिया कोंध का स्वाभाव
डोंगरिया कोंध आदिवासी बहुत ही अंतर्मुखी और शांत चित्त के होते हैं। बाजारों में ओडिया लोगों से संतुलित व्यवहार करते हैं। माथे पर झाड़ू, हल्दी, माटी आलू इत्यादि को लेकर घूमने वाले ये आदिवासी गैर-आदिवासी व्यापारियों की तरह दुकान-दुकान चक्कर नहीं काटते और ना ही किसी के सामने सामान खरीद लेने की जिद करते हैं। मोलभाव करने की सारी जिम्मेदारी क्रेताओं की होती है, अगर इन्हें उचित दाम मिला तो यह सामान बेच देते हैं नहीं तो बिना किसी तीव्र प्रतिक्रिया के आगे निकल जाते हैं। मैंने एक बार एक डोंगरिया महिला को बेचने के लिए लाये उत्पाद को वापस गाँव ले जाते देखा।
मैंने ओडिया में उनसे संवाद करने का प्रयास किया तो उनका उत्तर नहीं आया लेकिन पास ही खड़े एक ग्रामीण ने बताया कि स्तरीय दाम से कम में ये अपने उत्पाद नहीं बेचते हैं। हालाँकि ऐसा कम ही होता है। डोंगरिया अपने उत्पादों को बेच कर जब अपने घर पहुँचते हैं तो उनके चेहरे पर एक संतुष्टि का भाव रहता है। बहुत कष्ट उठाकर ये समाज जंगल से बाजार और बाजार से जंगल का सफ़र करते हैं। मुझे लगता है कि डोंगरिया कोंध के उत्पादों का इन्हें उचित मूल्य नहीं मिलता है। उदाहरण के लिए जो झाड़ू डोंगरिया थोक के भाव में 35 रूपये का बाजार में व्यापारियों को बेचते हैं, उसी झाड़ू को बाजार में आम क्रेता 45 से कम कीमत में नहीं खरीद सकते और भुवनेश्वर के बाजारों में ऐसे झाड़ू 70 से 80 रूपये का बिकता है।
कमोबेश यही हाल जलावन की लकड़ी से लेकर इमली और हल्दी के साथ भी होता है। वस्तुतः डोंगरिया समाज इस बात से वाकिफ हैं कि उनके उत्पादों को उचित मूल्य नहीं मिलता है, वो इनका हृदयगत दुःख भी रखते होंगे लेकिन दृश्यमान जगत में इनके प्रकटीकरण को जान पाना असंभव है। डोंगरिया कोंध एक उत्सव जीवी समुदाय है। नियगिरी पर्वत की धीरता आपको प्रत्येक डोंगरिया के चेहरे पर दिख जायेगा। डोंगरिया कोंध एक बहुत ही शालीन और निरपेक्ष समुदाय है। इनकी निर्दोषिता को कुछलोग पिछड़ापन मान लेते हैं। लेकिन ये एक दुर्लभ मित्रता निभाने वाला समुदाय है। इनका अतिथियों के प्रति असीम सत्कारबोध एक चकित करने वाला मानवीय व्यवहार है। हालाँकि उग्रता का प्रदर्शन इनका मूल स्वाभाव नहीं है लेकिन विभिन्न प्रकार के बाहरी अतिक्रमण ने इनके मन में शंका और उग्रता का संचार किया है।
शिक्षा और गरीबी का हेत्वाभास
मेरी नजर में डोंगरिया कोंध एक प्रकृतिजीवी समुदाय है। यह समुदाय मानवीय अस्तित्व की एक अविस्मर्णीय धरोहर है। जब मैंने एक डोंगरिया कोंध पुरुष से शिक्षा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि “हम प्रकृति का अध्ययन करते हैं, ये पवन, आकाश, जल, जमीन, पर्वत, वनस्पतियाँ यही हमारे शिक्षक हैं” यहाँ मै उस समय अचंभित हो गया जब एक छोटा सा डोंगरिया बालक मुझे आसपास की वनस्पतियों के बारे में सटीक जानकारी दे गया। मै सटीकता की बात इस आधार पर कर रहा हूँ क्यूंकि मैंने वनस्पति शास्त्र से स्नातक किया है और नियमगिरि प्रवास से पहले मैंने इसके फ़्लोरा-फौना का गंभीरता से अध्ययन किया था।
