समाज

मानवीय सम्बन्ध और वैचारिकी का संघर्ष

 

मेरे भीतर विचारधारा और मानवता को लेकर एक अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है। मनुष्य के लिए इनमें महत्त्वपूर्ण क्या है, और सही मायनों में ये दोनों एक-दूसरे से सम्बन्ध रखते हैं? वैयक्तिक खुशी और सामाजिक सौहार्द के लिए दोनों में तालमेल कैसे बनाया जा सकता है? इन प्रश्नों के उत्तर को जानने के लिए सबसे पहले व्यक्ति और उसकी तमाम पहचानों को समझना जरूरी है।

समाज में व्यक्ति अनेक पहचानों से घिरा हुआ है, जैसे धर्म, जाति, रंग, लिंग, वर्ग, क्षेत्र, आदि जिससे व्यक्ति की पहचान होती है। परन्तु इन सब के बिना पहचान-विहीन व्यक्ति शायद कुछ भी नहीं है। हालाँकि आजकल समाज में एक नयी पहचान उभर रही है जो जाति, धर्म तथा अन्य पहचानों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। वह पहचान है- ‘विचारधारा’। भाषा, धर्म एवं संस्कृति Language, Religion and ...विचारधारा तथा इसका अनुसरण करने वाले एक अलग इकाई के रूप में चिन्हित हो रहे हैं। एक पहचान या विचारधारा से सम्बन्धित व्यक्ति दूसरे प्रकार की पहचान या विचारधारा वाले लोगों से असहज रहते हैं। इतना ही नहीं, विचारधाराओं तथा इनके अनुयायियों के बीच एक संघर्ष हो रहा है जो अब खुलकर सामने आने लगा है। यह संघर्ष श्रेष्ठता का है जिसमें एक दूसरों के प्रति द्वेष प्रकट होता है। वर्तमान परिदृश्य में कहीं न कहीं लोगों के बीच विभिन्न विचारधाराओं से उपजी दूरियाँ महसूस की जा सकती हैं। इन अन्तर्द्वन्द्वों के बीच मनुष्यता हाशिए पर खड़ी दिखाई देती है तथा विचारधाराओं की इस रेस में मानवता कहीं पीछे रह गयी है। हालाँकि विचारधाराओं का होना गलत नहीं है। निश्चय ही यह हमें तार्किक बनाती है। लेकिन यह कतई न्यायोचित नहीं कि विचारधारा का उपयोग अपने व्यक्तिगत मामले, हिंसा, तथा अमानवीय कारनामों आदि के लिए हो।

उदाहरण के लिए भारतीय विश्वविद्यालयों को लेते हैं। वर्तमान राजनीति ने विश्वविद्यालय तथा समाज में ‘पहचान की राजनीति’ को जन्म दिया है। विश्वविद्यालय जो देश और समाज के लिए ज्ञान के उत्पादन का स्रोत हैं, अपनी चहुँमुखी क्षमता से भटक कर एक ही दिशा में बढ़ने लगे हैं। शायद आधुनिक विश्वविद्यालयों का निर्माण समाज में मानवता और वैज्ञानिक ज्ञान के विस्तार के उद्देश्य से हुआ था। इस बात को दार्शनिक एवं विद्वान जैक्स डेरिडाने अपने एक लेख ‘द फ्यूचर ऑफ़ प्रोफेशन ऑर द अनकंडीशनल यूनिवर्सिटी’ में विस्तृत रूप से प्रतिपादित किया है। वो कहते हैं-ऐसे विश्वविद्यालय में सैद्धान्तिक स्वतन्त्रता के अलावा सवाल करने या कहने का अधिकार सार्वजनिक रूप से होना चाहिए, तथा सत्य से सम्बन्धित अनुसन्धान , ज्ञान और विचार बिना किसी शर्त के होने चाहिये। इस प्रकार वैज्ञानिक शोध के अलावा विश्वविद्यालयों के प्रमुख कार्यों में से मानविकी तथा मानवता को बढ़ाना भी है। आज भारत के विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति ‘विचारधारा’ और ‘पहचान’ जैसे सामाजिक मुद्दों के इर्द-गिर्द हो रही है।इसके दो मुख्य कारण हैं,पहला-सामाजिक भेदभाव, जिसने छात्रों को संघर्ष करने पर मजबूर किया है।और दूसरा भारत की वैचारिक तथा जातीय विविधता ने छात्रों को कहीं न कहीं विचारधारा और पहचान की तरफ मोड़ दिया है।जिसके फलस्वरूप तथा पहचान की राजनीति की वजह से मानवीय सम्बन्धों का क्षय हुआ है। इस सन्दर्भ में यह लेख भारतीय विश्वविद्यालयों में तत्कालीन छात्र राजनीति में विचारधारा की भूमिका को दर्शाता है तथा विचारधारा कैसे विश्वविद्यालयों को जीवन्त बनाती है, इस बात पर जोर देता है।

