लोकगीतों में दर्ज है अनाम योद्धाओं के बलिदान की कथाएं
लोकमन अपने स्मृतियों में अतीत के इतिहास को सुरक्षित रखता है और जब वह उसकी अभिव्यक्ति कथाओं और गीतों के माध्यम से करता है तो वह साक्ष्य के रूप में आने वाली अनेक पीढ़ियों तक सुरक्षित रहती हैं कारण लोक गायक निश्चल मन से सीधी प्रतिक्रियाओं एवं अभिव्यंजना को सभ्यता और शिष्टता के कृत्रिम आवरर्णो से नहीं ढकता वह उसको सहज स्वाभाविक रूप में अभिव्यक्त करता है इसलिए उसमें आडम्बर नहीं सत्यता का अंश दिखाई देता है। लोकभाषाओं में रचे लोकगीतों के अध्ययन से भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के विभिन्न प्रसंगों के बहुआयामी पक्षों को नए संदर्भों में विश्लेषित करके अज्ञात और अनसुलझे रहस्य सुलझाएं जा सकते हैं।
लोक-साहित्य या लोक-गीत युग की धड़कनों के साथ-साथ, तत्कालीन मानवीय संघर्ष और वेदनाओं को जानने के बेहतर माध्यम हो सकते हैं क्योंकि लोक-गीतों के रचयिता किसी सामाजिक-राजनीतिक चेतना या संगठनों से जुड़े न होकर, मानव मात्र की वेदना की सीधी अभिव्यक्ति होतें हैं। किसी विद्वान ने कहा है ‘‘लोक की वेदना लोक की भाषा में ही ठीक-ठीक व्यक्त होती है। उसी में सुनाई पड़ती है जीवन की प्राकृत लय और उसकी भीतरी धड़कन। मनुष्य की सभ्यता और संस्कृति का, उसके सम्पूर्ण रूप का अंतरंग साक्षात्कार लोक-भाषाओं में ही होता है।’’
यही वजह है कि स्वाधीनता संग्राम के अंतर्गत आल्हा गाथा अपने असाधारण प्रभाव व लोकप्रियता के कारण लोक के बीच में स्थान बना पाए थे। “आल्हा लोक की जीवनी शक्ति और ऊर्जा का महाकाव्य है यद्यपि आल्हा की मूल गायकी बनाफरी बुंदेली में है लेकिन बुंदेलों में ही उसकी कई वर्णन शैलियां हैं। इतना ही नहीं बैसवाड़ी कन्नौजी अवधी भोजपुरी बघेली ब्रजी कौरवी आदि विभिन्न लोक भाषाओं में भी अलग-अलग वर्णन शैलियों की शृंखला है। इनकी विभिन्न शैलियों में हर जनपद के भाषाएं मुहावरे और मिजाज के साथ वहाँ की लोक संस्कृति और लोक चेतना इतनी घुलमिल गई है कि वह उस लोक की अपनी कथा बन गई है यह परंपरा लोक कवि जगनिक के आल्हा गायन से प्रारम्भ हुई थी। पृ.82 (भारतीय साहित्य परंपरा और परिदृश्य – विद्या सिन्हा)
1857 के संग्राम में बुंदेलखंड की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझा जा सकता है। यहीं से स्वाधीनता संग्राम को राष्ट्रीय क्रांति का रूप दिया गया जबकि इसकी पृष्ठभूमि 1841-42 ई. में ही बन चुकी थी। जिसमें हरबोलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित किया गया। 1842 से 57 तक बुंदेले हरबोलों ने गाँव गाँव और घर घर जाकर जन- जन को जागृत करने का काम किया था। हरबोलों की राष्ट्रभक्ति से प्रभावित लक्षमीबाई के अंतर्मन में स्वराज्य पाने की ललक बचपन से ही घर कर गई थी। मातृभूमि पर मर मिटने की दृढ़निष्ठा ने ही अंग्रेजों से टक्कर लेने का साहस पैदा किया था।
