हस्तक्षेप हमेशा राजनीति से ही नहीं होता
विनोद अनुपम से सुशील भारद्वाज की बातचीत
बिहार की धरती पर पले-बढ़े विनोद अनुपम ने हिन्दी विषय से स्नात्तकोत्तर करने के बाद एफ.टी.आई.आई. पुणे से फिल्म एप्रिसिएशन में सर्टिफिकेट ग्रहण किया। 1988 में बेस्ट यूथ राइटर का राज्यस्तरीय पुरस्कार पाने वाले विनोद अनुपम को 2002 में बेस्ट फिल्म क्रिटिक के लिए नेशनल फिल्म अवार्ड प्रदान किया गया। 65वीं नेशनल फिल्म अवार्ड में जूरी मेम्बर के रूप में अहम भूमिका निभाने के अलावे ये बिहार संगीत नाटक अकादमी के सचिव भी रहे हैं। इसके अतिरिक्त ये विभन्न फिल्म संस्थान के सदस्य रहे हैं। पटना कलम, राजभवन संवाद, गोरैया, बिहार समाचार एवं उधावना आदि पत्रिका का सम्पादन इन्होंने किया।
आपने दूरदर्शन के कुछ धारावाहिक के लिए पटकथा भी लिखी है। लगभग तीन दशक से आप प्रभात खबर, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, आज, कथादेश, पाखी, इण्डिया टुडे, सारिका, गंगा, वर्तमान साहित्य, सन्डे इन्डियन, दैनिक भास्कर, अमर उजाला, आदि पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म समीक्षा, आलेख आदि लिख रहे हैं। सत्यजीत राय पर केन्द्रित बातचीत के कुछ अंश।
-
आपने सत्यजीत राय की सबसे पहली फिल्म कौन-सी देखी?
मैंने कौन-सी फिल्म देखी, महत्त्वपूर्ण यह नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि भारत में सिनेमा का कोई भी विद्यार्थी सिनेमा पढने, समझने, सीखने की शुरुआत सत्यजीत रे की ही फिल्मों से करता है। हम भी जब सिनेमा समझने के ख्याल से पटना, प्रकाश झा की संस्था “अनुभूति” द्वारा आयोजित ‘फिल्म भाषा और तकनीक’ की कार्यशाला में पहली बार भाग लेने आये, तो सत्यजीत रे ने ही सिनेमा का ककहरा सिखाने को उंगली थामी। फिल्म थी पथेर पंचाली, तब से यह फिल्म न जाने कितनी बार सामने आयी, शायद सौ से भी अधिक बार, लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि खत्म होने के पहले हट गये। पथेर पंचाली की यही खासियत है, आपको किसी इमोशनल कविता की तरह बांधे रखती है। ब्लैक एण्ड व्हाइट उस छोटी सी फिल्म को देखने के बाद वही नहीं रह जाते, जो आप होते हैं। फिल्म आपको बदल देती है, आप थोडे और ज्यादा संवेदनशील, थोडे और विनम्र, थोडे और खूबसूरत इंसान बन जाते हैं। मेरा तो मानना है कि एटनबरो की गाँधी की तरह इस फिल्म को भी बार बार दिखाया जाना चाहिए। ताकि हर पीढी इसके इमोशन को महसूस कर सके।
-
सत्यजीत राय की किस फिल्म ने आपको सबसे अधिक और किस रूप में प्रभावित किया?
देखिए, बेस्ट आफ द बेस्ट चुनना काफी मुश्किल होता है। सत्यजीत रे ने सिनेमा को एक सार्थकता दी, एक प्रतिबद्धता दी। उनकी फिल्मों में प्रस्तुति और तकनीकि विविधता भले ही दिखती है, प्रतिबद्धता से समझौता वे नहीं करते। चाहे बच्चों के लिए ही वे क्यों नहीं फिल्म बना रहे हों? या पारस पत्थर जैसी फंतासी, दर्शकों को तो वही पहुँचता था जो वे पहुँचाना चाहते थे। जाहिर है उनकी हर फिल्म आपको प्रभावित करती है, मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि जब आप सद्गति देखते हैं तो पथेर पंचाली को याद नहीं करते, जब शतरंज के खिलाडी देखते हैं तो जलसाघर को याद नहीं करते। यह सत्यजीत रे की माध्यम, समय और समाज तीनों के प्रति गम्भीर समझ के कारण सम्भव हो पाता है।
लेकिन इस सबके बीच पथेर पंचाली जिस तरह कम्युनिकेट करती है, वह उस फिल्म को विल्क्षण बना देती है। छोटे छोटे दृश्यबंध अपने आप में पूरी कथा लेकर आते हैं। इसकी सबसे बडी खासियत इसकी गीतात्मकता या कहें लिरिकल होना भी है। सत्यजीत रे बंगाल के एक समाज के सबसे अंतिम पंक्ति के एक परिवार के दुख को सार्वभौमिक बना देते हैं। यह हालांकि इसी क्रम में बनी तीन फिल्मों की ट्रायलाजी का पहला अंश है, लेकिन दुनिया के दुख के अहसास के लिए मैं इसे के जरुरी फिल्म मानता हूँ।
-
वर्तमान सिनेमा पर सत्यजीत राय के प्रभाव को किस रूप में देखते हैं?