मानवीय सम्बन्ध : पहचान और विचारधारा

मानवीय सम्बन्धों और विचारधारा में गहरा सम्बन्ध है। इस सन्दर्भ में प्रसिद्ध नैतिक दार्शनिक इमैनुअल कांट अपने लेख ‘व्हाटइज एनलाइटनमेंट’ (1784)में कहते हैं कि मानवीय सम्बन्धों का आधार ‘निरपवाद कर्तव्यादेश’ (कैटेगोरिकल मोरलिटी) है न कि धार्मिक नैतिकता। पुनर्जागरण काल और आधुनिकता की विचारधाराके स्फुरण में निरपवाद कर्तव्यादेश का महत्त्वपूर्ण योगदान था।

विचारधारा हमें तार्किक बनाती है और हमारे अन्दर सोचने-समझने का नजरिया विकसित करती है।विचारधारा वैज्ञानिक होती है। एक वैज्ञानिक विचारधारा से लैस व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, और धार्मिक समस्याओं को समझने का नजरिया एक साधारण व्यक्ति से अलग होता है। इस प्रकार एक तरफ विचारधारा हमें सकारात्मक चीज़ें प्रदान करती है तथा हमारे अन्दर वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करती है।वहीं दूसरी तरफ विचारधारा का प्रयोग कुछ लोग एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने और अलगाव करने के लिए करते है। यहाँ पर मानवता गौण हो जाती है।

इसलिए मानव स्वभाव को समझना सामाजिक विज्ञान में एक अहम प्रश्न माना जाता रहा है। मानवजाति बेहद संकीर्ण, रूढ़िवादी, दकियानूसी प्रजाति रहा है इसीलिए मनुष्य अपने आत्महित और स्वरूचि के अनुसार विचारधारा का प्रयोग करता है। अपने स्वार्थपरायणता के चलते विचारधारा का गलत उपयोग करते हैं। ऐसे लोग किसी भी विचारधारा या संगठन के लिए सही नहीं हैं। यहाँ पर विचारधारा एक पहचान का रूप ले लेती है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति भेद-भाव करने लगता है। दूसरे शब्दों में एक खास तरह की विचारधारा के लोग दूसरे विचारधारा वाले लोगों से संवाद बन्द कर देते हैं।इस प्रकार मानव सम्बन्ध विचारधारा के सामने गौण हो जाते हैं। यही कारण है कि विचारधारा जब पहचान की तरफ मुड़ती है तो रूढ़िवादिता और फासीवाद की तरफ अग्रसर होने लगती है।

अतः विचारधारा को हम मानव सम्बन्धों से अलग हटकर नहीं देख सकते। इसे हमें ‘पहचानकी राजनीति’ से अलग रख कर देखना होगा। विचारधारा के विशेषज्ञों का यह कहना है कि इसे हमेशा विज्ञान की कसौटी पर रख कर देखना होगा न कि उससे अलग रखकर। विचारधारा के जो प्रयोग हुए है उनमें विश्वविद्यालयों की अहम भूमिका रही है। विचारधारा विश्वविद्यालयों तथा समाजों में लोकतान्त्रिक मूल्यों का संचालन करती है। विश्वविद्यालय हमेशा से ज्ञान के उत्पादन और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के केन्द्र माने जाते रहे है। इस प्रकार विश्वविद्यालय स्वतन्त्र चिन्तन, शोध, और स्वतन्त्र संवाद का केन्द्र है जो सामजिक परिवर्तन के द्वन्द को प्रजातन्त्र से सुसज्जित करता है।समाज व संगठनों का भी पतन हुआ, छात्र ...