लोक ने वीरता की मिसाल झांसी की रानी के बलिदान को कभी विस्मृत नहीं होने दिया। नारी के शौर्य का योगदान और बुंदेलखंड के जन जन की भागीदारी ने इसे जनता का संग्राम बना दिया और मातृभूमि की रक्षा के लिए मर मिटने वाले हजारों लाखों शहीदों के बलिदान को लोकगीतों के अनामी लोक कवि, लोक गायकों ने अमर कर दिया। लोक कंठो से निकले इन गीतों की रचना किसने की किसी को ज्ञात नहीं। ये अज्ञात रचनाकार जो कभी अपने नाम के लिए नहीं जिए। ऐसे वीरबांकुरों द्वारा गाया व सुना गीत इतिहास का सच्चा दस्तावेज हो सकता है।
बुंदेलखंड की लोक गायन शैली दोहा और गाहा को आधार बनाकर दिवारी, फाग और अन्य कई लोकगीत रचे गये जिसमें जैतपुर नरेश पारीछत के संबंध में कई गीत दोहे की परंपरा में सुनी सुनाई जाती रही हैं। लोक कथनानुसार सभी राजाओं ने पारीछत को मोहरा बनाया था। पारीछत ने पहले धंधवा फिर कछारों और बाद में मानिक चौक में युद्ध किया था लेकिन दीवान और गोलंदाज के अंग्रेजों से मिल जाने के कारण उनके पारीछत को जैतपुर छोड़कर बगौरडांग में जाना पड़ा इसी दुख के कारण उनकी नर्तकी हर गुर्ज पर जाकर रुदन करते थी।
आश्चर्य तो यह है कि पारीछत ने बावनी (बाबन रियासतें) की रक्षा के लिए पूरी शक्ति लगा दी पर कोई भी राजा सहायता के लिए नहीं आया। पारीछत का 1841-42 ईं का यह युद्ध 57 के स्वतन्त्रता आन्दोलन की पहली आहुति थी, जिसे हरबोलों ने घर घर पहुंचाया था। हरबोले रचना धर्मी लोक गायकों की नई पीढ़ी थी जिसका एकमात्र लक्ष्य था जन जागरण। हरबोले धोती या सूतना, कुर्ता या मिरजई पहने पगड़ी या मुरैठा बांधे कंधे से गुदरी लटकाए, सारंगी बजाते हुए मंजिरो की खनक के साथ कोई जागरण गीत गाते हुए निकल पड़ते थे। हरबोले योगी होने का भ्रम देते थे। गले में माला और जोगीया रूप, गीत की पंक्ति में जुड़ा, हर हर बम, हर गंगे, हरे मोरे राम अथवा हर गंगा, हर के भजन सुना दो चार आदि कहते हुए लोक जागरण का संकल्प लिए चलते थे। बुंदेलखंड के गाँव-गाँव और नगर नगर फैले दल गलियों में दरवाजों पर लोकधुन में बंधी वीरतापूर्ण गाथा या कथा सुनाते थे, यही क्रांति जगाने का उनका अनुष्ठान और संकल्प था। पृ 65-(भारतीय साहित्य परंपरा और परिदृश्य – विद्या सिन्हा)
इन्हीं हरबोलो का उल्लेख सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता झांसी की रानी में भी किया है – बुंदेले हरबोलों के मुख से सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मरदानी वो झांसी वाली यानी थी ‘। क्षेत्रीय लोकगीतों में अंग्रेजों द्वारा किए गये जुल्म और दमन के अनेक किस्से बिखरे पड़े हैं। कवियों ने अंग्रेजों के अत्याचारों और नरसंहार (सिर में चुना बुझवाना, हाथों पैरों में कीले ठोकना, शरीर के टुकड़े टुकड़े करना, परिवार का कत्लेआम, गाँव को जला देना आदि ) जैसे अनेक घटनाएं लोकगीत में साक्ष्य बनकर मौजूद हैं।