सत्यजीत रे से किसी ने पूछा था, आप किसके लिए फिल्में बनाते हैं। रे साहब ने बेहिचक कहा था, अपने लिए। उन्होंने आगे कहा था, शब्द अलग हो सकते हैं, बात यही थी कि जब तक आप अपने से ईमानदार नहीं होंगे, दर्शकों से भी ईमानदार नहीं हो सकते। उन्होंने कहा था कि फिल्म मेरे सौन्दर्यबोध पर खरी उतरेगी तभी दर्शकों के सौन्दर्यबोध को भी सन्तुष्ट कर सकती है। दर्शकों की पसन्द को ध्यान में रखकर हम अपने सौन्दर्यबोध को कमतर नहीं कर सकते। इस सन्दर्भ में यदि वर्तमान सिनेमा को देखें तो निराशा होती है। मुख्यधारा की अधिकांश फिल्में दर्शकों की पसन्द को ध्यान में रख कर बन रही है। अब तो स्थिति यह है कि वह दर्शक भी आज सिनेमा व्यवसाय से गौण हो गये हैं, तकनीक ने सिनेमा वितरण के तमाम ढाँचे को ध्वस्त कर दिया है। ऐसे में सिनेमा से जीवन गायब हो गया है, जो सत्यजीत रे की फिल्मों का आधार था। फिल्में अब भी बन रही हैं, क्यों बन रही, किसके लिए बन रही, यह सिनेमा के एजेंडे में है ही नहीं। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि सत्यजीत रे साहब को हमने सम्मान तो काफी दिया, लेकिन उनसे सीखा कुछ भी नहीं। वैसे यह भारतीय समाज की आदत में शुमार है, रामचरित मानस और गीता के साथ भी तो हमने यही किया, रखा, पढा नहीं, पढा तो सीखा नहीं।
-
सत्यजीत राय ने हिन्दी से अधिक बांग्ला में फिल्में बनायी, कम बजट की फिल्में बनायी और सफल रहे। इसे आप किस रूप में देखते हैं?
यही तो सत्यजीत रे थे। हिन्दी में उन्होंने मात्र दो फिल्म बनायी, एक दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म सद्गति और दूसरी शतरंज के खिलाडी। ये फ़िल्में उन्होंने हिन्दी में इसलिए नहीं बनायी कि उन्हें एक पैन इण्डियन आइडेंटिटी चाहिए थी, हिन्दी का बडा बाजार चाहिए। ये फिल्में उन्होंने इसलिए बनायी कि वे प्रेमचन्द की कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे, और उन्हें लगता था प्रेमचन्द हिन्दी में ही बेहतर तरीके से कहे जा सकते हैं। गौरतलब है कि सत्यजीत रे हिन्दी में सहज नहीं थे, उन्होंने किसी बातचीत में कहा भी, यदि मैं हिन्दी जानता तो शतरंज के खिलाडी और भी बेहतर बन सकती थी। सत्यजीत रे बांग्ला भाषा, बांग्ला समाज, बांग्ला संस्कृति को बेहतर समझते थे, उन्होंने अपनी फिल्में बांग्ला में बनाना तय किया और उसी समय यह मनवाया कि जो जितना लोकल होगा, वहीं ग्लोबल होगा। ग्लोबल होने के लिए न तो भाषा से दूर होने की जरुरत है, न ही परिवेश से। सबों को पता है आस्कर अवार्ड भी उन्हें कोलकाता उनके घर पर प्रदान किया गया। यह तमाम क्षेत्रीय भाषा के फिल्मकारों के लिए याद रखने की बात है कि सिनेमा के लिए भाषा की सीमा नहीं होती, आप किसी भी भाषा में बेहतर करेंगे तो उसे स्वीकार्यता मिलेगी ही मिलेगी।
-
बजट की चर्चा छूट गयी..
