जननायक कर्पूरी ठाकुर और मेरा युवा मन
मेरे विद्यार्थी जीवन में बिहार के जिस राजनेता का नाम ईमानदारी के जीवंत मिसाल के रूप में लिया जाता था वो कोई और नहीं स्वतंत्रता सेनानी, समाजवादी नेता और बिहार के दो बार मुख्यमन्त्री रहे कर्पूरी ठाकुर थे। यद्यपि अपने प्रिय नेता कर्पूरी ठाकुर से कभी भी व्यक्तिगत तौर पर मिलने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला लेकिन उनकी ईमानदार राजनीतिज्ञ और जननेता की समाजवादी छवि समाचार पत्र, पत्रिकाओं तथा रेडियो के समाचारों तथा उनके जनसभाओं के भाषणों से मेरे युवा मन मस्तिष्क में अंकित होती रही और स्वच्छ राजनीति समझ बनी। खादी की धोती-कुर्ता, आंखों पर चश्मा और बिखरे बाल में कर्पूरी ठाकुर दूर से एक साधारण सा व्यक्ति दिखाई देते थे किन्तु जनता से संवाद की भाषा उन्हें पल में ही एक असाधारण व्यक्तित्व बना देती थी।
उनकी सरल भाषा, सहज शैली, विचार की स्पष्टता और ओजस्वी वाणी युवाओं के दिलों को छू जाती थी। ऐसा लगता था कि उनके मुख से निकले शब्द हृदय की गहराइयों से निकल रहे हैं जिसका सीधा असर हम युवाओं के ऊपर जादू का काम करता था। आगे चलकर समाजवादी विचार के प्रति मुझमें आकर्षण और उसमें विश्वास को बढ़ाने में समाजवादी नेता मधु लिमये के अलावे कर्पूरी ठाकुर की सादगी, ईमानदारी और समाज में छोटे तथा भूमिहीन किसानों, मजदूरों और कमजोर व पिछड़े लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का विशेष योगदान रहा। यद्यपि मेरे परिवार में समाजवादी नेता मधु लिमये का चाचा जी से दोस्ती के कारण कभी कभी आना होता था क्योंकि मधु लिमये दो बार मुंगेर के लोकसभा क्षेत्र के सांसद थे किन्तु कर्पूरी ठाकुर बिहार के प्रसिद्ध समाजवादी नेता होने के कारण हम युवा विद्यार्थियों के स्वाभाविक नायक थे।
बिहार में कांग्रेसी सरकार के खिलाफ 1974 के विद्यार्थी आन्दोलन के समय हम हाई स्कूल के छात्रों ने भी मुंगेर जिला हाई स्कूल संघर्ष समिति बना लिया था और टाउन हाई स्कूल के छात्र के रूप में मुझे मुंगेर जिला स्कूल संघर्ष समिति का सचिव बना दिया गया था। बिहार छात्र आन्दोलन में समाजवादी नेताओं का योगदान तो महत्त्वपूर्ण था ही किन्तु इसमें कर्पूरी ठाकुर तथा रामानंद तिवारी जैसे लोकप्रिय तथा ईमानदार समाजवादी नेताओं की प्रेरणा ने युवाओं में उत्साह भरने में निर्णायक भूमिका निभाई थी। युवाओं में कर्पूरी ठाकुर की सादगी और ईमानदारी की बातें नयी ऊर्जा फूंक देती थी। हम युवाओं को हमेशा कर्पूरी जी का यह प्रसिद्ध कथन याद रहता था – अधिकार चाहो तो लड़ना सीखो, पग पग पर अड़ना सीखो, जीना है तो मरना सीखो।
कर्पूरी ठाकुर की एक और महत्त्वपूर्ण विशेषता थी उनका आर्थिक दृष्टि से निर्धन अपने परिवार और स्वजन की चिंता न करके सदैव समाज के गरीबों और पिछड़ों के हक के लिए संघर्षरत रहना, भूमिहीन किसानों और मजदूरों के हितों को अपने राजनैतिक संघर्ष के केंद्र में बिहार जैसे जातिवादी समाज में एक अति पिछड़ी नाई जाति का होकर भी यदि वे बिहार की राजनीति में अपना विशिष्ट स्थान बना पाये तो यह जातिवादी सामाजिक सोच को बदलने की उनकी ईमानदार कोशिश का ही नतीजा था।
डॉ लोहिया के प्रभाव से हिन्दी के प्रति प्रेम और अँग्रेजी का विरोध उनकी राजनीति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता था। इतना ही नहीं उस समय बिहार सेकेंडरी विद्यालय बोर्ड द्वारा मैट्रिक परीक्षा में पास होने के लिए विद्यार्थी को अँग्रेजी में पास होना अनिवार्य था जिसके कारण बहुत सारे गरीब और पिछड़े इलाके के विद्यार्थी मैट्रिक में सभी विषयों में पास होने के बावजूद फेल हो जाते थे। कर्पूरी ठाकुर स्वयं अति पिछड़े समूह तथा क्षेत्र से आने के कारण अँग्रेजी की अनिवार्यता से उत्पन्न परेशानी को भलीभांति समझते थे इसलिए 1967 में लोहिया की गैरकांग्रेसवाद की चुनावी रणनीति के बाद बिहार में भी जो संविद सरकार बनी उसमें कर्पूरी ठाकुर ने उपमुख्यमन्त्री के साथ शिक्षा मन्त्री बनने के बाद मैट्रिक परीक्षा में पास होने की अँग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। यद्यपि समाज के तथाकथित अँग्रेजी प्रेमी बुद्धिजीवियों ने कर्पूरी ठाकुर के इस निर्णय की बड़ी आलोचना की और कहना प्रारंभ किया कि इससे बिहार के विद्यार्थी देश के स्तर पर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तथा विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं में पीछे रह जायेंगे। इतना ही नहीं विरोधियों ने इस डिग्री को कर्पूरी डिवीजन कहकर इसका उपहास उड़ाया किन्तु इन तमाम आलोचनाओं को भी कर्पूरी ठाकुर ने निर्विकार भाव से ग्रहण किया किन्तु अपने निर्णय पर अटल रहे।