क्या ऐसा प्रकृतिबोध की आवाज आज के अंग्रेजीदा बालकों के मुख से सुन सकते हैं? यह कोई हास्यस्पद बात नहीं है एक बार मै एक बच्चे से पूछा कि “आटा” कहाँ से निकलता है, तो उस बच्चे ने उत्तर दिया प्लास्टिक के बोरे से। इस व्याख्या से शिक्षा कौन सी हितकारी है इसका अंदाज़ा आपको लग जाना चाहिए। चूँकि डोंगरिया एक राष्ट्रिय धरोहर हैं अतः इनकी भाषा-बोली, रहवास और संस्कृति के प्रति लोगों को संवेदनशील होना चाहिए।
रही बात गरीबी की तो एक बहुत वाजिब बात मै बताना चाहता हूँ। डोंगरिया कोंध का घर धन-धान्य से परिपूर्ण रहता है। गरीबी का विमर्श मेरी दृष्टि से एक विरोधाभासी तथ्य है। जिन्होंने डोंगरिया कोंध को मिडिया विमर्शों में देखा है, जिन्होंने इस समुदाय को आंकड़ों में देखा है, जो डोंगरिया घरों को हाउस होल्ड से तत्वों में विभाजित कर सांख्यकीय लफ्फाजी करते हैं, वो बेशक उन्हें गरीब देखेंगे ही। डोंगरिया कोंध वर्ष भर कृषि कार्यों में व्यस्त रहते हैं। और यह वाजिब सवाल है कि अगर यह समुदाय वर्षभर कृषि सहित अन्य वनोपज कार्यों में तल्लीन नहीं रहते तो नियमगिरि के साप्ताहिक बाजारों का अस्तित्व ही क्यूँ होता? इनके वनोत्पाद की श्रेणी बहुत वृहद् है। जिसकी चर्चा यहाँ संभव नहीं है। अतः गरीबी और शिक्षा का विमर्श एक हेत्वाभास मात्र है। इसका निवारण विशुद्ध चेतना और गंभीर शास्त्रीय मानववैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही संभव है।
विपत्ति का सम्यक संधान
उपरोक्त कथनों के माध्यम से हमने देखा कि नियमगिरि पर्वत, संकटग्रस्त अल्पसंख्यक डोंगरिया कोंध आदिवासी के लिए एक पर्वतों का समुच्चय न होकर, दैहिक-दैविक और भौतिक इकाई है। लेकिन इसी पहाड़ को वैश्विक पूँजी के पिछलग्गू और अल्पकालिक लाभ से प्रेरित संस्थान बॉक्साइट की एक खदान मात्र मानते हैं। ऐसे नवपूँजीवाद से प्रेरित व्यक्तियों का मन इसकी जीवंतता के प्राण हर लेने का सनातन लक्ष्य हर हमेशा प्रेरित करता रहता है।
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इसी क्रम में नियमगिरि को भी ओडिशा माइनिंग कम्पनी और वेदांता एलुमिना कंपनी ने तबाह करने के लक्ष्य से प्रेरित हुए। संघर्ष लम्बा चला, इस क्रम में कुछ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे डोंगरिया कोंध के प्राण भी न्योछावर हो गये। कुछ आन्दोलनकारियों को लगातार प्रशासनिक उत्पीडन का शिकार होना पड़ा। लेकिन वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने वेदांता एलुमिना को नियमगिरि से बॉक्साइट माइनिंग को निषेध करने का निर्देश जारी किया। डोंगरिया कोंध, कुटिया कोंध, दलित और अन्य जागरूक नागरिकों के द्वारा निष्पादित इस आन्दोलन से हतप्रभ होकर सुप्रीम कोर्ट ने इस संघर्ष को डेविड और गुलियथ कहकर सैद्धान्तिकरण किया था। वस्तुतः वर्ष 2013 में संघर्ष का अंत नहीं बल्कि एक संघर्ष विराम हुआ था।