छात्र राजनीति मुख्य रूप से दो धाराओं मे बंटी हुई थी। लेकिन वर्तमान छात्र राजनीति में एक नयी वैचारिकी सामने आयी है जिसने न केवल दक्षिणपन्थ और वामपन्थ की राजनीति को विश्वविद्यालयों में नकारा है बल्कि विश्वविद्यालय के प्रगतिशील वातावरण को भी विभिन्न पहचानों के सवालों को लेकर सोचने पर मजबूर किया है। इसमें मुख्य रूप से विचारधारा, जाति, प्रजाति,लिंग, क्षेत्र,और धर्म के आधार पर राजनीति को जोर दिया जाता है। इसे सामाजिक वैज्ञानिकों ने उत्तर-आधुनिकता की राजनीति और सिद्धान्त के रूप में भी परिभाषित किया है। दूसरे शब्दों में इसके सैद्धान्तिकरण में उत्तर-आधुनिकता की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

मेरा मानना है कि मानवता का सवाल सार्वभौमिक है जिसको उत्तर-आधुनिकता खारिज करता है और विचारधारा सार्वभौमिकता को उजागर करती है। लेकिन सवाल यहाँ पर मानवता और विचारधारा का है कि क्या विभिन्न पहचानों में कोई सम्बन्ध है? या क्या विचारधारा एक पहचान है? और क्या इन सभी पहचानों को विचारधारा के साथ लाने का कोई सिद्धान्त या मूल्य अभी तक इनके समर्थकों ने सुझाया है? इस लेख के अनुसार नहीं। क्योंकि उत्तर-आधुनिकतावादी राजनीति और सिद्धान्त ने इनके बाहरी और आन्तरिक संरचना को कमजोर किया है। साथ ही इन सभी विभिन्न पहचानों के आधार पर जो शोषण हो रहा है उसको गहराई से नहीं समझा है। दूसरे शब्दों में, ये सारी पहचानें कहीं न कहीं भौतिक और बौद्धिक संसाधनों से शोषित वर्ग के लोगों को अलग या बाहर रखने के साधन हैं।

सामाजिक भेदभाव चाहे वह किसी भी पहचान के आधार पर हो, सभी समाज की भौतिक संसाधनों और सामाजिक स्थितियों से जुड़े हैं। यह संरचनात्मक और सम्बन्धात्मक संस्थाएँ है। इसका अर्थ यह है- एक पहचान हमेशा दूसरी पहचान से भिन्न और ऊँची है। इसी प्रकार हर पहचान दूसरी पहचान के लोगों से भेद-भाव के आधार पर सामाजिक और मानवीय सम्बन्धों का निर्माण करता है। यहाँ पर विचारधारा की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है अगर हम इसको मानवीय सम्बन्धों के तौर पर देखें तो। इन मानवीय सम्बन्धों को हम किसी भी पहचान के आधार पर होने वाले शोषण को एक ‘एकीकृत शक्ति और सिद्धान्त’के रूप में समझ सकते है। दूसरे शब्दों में विचारधारा हमें इन सभी पहचानों के आधार पर होने वाले शोषण को एकीकृत शक्ति और सिद्धान्त से जोड़ सकती है। लेकिन विचारधारा भी एक पहचान का रूप ले सकती है, और यह एक शोषण का जरिया बन सकती है। इसके लिये राजनीतिक संगठन तथा इनके भीतर सामाजिक पहचानों के नेतृत्व और भूमिका पर अधिक बल देना होगा। इस प्रकार हम विचारधारा के सार को न केवल सही ढंग से समझ पाएँगे, बल्कि हम मानवता या मानवीय सम्बन्धों को फिर से आधुनिक प्रजातान्त्रिक मूल्यों जैसे समानता, स्वतन्त्रता , और बन्धुत्व से उनका समाजीकरण कर पाएँगे।

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ज्योत्सना

लेखिका साबरमती युनिवर्सिटी, अहमदाबाद (गुजरात) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- jyotsanacug@gmail.com
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