चूना मूडन पै भिजवा दए / हाथ पांव में कीला ठोंकें पाछे से संदवा दए / तेरा दिन चार मइना लो गोरन खून बहा दये / चार दओं है बिला बिलखुरा, लूटो जान भगवा दए / अंग्रेजन खां बुला इनन ने, बंटाढार करा दए/ खान फकीरे कां लो कहए ऐसे हाल करा दए।
अंग्रेजो के क्रूर अत्याचारों के ग्वाह बने लोकमन ने अपने आक्रोश और पीड़ा को इन लोकगीतों में छिपाए रखा। जिनके होने के साक्ष्य इतिहास में भले ही न मिले लेकिन इनके गीतों मे बहुत से वीर / वीरांगनाओं के बहादुरी के किस्से जीवित है। एक ऐसा ही किस्सा है बांदा की शीला देवी का। अंग्रेजों द्वारा रात में बांदा लूटे जाने पर शीला देवी ने नौ सौ स्त्रियों के साथ उनका सामना किया था। कहा जाता है वे तब तक लड़ती रहीं जब तक अंग्रेजों ने उनका सिर नहीं काट लिया। भय से गाँव से लोग भागने लगे। लेकिन शीला देवी अंग्रेजों के सामने डटी रहीं।
सीला देवी लड़ी दौर के, संग में सौक मिहरियां/ अंग्रेजन ने करी लराई, मारे लोग लुगइयां / सीला देवी को सिर काटो अंग्रेजन ने गुइयां/ भागी सहेली सब गाँवन से लैके बाल मनुइयां/ गंगा सिंह टेर के रै गये, भगो इतै ना रइयां
इतिहास बताता है कि स्वाधीनता संग्राम में साधु संन्यासियों ने बढ़-चढ़कर कर भाग लिया था। श्यामल गिरी गुसांई ने कानपुर बिठूर और चित्रकूट में अंग्रेजों के विरुद्ध सन 1857 में युद्ध किया था। उनकी वीरता के किस्से बुंदेलखंडी लोक गीतों में सुने जा सकते हैं। साधु संन्यासियों के शौर्य और साहस का वर्णन रेवा राम नामक लोककवि ने अपनी रचनाओं में इस प्रकार किया है –
स्यामल गिर भोराई आ धमके/ तीन सहस साधु ले धाये, अंग्रेजन पै बमके / कानपुर से भगे फिरंगी पून बिठूर जा चमके/ होने लगी तकरार रार है, आन फिरंगी ठमके / सात दिना लौ भयी लराई गिरी गुसांई दुमके/ काटकूट के सबई फिरंगी चित्रकूट पै धमके/ रेचाराम देख लेव जा गत, आन मिले सब जमके।
(श्यामल गिरी गोसांई बड़े सवेरे अचानक आ पहुंचे। तीन हजार साधु लेकर अंग्रेजों पर चढ़ाई कर दी। जिससे कानपुर से अंग्रेज भागे और बिठूर आकर जम गये। लड़ाई होने लगी और अंग्रेज सहम गये। सात दिनों तक लड़ाई होती रही और गिरी गुसांईं जोश से उछलकर बढ़े तथा सभी अंग्रेजों को मार भगाकर चित्रकूट आ गये। रेवाराम कहते हैं कि यह दशा देख लो और दृढ़ होकर सब एक हो जाओ। )
नागा संन्यासियों का इतिहास पुस्तक में यदुनाथ सरकार ने लिखा है कि’ 1857 के स्वाधीनता संग्राम में भी इन संन्यासी नागाओं ने नानासाहेब और झांसी की रानी की सहायता की थी। अंग्रेजो के खिलाफ जनता को भड़काने के लिए साधु संन्यासी भारत के विविध नगरों, गाँव तथा छावनियों में घूम रहे थे। ‘ सन सत्तावन के गदर की कहानी जिस तरह बुंदेले हरबोलों ने गाई, अवध के भाटों ने गाई, जोगियों ने सारंगी के धुन के साथ गाई तो भोजपुरी क्षेत्र के अनाम लोक कवियों ने भी क्रांति गीतों को सुर दिया। बिहार के मैथिली भाषा में भी ऐसे कई गीत लोक चेतना के उदाहरण हैं-
गरजब हम मेघ जकां बरिसब हम पानी जकां/ उड़ाए देव लंदन के हुंकार में/ बिजली जकां कड़कि कड़कि/ आंधी जकां तड़कि तड़कि/ भगा देव गोरा के टंकार में / कुहकब हम कोइल जकां, नाचब हम मौर जकां/ मना लेब माता के बीना के झंकार में।
