खेल-खिलाड़ी

पेरिस ओलम्पिक में भारत

 

 पेरिस ओलम्पिक 2024 का समापन हो गया है और 140 करोड़ की आबादी वाला देश भारत पदक तालिका में 71वें स्थान पर रहा, जबकि टोक्यो 2020 में यह 48वें स्थान पर था। एक रजत और पाँच कांस्य सहित छह पदक जीतने के बावजूद, देश को कई बार करीबी हार का सामना करना पड़ा, जिससे भारतीय खेलों के भविष्य को लेकर चर्चा शुरू हो गयी हैं।

 2020 में भारतीय एथलीटों ने 7 मेडल जीते थे। हर किसी को उम्मीद थी कि इस बार संख्या 10 के पार पहुंचेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जितने जोश और जज्बे के साथ भारतीय दल रवाना हुआ था उतनी खुशी लौटते वक्त उनके चेहरे पर नहीं रही। आंकड़ों और तकनीकी आधार पर पाकिस्तान से भी पीछे रहना भी एक बड़ी वजह है, जो एक गोल्ड के साथ 62वें स्थान पर रहा। इस ओलम्पिक में 205 देशों ने हिस्सा लिया था, जबकि 84 देशों ने कम से कम एक मेडल जीते।

2017-18 में लॉन्च हुए खेलो इंडिया के तहत पीएम नरेंद्र मोदी का विजन ही ओलम्पिक में अधिक से अधिक मेडल जीतने का था। तोक्यो में जब 7 मेडल आये थे तो वह भारतीय इतिहास का सबसे सफल ओलम्पिक बन गया था। नीरज चोपड़ा ने जेवलिन में एतिहासिक गोल्ड जीता था। इस बार भी उनसे उम्मीद थी, लेकिन वे सिल्वर मेडल तक सीमित रह गये। शायद भारतीय एथलीट इस बात से खुश हों कि उनके नाम के आगे ओलंपियन लग गया है, लेकिन बीजिंग में गोल्ड मेडल जीतने वाले अभिनव बिंद्रा ने मोदी के विजन पर उस समय बट्टा लगा दिया, जब उन्होंने कहा- “पैसा मेडल नहीं ला सकता है।“

साथ ही उन्होंने कहा कि “हालांकि एथलीटों पर पैसा खर्च करना बंद नहीं कर सकते, लेकिन हमें समझना होगा कि कहाँ और किस तरह से पैसा खर्च करना है।“ एक रिपोर्ट के अनुसार पेरिस ओलम्पिक के लिए दल तैयार करने के लिए केंद्र सरकार ने पिछले तीन सालों में 470 करोड़ रुपए खर्च किये हैं। यह पहले के आंकड़ों से काफी ज्यादा है। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो सबसे ज्यादा खर्च एथलेटिक्स (96.08 करोड़ रुपए) पर हुआ, उसके बाद बैडमिंटन (72.02 करोड़ रुपए), बॉक्सिंग (60.93 करोड़ रुपए) और शूटिंग (60.42 करोड़ रुपए) पर। पेरिस में भारत ने जिन 16 खेलों में हिस्सा लिया, उन सभी को फंड मिला। लेकिन प्रदर्शन आशानुकूल नहीं रहा। भारत ने पेरिस ओलम्पिक में 117 खिलाड़ियों को उतारा था जिनमें 47 महिला खिलाड़ी शामिल थीं।

समापन समारोह में दो बार के ओलम्पिक पदक विजेता पीआर श्रीजेश (हॉकी) और मनु भाकर (निशानेबाजी) ने राष्ट्रों की परेड में ध्वजवाहक के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व किया। मनु ने महिलाओं की 10 मीटर एयर पिस्टल में और सरबजोत सिंह के साथ 10 मीटर एयर पिस्टल मिश्रित टीम स्पर्धा में कांस्य पदक जीते। वह स्वतंत्रता के बाद पहली भारतीय खिलाड़ी है जिन्होंने एक ओलम्पिक में दो पदक जीते।

भारतीय दल का प्रदर्शन चिंता की बात है। भारत में खेलों के प्रशिक्षण और और सुविधाओं के विकास पर पैसा किस तरह खर्च होता है यह प्रधानमंत्री को अवश्य पता करना चाहिए। आइये खेलों में भारत के खराब प्रदर्शन के कुछ कारण भी हम जान लेते हैं।