जी, सही याद दिलाया। सत्यजीत रे एक अलग तरह की परिकल्पना के साथ आये थे। लार्जर दैन लाइफ की जगह, जीवन जैसा है, वैसा ही दिखे। जाहिर है कोई भी प्रोड्यूसर उनके लिए जोखिम उठाने को तैयार नहीं था। उन्होंने अपनी जमा पूँजी से पथेर पंचाली की शुरुआत की। कह सकते हैं पथेर पंचाली के बजट जैसा कुछ था ही नहीं, उन्होंने पूरी फिल्म कागज पर बना ली, ताकि शूटिंग के समय, समय और संसाधन की कम से कम बरबादी हो। पथेर पंचाली की निर्माण प्रक्रिया युवा फिल्मकारों को अवश्य पढनी चाहिए, कि संसाधन कभी फिल्ममेकिंग में बाधा नहीं बनती। कहते हैं एक सीन में टाप ऐंगल शाट लेना था, बजट में क्रेन की सुविधा नहीं थी, रे साहब ने अपने कैमरामैन सुब्रतो मित्रा को पेड पर चढ शाट लेने की सलाह दी। शाट उसी तरह लिया गया, और दर्शक क्रेन का अभाव महसूस तक नहीं कर सके।
खास बात यह कि सफलता मिलने के बाद भी रे साहब ने फिल्म के बजट पर अपना यही दृष्टिकोण कायम रखा। पथेर पंचाली के बजट पर एक और दिलचस्प तथ्य है कि बाद में जब पोस्ट प्रोडक्शन के लिए पैसे खत्म हो गये तो उन्होंने राज्य सरकार को मदद की अर्जी दी। उस समय राज्य सरकार के पास सिनेमा को सहयोग के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधान चंद्र राय उनकी मदद भी करना चाहते थे, तो उनके अधिकारियों ने एक रास्ता निकाला फिल्म का नाम चूंकि पथेर पंचाली है, इसीलिए पथ निर्माण विभाग को मदद करने कहा जा सकता है, और वही हुआ, पथ निर्माण विभाग की मदद से फिल्म पूरी हुई।
-
सत्यजीत राय के फिल्म में किसी विचार धारा (राजनीतिक) का प्रभाव दिखता है?
देखिए भीमसेन जोशी के गायन में आप कौन सी राजनीतिक विचारधारा ढूंढेगे? बिरजू महाराज के नृत्य में क्या विचारधारा? ये वास्तव में भारत में वामपंथियों का पाखंड फैलाया है कि हर चीज के पीछे राजनीति होती है। देश के बौद्धिक जगत पर उनका इतना लंबा प्रभाव भी रहा कि हम मान कर चलते हैं, सबकुछ राजनीति से तय होती है। ऐसा होता नहीं। सत्यजीत रे की फिल्में हमारे दुख के साथ खडी हैं। आज भी, इसमें क्या राजनीति? एक बार संसद में मनोनीत सदस्य नरगिस ने यह सवाल उठाया कि सत्यजीत रे अपनी फिल्मों में गरीबी प्रदर्शित कर देश की छवि खराब कर रहे हैं। अब देश में गरीब हैं, ब्राह्मण भी गरीब हैं, सत्यजीत रे ने दिखाया तो क्या नेहरु जी की पंचवर्षीय योजनाओं पर पानी फिर गया? भाई, गरीबी में भी हमेशा राजनीति नहीं होती, उनकी संवेदनाएं होती हैं, उनके परिवार होते हैं, उनकी खुशियां होती हैं, इसमें कोई राजनीति नहीं होती। सत्यजीत रे ने हमेशा संवेदनाओं की बात की अपनी फिल्मों में, और संवेदना किसी राजनीति की मोहताज नहीं होती। नक्सलवाद की बात नहीं की उन्होंने अपनी फिल्मों में क्या कुछ कम रहा। कुछ लोग कहते हैं इमरजेंसी के दौर में वे बच्चों की फिल्में बनाने लगे थे, हां बनायी, लेकिन हीरक राजर देश देख लीजिए, समझ जाइएगा हस्तक्षेप हमेशा राजनीति के हथियार से ही नहीं किया जा सकता।
-
सत्यजीत राय ने कभी किसी संस्थान से कोई ट्रेनिंग नहीं ली बाबजूद इसके वे एक सफल फिल्मकार बने। आपके विचार से एक सफल फिल्मकार बनने के लिए प्रशिक्षण का क्या औचित्य है?