(मेघ की भांति गर्जना करके, वर्षा की तरह बरस कर, बिजली की तरह कड़क कर, आंधी की तरह तड़क कर हम अपने हुंकार और टंकार से लंदन उड़ा देंगे। कोयल की तरह कुहुक और मोर की तरह नाच कर हम मातृभूमि को अपनी वीणा की झंकार से मना लेंगे)
लोकस्मृति में बसे इन लोकगीतों को संरक्षित रखने की आवश्यकता है क्योंकि जिसे इतिहास की पुस्तकों में स्थान नही मिला उन असंख्य बलिदानियों की कहानियों को लोक की मौखिक परंपराओं में सुरक्षित रखा गया। स्वतन्त्रता-आन्दोलन का प्रभाव भोजपुरी क्षेत्र में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक रहा, क्योंकि इस आन्दोलन का प्रारम्भ गाँधीजी ने स्वयं सन् 1917 में चम्पारण से किया था और इसकी पूर्णाहुति सन् 1942 में बलिया ज़िले में अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंककर अमर शहीद चित्तू पाण्डेय ने किया। इनके लगभग 25 वर्षों की संघर्ष-गाथा अपने अंतर्मन में अनेक घटनाओं के बिम्ब-प्रतिबिम्ब संजोये हुए हैं। इनमें से अनेक दृष्टांत इतिहास के पन्नों से भी ओझल हैं, परन्तु लोक-मन में आज भी जीवित है। कहते हैं लोक सदा संवेदनशील रहता है। उसकी दृष्टि बड़ी सूक्ष्म एवं विवेचक होती है।
इसलिए भावनाओं का प्रस्फुटन लोकगीतों के माध्यम से होकर जन-जन में व्याप्त हो जाता है। इन लोकगीतों ने स्वतन्त्रता-संग्राम में जोश भरने का काम किया। अनेक नर-नारियों ने जान की परवाह किये बिना आजादी की क्रांति में कूद कर अपना सर्वस्व उत्सर्ग कर दिया। यद्यपि उस समय आवागमन की सुविधा, संचार-व्यवस्था, सम्पर्क के साधन अविकसित एवं सर्वसुलभ न थे, परन्तु फिर भी राष्ट्रवादियों के कहीं आने-जाने की बात पूरे भारत में अग्नि-ज्वाला की तरह फैल जाती थी। लोक कंठो से निकले गीत एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र हवा की गति के साथ भारत के सभी क्षेत्रों में प्रसार पाते थे। इन्हीं लोकगीतों के माध्यम से चम्पारण से प्रारम्भ होकर गोरखपुर के रास्ते बलिया तक की स्वतन्त्रता-संग्राम की विभीषिका ने भोजपुरी पर अपना जो रंग जमाया, उससे कोई भी नर-नारी, बाल-वृद्ध, युवक-युवती बच नहीं पाया।
भोजपुरी क्षेत्र के मंगल पाण्डे ने सन् 1857 में स्वतन्त्रता की ज्योति प्रज्ज्वलित कर देश का वातावरण ही बदल दिया था। अंग्रेजों के विद्रोह के परिणामस्वरूप मंगल पाण्डे को फाँसी की सजा सुनाई गई और सन् 1857 का संग्राम बिना किसी परिणति के समाप्त हो गया, परन्तु स्वतन्त्रता-प्राप्ति की लालसा की जिस ज्योति को मंगल पाण्डे, बहादुर शाह जफ़र, रानी लक्ष्मीबाई, वीरांगना झलकारीबाई, अवंतीबाई और तात्या टोपे जैसे अनगिनत वीरबाँकुरों ने मिलकर जलाया था, उसकी लौ बुझ तो गयी थी, परन्तु अग्नि भीतर ही भीतर धधकती रही। भोजपुरी क्षेत्र के लोक-जीवन में स्वदेश प्रेम वायवी नहीं था, बल्कि घर-घर, जन-जन, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, साधु-संन्यासी, रागी-बैरागी सभी इस रंग में रंग चुके थे। भोजपुरिया लोक गायकों ने स्वतन्त्रता-आन्दोलन को घर-घर ले जाकर जनमानस की राष्ट्र भक्ति को जागने का काम किया –