 प्रतिभा की पहचान: भारत में, प्रतिभा की पहचान अक्सर तदर्थ आधार पर होती है, जिसकी पहुँच और प्रभावशीलता सीमित होती है। युवा एथलीटों की खोज और पहचान करने में प्रणालीगत समस्याएँ हैं, खासकर दूरदराज़ के क्षेत्रों में।

बुनियादी ढाँचा और संसाधन: भारत के कई क्षेत्रों में एथलीटों को प्रभावी ढंग से प्रशिक्षित करने के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचे और संसाधनों की कमी है। प्रशिक्षण सुविधाओं, कोचिंग विशेषज्ञता और वित्तीय सहायता तक सीमित पहुँच संभावित प्रतिभाओं के विकास में बाधा बन सकती है। कई एथलीट सरकार से अपर्याप्त वित्तीय सहायता के कारण संघर्ष करते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के शीर्ष शीतकालीन ओलंपियन शिवा केशवन को अपने प्रशिक्षण और भागीदारी के लिए क्राउडफंडिंग का सहारा लेना पड़ा। भारत में अरबपतियों और निजी संपत्ति की बढ़ती संख्या के बावजूद, क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में प्रायोजन एवं निवेश में अभी भी एक महत्त्वपूर्ण अंतर है।

क्रिकेट का प्रभुत्व: भारत में क्रिकेट की अत्यधिक लोकप्रियता ने खेल परिदृश्य में असंतुलन उत्पन्न कर दिया है, जिसमें 87% खेल पूँजी क्रिकेट को आवंटित की गयी है और अन्य सभी खेलों के लिए केवल 13%। इस असंगत आवंटन ने ओलम्पिक खेलों के विकास में बाधा उत्पन्न की है। क्रिकेट के अलावा एक मज़बूत खेल संस्कृति और मीडिया प्रचार की कमी एक बाधा रही है। ओलम्पिक खेलों को पर्याप्त रूप से समर्थन देने और भारत में अधिक समावेशी और प्रतिस्पर्धी खेल संस्कृति बनाने के लिए खेल निवेश और प्रचार हेतु अधिक संतुलित दृष्टिकोण आवश्यक है।

अपर्याप्त खेल नीतियाँ: भारत की खेल नीतियाँ ऐतिहासिक रूप से खंडित और कम वित्तपोषित रही हैं। खेल के बुनियादी ढाँचे में सुधार और एथलीटों का समर्थन करने हेतु टारगेट ओलम्पिक पोडियम स्कीम जैसे प्रयास किये गए हैं। हालाँकि, ये पहल अपेक्षाकृत हाल ही की हैं और अभी तक महत्त्वपूर्ण परिणाम नहीं दे पाई हैं।

दीर्घकालिक विकास: भारत के खेल कार्यक्रम अक्सर एथलीट के दीर्घकालिक विकास के बजाय अल्पकालिक सफलताओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं। विश्व स्तरीय एथलीट तैयार करने हेतु कई वर्षों तक निरंतर निवेश और योजना की आवश्यकता होती है। सफल ओलम्पिक देशों के पास दीर्घकालिक विकास योजनाएँ हैं जिनमें युवा प्रतिभाओं की खोज करना, उन्हें शुरुआती प्रशिक्षण प्रदान करना और उनके कॅरियर के दौरान उनका समर्थन करना शामिल है।

 खेल प्रशासन में भ्रष्टाचार और राजनीति: भारत में खेल प्रशासन पर अक्सर राजनेताओं और नौकरशाहों का दबदबा होता है, जिससे खेल प्रशासन का राजनीतिकरण होता है। भ्रष्टाचार और नौकरशाही बाधाएँ अक्सर एथलीटों के विकास में बाधा डालती हैं, जिसमें खिलाड़ियों के हित अक्सर पीछे छूट जाते हैं। भारतीय खेल संगठन, विशेष रूप से शासी निकाय, पेशेवर और व्यावसायिक क्षेत्र की चुनौतियों के अनुकूल नहीं बन पाए हैं, वे कुशल पेशेवरों को नियुक्त करने के बजाय स्वयंसेवकों पर निर्भर हैं।