यह सही है कि सत्यजीत रे ने किसी संस्थान से सिनेमा नहीं सीखा था, लेकिन उन्होंने जहाँ से सीखा, वह किसी भी संस्थान से कहीं बडा, बहुत बडा है। सत्यजीत रे को साहित्य के संस्कार अपने पिता से मिले, उनके पिता सुकुमार राय बांग्ला के प्रतिष्ठित लेखक रहे। सत्यजीत रे की रूचि कला में थी, इन्होंने साहित्य के साथ अपने का ग्राफिप डिजाइनर के रुप में विकसित किया। जैसा कि होता है साहित्य हर कलाविधा की बुनियाद को सशक्त बनाने में सहायक होता है। सत्यजीत रे ने कई किताबों के आवरण डिजाइन किये। पथेर पंचाली से उनाका पहला साबका भी तब हुआ थो जब वे विभूति भूषण वंद्योपाध्यय के इस उपन्यास के बाल संस्करण के लिए आवरण और चित्र बनाये। उनकी यही विशेषता ने बाद में उनकी फिल्मों की पटकथा को भी विशिष्ट पहचान दी। जहाँ तक फिल्ममेकिंग की बात है, कोलकाता में जां रेनआं अपनी फिल्म द रिवर की शूटिंग के लिए आये थे, यहीं रे साहब ग्राफिक डिजाइनर के रुप में जुडे। रेनुआं ने दृश्यों को विजुआलाइज करने की उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें फिल्म बनाने को प्रेरित किया। सीखने का सबसे बेहतर तरीका होता है, जो जहाँ मिले वहीं से सीख लें। सत्यजीत रे ने यही किया।
फिल्ममेकिंग जैसी विधा के लिए प्रशिक्षण का औचित्य तो है ही। यह कला के साथ विज्ञान भी तो है। सबों के जीवन में सत्यजीत रे जैसे सीखने के अवसर तो नहीं आ सकते, ऐसे में एक बेहतर संस्थान की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। क्या आश्चर्य कि पुणे के बाद दूसरा फिल्म संस्थान सत्यजीत रे के नाम पर ही कोलकाता में खोला गया।
-
दादा साहब फाल्के और सत्यजीत राय की परम्परा/ संस्कृति को आगे बढ़ाने की क्षमता किस फिल्मकार में आप देखते हैं?
देखिए, ऐसा कुछ होता नहीं है। फिल्में समय से संवाद करती बनती हैं। यह भी गौरतलब है कि वही फिल्म और फिल्मकार कालजयी होते हैं, जिन्होंने अपने समय और समाज को बेहतर तरीके से प्रदर्शित किया हो। आज भी मदर इण्डिया यदि हमें उतनी जीवंत लगती है तो उसका कारण उस समय से कनेक्ट करना है। दादा साहब फाल्के ने सिनेमा के आरंभिक दौड में 125 फिल्में बनायी, उनमें से लगभग सभी या तो धार्मिक या ऐतिहासिक कथानक पर थी। यह उस दौर की माँग थी, जरुरत थी। रे साहब ही लगातार बढते रहे, उनकी फिल्म पथेर पंचाली के साथ जलसाघर या चारुलता देखें, एकदम अलहदा फिल्म लगेगी, उनकी बच्चों की फिल्म देखें सोनार केल्ला, एकदम अलग। एक और बात जो उल्लेखनीय है, किसी भी कला पर परम्परा के निर्वहन की जिद नहीं लादनी चाहिए। पटना कलम समय के साथ अप्रासंगिक होकर खत्म हो गयी। हरेक फिल्मकार अपनी पहचान के साथ विकसित हो, हमारे लिए खुशी की बात यह होनी चाहिए। हां, सत्यजीत रे और दादा साहब फाल्के से जो सीख सकते हैं, वह है उनकी ईमानदारी, अपने दर्शकों और अपनी विधा के प्रति उनका कनविक्शन।
-
सत्यजीत रे ने अधिकांश फिल्में साहित्यिक कृति पर बनायी, एक बेहतर सिनेमा के लिए कितना जरुरी मानते हैं आप साहित्यिक आधार?