समाज की पिछड़ी जातियों के शैक्षणिक तथा आर्थिक विकास के लिए कर्पूरी ठाकुर का योगतान इतिहास के पन्नो में अमिट हो गया है। यद्यपि दक्षिण के राज्यों में पिछड़े समूहों को शिक्षा और नौकरी में आरक्षण था किन्तु देश के स्तर पर नेहरू सरकार द्वारा पिछड़े वर्ग के लिए सरकारी शिक्षण संस्थाओं तथा सरकारी नौकरी में आरक्षण के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए काका कालेलकर आयोग बनाने के बावजूद आरक्षण सम्बन्धी सुझाव लागू नहीं हो पाये किन्तु कर्पूरी ठाकुर सरकार ने 1978 में बिहार में पिछड़ी जातियों व समूहों को सरकारी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण देने के लिए भोला पासवान शास्त्री के मुख्यमन्त्री काल में निर्मित मुंगेरीलाल आयोग के सुझाव पर बिहार में पिछड़ी जातियों के लिए 26 प्रतिशत सरकारी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था को लागू कर इतिहास बनाया।
इतना ही नहीं 26 प्रतिशत आरक्षण को दो हिस्सों में बांटकर पिछड़ा और अतिपिछड़ा को आरक्षण का लाभ देने की अधिक व्यवहारिक नीति को अपनाया। यद्यपि कर्पूरी ठाकुर को समाज के पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू करने के कारण पार्टी के अंदर और बाहर बहुत विरोध का सामना करना पड़ा और अंततः मुख्यमन्त्री का पद 1979 में गवाना पड़ा किन्तु उन्होनें अपने विचारों और मूल्यों से समझौता नहीं किया। यहाँ यह ज्ञात रहे कि मोरारजी देसाई की जनता पार्टी की सरकार ने 1978 में बिहार के नेता बिंदेश्वरी मंडल की अध्यक्षता में समाज के पिछड़ी जातियों व वर्ग के लिए सरकारी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षा और सरकारी नौकरी में आरक्षण पर विचार करने लिए एक आयोग का गठन किया था किन्तु आगे चलकर जनता पार्टी की सरकार अपने आंतरिक कलहों तथा आर.आर.एस. की दोहरी सदस्यता के सवाल के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी और लोकनायक जे.पी. ने जिस जनता पार्टी का गठन तत्कालीन गैर कांग्रेसी और गैर वामपंथी पार्टियों के विलय के बाद किया था और देश में इंदिरा की तानाशाही को निर्वाचन में हराकर भारत में लोकतन्त्र की रक्षा की थी उसका अवश्य असमय दुखद अंत हो गया।
शिक्षित बेरोजगारी की समस्या का समाधान करने के लिए वे हमेशा चिंतित रहते थे और यही कारण था कि उन्होंने दूसरी बार मुख्यमन्त्री रहते हुए बिहार के तकनीकी डिप्लोमा और इंजीनियरिंग किए हुए बेरोजगार युवाओं को 1979 में एक ही बार में ही न्युक्ति पत्र देकर नौकरी दे दी जो देश के इतिहास में अद्भुत घटना है। मुझे याद है मेरे बड़े भाई तथा उनके कई मित्र जो कई साल पूर्व पॉलिटेनिक संस्थान से डिप्लोमा लेकर बेरोजगार बैठे थे अपने भविष्य को लेकर कितने चिंतित रहते थे। इतना ही नहीं उन जैसे हजारों डिप्लोमा तथा इंजीनियरिंग किए बेरोजगार परेशान थे। तब कर्पूरी ठाकुर सरकार ने उन बेरोजगार युवाओं को अपने एक निर्णय से पटना के गांधी मैदान में न्युक्ति पत्र समारोहपूर्वक वितरित कर उनके जीवन में खुशियों का संचार कर दिया। उस समय मेरे परिवार में भाई के साथ पूरे परिवार की खुशी का कारण कर्पूरी ठाकुर सरकार के साहसिक निर्णय ही थे।
कर्पूरी ठाकुर जीवनभर ईमानदारी का जीता जागता प्रमाण बने रहे। घोर आलोचक भी उनकी ईमानदारी पर अंगुली उठाने का साहस नहीं दिखा पाते थे। समाजवादी विचार और मूल्य उनके जीवन, वचन और कर्म में मानों रच बस गए थे। लोहिया के अनन्य सहयोगी और लोकनायक जे. पी. तथा आचार्य नरेंद्र देव के सच्चे अनुयाई कर्पूरी ठाकुर को बिहार की जनता ने प्यार से जननायक का सम्मान दिया है।
कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में जे. पी. आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी और आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसके मुख्य किरदारों में एक थे। यही कारण है कि बिहार में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमन्त्री बने।
कर्पूरी ठाकुर ऐसे समाजवादी नेता थे जिनका सम्मान विरोधी भी करते थे। 17 फरवरी को 1988 में जननायक कर्पूरी ठाकुर संसार से एक ऐसी विरासत छोड़कर विदा हो गए जो बिहार ही नहीं बल्कि भारत के इतिहास में अमिट अक्षरों में अंकित हो गया है। आज बिहार ही नहीं पूरा भारत जननायक कर्पूरी ठाकुर की जन्मशताब्दी मनाकर अपने जननायक को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है।