खेल संस्कृति का अभाव: भारत में खेलों की तुलना में शिक्षा को सामाजिक प्राथमिकता दी जाती है। परिवार प्रायः चिकित्सा या लेखा जैसे क्षेत्रों में कॅरियर को प्राथमिकता देते हैं क्योंकि वे खेल को वित्तीय सुरक्षा हेतु कम व्यवहार्य मानते हैं। जाति और क्षेत्रीय पहचान से मज़बूत संबंधों के साथ भारत का जटिल सामाजिक स्तरीकरण एकीकृत खेल संस्कृति के विकास में बाधा डालता है। कई समुदाय पारंपरिक भूमिकाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए अभिजात वर्ग के स्तर पर खेलों को आगे बढ़ाने को हतोत्साहित करते हैं।

अब बात कुश्ती की: कुश्ती इस बार विशेष चर्चा के केंद्र में है। कुश्ती महासंघ के भीतर हाल के विवाद भारतीय खेल प्रशासन को परेशान करने वाले व्यापक मुद्दों का संकेत हैं। 2019 की वर्ल्ड चैंपियनशिप में 53 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक जीतने वाली विनेश फोगाट, 2020 के टोक्यो ओलम्पिक में 53 किलोग्राम में हिस्सा ले चुकी थीं। लेकिन उन्हें पेरिस ओलम्पिक के लिए 50 किलोग्राम के वर्ग में शिफ्ट होना पड़ा क्योंकि अंतिम पंघाल ने 53 किलोग्राम वर्ग में ओलम्पिक कोटा सुरक्षित किया था। विनेश फोगाट ओलम्पिक मेडल के अपने सपने को पूरा करने के लिए 53 किलोग्राम के बदले 50 किलोग्राम वर्ग में आने को तैयार तो हो गईं लेकिन ये बेहद चुनौतीपूर्ण था। 53 किलोग्राम वर्ग के अंदर होना भी उनके लिए उस वक्त आसान नहीं रह गया था, ऐसे में और तीन किलोग्राम कम करने की चुनौती बेहद मुश्किल चुनौती थी।

लेकिन विनेश ने ना केवल अपने वजन को कम किया बल्कि पेरिस ओलम्पिक का कोटा भी हासिल किया। उन्होंने पेरिस में जापान की यूई सुसाकी को हराया। यूई टोक्यो ओलम्पिक की गोल्ड मेडलिस्ट और चार बार की वर्ल्ड चैंपियन थीं। इस जीत के साथ ही विनेश गोल्ड मेडल की दावेदार बनकर उभरीं। लेकिन फ़ाइनल मुक़ाबले से वह अपना वजन तय कैटेगरी के भीतर नहीं रख सकीं। वहीं दूसरी ओर 53 किलोग्राम वर्ग में अंतिम पंघाल पहले ही राउंड में बाहर हो गईं। उन्होंने बताया है कि दो दिनों तक वजन कम करने की कोशिशों के चलते उन्होंने कुछ खाया पिया नहीं और बिना किसी एनर्जी के वह पहले राउंड में हार गईं।

इस पूरे मामले पर 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में भारतीय कुश्ती दल के मुख्य कोच और 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों में महिला कुश्ती दल के मुख्य कोच रहे पीआर सोंधी कहते हैं, “जहाँ तक विनेश के 100 ग्राम वजन बढ़ने की बात है, इसके लिए उनकी टीम ज़िम्मेदार है। जब टीम को पहले से मालूम था कि विनेश अपने वास्तविक वजन से कम वर्ग में हिस्सा ले रही हैं, तो उन्हें उसके हिसाब से तैयारी करनी थी। उन्हें पहले दिन निर्धारित मात्रा से ज़्यादा इनटेक खाने की अनुमति क्यों दी गयी? इन बातों का ध्यान रखने की ज़िम्मेदारी उनके कोच, डायटिशियन और डॉक्टर की थी।” सोंधी अंतिम पंघाल के मामले में भी यही सवाल उठाते हैं, “जब अंतिम पंघाल ने 53 किलोग्राम वर्ग में हिस्सा लिया, तो उन्हें अपना वजन कम करने के लिए दो दिनों तक भूखे रहने के नौबत क्यों आयी? अंतिम के कोच और सपोर्ट स्टॉफ़ क्या कर रहे थे?