यह सही है कि विभूति भूषण वंद्योपाध्याय और सत्यजीत रे के संयोग ने जो चमत्कार दिखाया उसे दुनिया भर का कला जगत नजरअन्दाज नहीं कर सका और सर आँखों पर बिठाया। सत्यजीत रे की फिल्मों को देखते हुए यह तय करना मुश्किल होता है कि यदि विभूति भूषण वंद्योपाध्याय, रमाशंकर गंगोपाध्याय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, सुनील गंगोपाध्याय जैसे साहित्यकार उन्हें नहीं मिले होते तो सत्यजीत रे सत्यजीत रे होते या नहीं। लेकिन यह भी सच है कि ऋत्विक घटक बगैर किसी विभूति के भी ऋत्विक घटक ही रहे। हिन्दी में कमलेश्वर और सावन कुमार टाॅक का लम्बा सान्निध्य कोई भी उल्लेखनीय फिल्म नहीं दे सका जबकि यही कमलेश्वर गुलजार के साथ ‘आंधी’ और ‘मौसम’ जैसी महत्त्वपूर्ण फिल्म दे सके। वास्तव में बेहतर सिनेमा के लिए बेहतर साहित्य की बाध्यता भले ही नहीं हो, लेकिन बेहतर साहित्य को फिल्माने के लिए बेहतर फिल्मकार की बाध्यता अनिवार्य है। सत्यजीत रे कहते थे किसी किताब को पढने के बाद मैं शून्य से शुरु करता हूँ। मतलब वह पूरी की पूरी फ़िल्मकार की कृति होती है। किसी बातचीत में गुलजार साहब ने कहा था, किसी भी साहित्यिक कृति पर कोई अच्छी फिल्म नहीं बन सकती, जब तक इसके निर्देशक का मानसिक स्तर बड़ा, सुलझा हुआ, रचनात्मक और समझदारी भरा न हो।
-
विश्व सिनेमा के पितामह माने जाने वाले महान फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने रे के लिए कहा था, सत्यजीत रे के बिना सिनेमा जगत वैसा ही है जैसे सूरज चांद के बिना आसमान…इसे आप किस रुप में देखते हैं?
कुरोसावा की फिल्म की यह विशेषता है कि उनकी फिल्म में रोशनी की एक लकीर तक के मायने निकलते हैं। यदि जूते पर धूल हैं तो पटकथा का वह हिस्सा है। इतने सचेत व्यक्ति जब यह राय व्यक्त करते हैं, वह बस प्रशंसा मात्र नहीं कहा जा सकता। रे साहब ने वाकई अपनी फिल्मों से विश्व सिनेमा को एक नया व्याकरण दिया। रे की फिल्मों को देखते हुए आप सहज ही महसूस कर सकते हैं कि मनुष्य चाहे बंगाल के किसी गांव का हो या अफ्रिका के किसी जंगल का, उनके इमोशन समान हैं। उन्होंने सिनेमा से मनोरंजन की शर्त को खत्म कर दिया था। उनका मानना था कि सिनेमा के लिए इंटरटेनमेंट से अधिक महत्त्वपूर्ण इमोशन है।
-
सत्यजीत रे से जुड़ा आपका अपना कोई खास संस्मरण या महत्त्वपूर्ण प्रसंग?
संस्मरण मेरा तो नहीं, लेकिन गिरीश दा (फिल्कार गिरीश रंजन) ने सुनाया था, वह याद है। गिरीश दा ने कहा था, पटना के रुपक सिनेमा में पथेर पंचाली देखी, और मन में तय कर लिया यही काम करना है। सबलोग फिल्म का सपना लेकर मुंबई भागते थे, मैं कोलकाता भाग गया। खोजते खोजते स्टूडियो पहुँचा, सत्यजीत रे साहब शूटिंग में व्यस्त थे। एक व्यक्ति मुझे ले जाकर मिलवाया। दादा, ये पटना से आया है, आपसे मिलने। उन्होंने जैसे ही नजर उठायी, मैंने बेहिचक कहा मुझे भी फिल्म बनानी है। उन्होंने पूछा, पोछा लगाने आता है, सफाई करने। गिऱीश दा ने कहा, हाँ, आता तो है। फिर उन्होंने साथ वाले आदमी को कहा, इसे बुला लो कल से स्टूडियो की सफाई करने। गिरीश दा कहते थे, उस दिन तो समझ में नहीं आया, लेकिन जैसे जैसे कर फिल्म से जुडे सारे काम एक एक कर सीखता गया, उनकी दूरदृष्टि समझ में आ गयी। वास्तव में वे मेरी लगन परखना चाहते थे।