मुक़ाबले से एक दिन पहले उनका वजन एक सीमा से ज़्यादा क्यों बढ़ा कि उन्हें उसे कम करने के लिए भूखे रहने पड़ा और उनकी एनर्जी लेवल कम हो गयी?” वहीं 57 किलोग्राम वर्ग में अंशु मलिक भी पहले ही मुक़ाबले में हार गईं। निशा दहिया की किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया। 68 किलोग्राम वर्ग में क्वार्टर फ़ाइनल मुक़ाबले में वह बढ़त कायम करने के बाद इंजरी के चलते उन्हें बाहर होना पड़ा। 76 किलोग्राम वर्ग में रीतिक हुड्डा भी क्वार्टर फ़ाइनल से आगे नहीं बढ़ सकीं। विनेश फोगाट के मेडल से चूकने के बाद अमन सेहरावत ने भारत के लिए कांस्य पदक जीता। महज 21 साल की उम्र में वे पहली बार ओलम्पिक में हिस्सा ले रहे थे। अमन सेहरावत बधाई के पात्र हैं, उनको धन्यवाद देना चाहिए नहीं तो भारतीय कुश्ती दल पेरिस से खाली हाथ लौटता। सोंधी पेरिस ओलम्पिक में भारतीय दल के उम्मीद से कमतर प्रदर्शन के लिए भारतीय कुश्ती संघ को भी ज़िम्मेदार ठहराते हैं। उन्होंने कहा, “भारतीय कुश्ती संघ भी अपनी भूमिका निभाने में नाकाम रहा। ओलम्पिक के स्तर पर खिलाड़ियों को कहीं ज़्यादा बेहतर देखभाल और मेंटल सपोर्ट की ज़रूरत होती है। लेकिन संघ की ओर से इस बात का ख़्याल नहीं रखा गया।

दरअसल भारतीय कुश्ती में मुश्किलों की शुरुआत 2023 के शुरुआत से हुई थी। साल की शुरुआत में भारतीय कुश्ती संघ के तत्कालीन अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ कुछ कुश्ती खिलाड़ियों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया। इस प्रदर्शन में बजरंग पूनिया, विनेश फोगाट और साक्षी मलिक जैसे पहलवान शामिल थे। इन पहलवानों ने जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन के दौरान कुश्ती संघ के अध्यक्ष पर यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोप भी लगाए। इसके बाद भारतीय ओलम्पिक संघ ने कुश्ती संघ के मामलों को देखने के लिए एक एडहॉक कमेटी का गठन किया। विनेश फोगाट इस विरोध प्रदर्शन का चेहरा बनकर उभरीं। भारतीय कुश्ती संघ इन खिलाड़ियों की मांगों को मानने के लिए तैयार नहीं था और बृज भूषण शरण सिंह के बाद उनके निकट सहयोगी संजय सिंह के कुश्ती संघ के अध्यक्ष बनने के बाद मामला और बिगड़ता गया।

इन सबका असर खिलाड़ियों की ओलम्पिक तैयारियों पर पड़ा। कुश्ती संघ के निलम्बन के दौरान खेल मन्त्रालय और भारतीय ओलम्पिक संघ, पहलवानों की तैयारी के लिए विस्तृत योजना बनाने में नाकाम रहे और ना ही ज़रूरी कोचिंग कैंपों का आयोजन किया गया। 2012 के लंदन ओलम्पिक में भारत की ओर से ओलम्पिक में भाग लेने वाली पहली महिला पहलवान गीता फोगाट कहती हैं, “पेरिस ओलम्पिक से पहले कुश्ती संघ का कामकाज एक साल से ज़्यादा समय तक बाधित रहा। कोई राष्ट्रीय कोचिंग कैंप का आयोजन नहीं हुआ। पहलवानों को अपने अपने कोच और सपोर्ट स्टॉफ के साथ तैयारी के लिए मजबूर होना पड़ा। पेरिस में हमारा कुश्ती दल ऐसा था जैसे अलग अलग दल वहाँ हिस्सा ले रहे हों और किसी को दूसरे से कोई मतलब नहीं है। जबकि वहाँ खिलाड़ियों को एक दूसरे की मदद के लिए होना चाहिए था

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शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
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