भये आमिल के राजा प्रजा सब भयेउ दुखारी / मिल जुल लुटे गाँव गुमस्ता और पटवारी।
भोजपुरी भाषी सिर्फ यूपी बिहार तक सीमित नहीं हैं, बल्कि झारखंड, छत्तीसगढ़, कोलकाता, दिल्ली मुंबई, पूर्वोत्तर के राज्यों में भी बड़ी संख्या भोजपुरी भाषी रहते हैं। ब्रिटिश काल में भोजपुरी भाषी जब एग्रीमेंट के तहत मजदूर बनाकर मारीशस, सुरीनाम जैसे देशों में गये तो वहाँ अपनी भाषा को भी साथ लेकर गये। गिरमिटिया कहलाने वाले भोजपुरिया समाज की व्यथा पर अलग से महाकाव्य लिखा जा सकता है। सूरीनाम के भोजपुरी गायक के गीत में उनके दर्दनाक इतिहास को महसूस किया जा सकता है
सात समुन्दर पार कराई के/ एक नवा देश के सपना दिखाई के/ कइसे हमके भरमाई के/ ले गईल दूर सरनाम बताई के/ कपड़ा लत्ता खर्चा गहिना/ गठरी से बांध सब आ जा/ कृपा श्रीराम के मुट्ठी में/ दूसर के सहारा बाटे/ कभी दिल घबराए थोड़ा पछताए/ चांद सुरूज के कुछ हमके भीभाग में मिली दरसन तरसाई के/ तीन महीना जहाज पे/ रिश्ता नाता तो बन ही जाए/ एक विचार दिमाग में आए/ उ देश में कइसन लोग भेटाए/ खेती बारी बढिया सहाए/ पांच बरस कस के कमाई के/ लौटब गाँव पैसा जमाइके/ कुछ दिन सरनाम में रहि के भाई/ धीरे-धीरे आदत पड़ जाई/ अब इतना दिन मेहनत कईके/ सब छोड़ छाड़ वापस के जाई/ सरकार के बल खेत मिल जाई/ मन के कोना में एक सपना रह जाई/ इहीं रही के एक दिन गाँव आपन जाई के/ सात समुन्दर पार कराइके।
स्वाधीनता आन्दोलन की कसौटी बन चुका ‘चरखा’ का महत्व लोक ने स्वीकार किया और चरखा लोकगीतों की रचना करके भारत वासियों को चरखे के जरिए स्वदेशी वस्तुओं के आविष्कार और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का संदेश जनजन तक पहुंचाया गया – चरखा में बड़ा गुन भइया घोरवा सुन-सुन/ खेल-खेल में काम सिखावे बड़ा हुनर बड़ा गुन।
चरखा केवल सूत कात कर वस्त्र बनाने या तन ढकने का ही उपकरण नहीं था। इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि भी थी। चरखा मन की एकाग्रता और संयम के साथ स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता का प्रतीक बना। यह शारीरिक श्रम, स्वदेशी की भावना, सहकारिता एवं सर्वधर्म समभाव का भी आधार बना।
डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि जब चरखा तलाश करके बापू ने पहले-पहल उसे चलाना शुरू किया तो देश में एक भूली हुई, खोई हुई चीज को उन्होंने फिर से प्रतिष्ठित किया। उसका सारा इतिहास हमने अपनी आँखों से देखा है। धीरे-धीरे चरखा लोकप्रिय हो गया। चरखे के माध्यम से राजनीतिज्ञों में भी विनम्रता, उदारता, सम्यक् दृष्टि एवं समभाव का विस्तार होने लगा था। कल-कारख़ानों के साथ हुए भी चरखा देश में स्थापित हुआ और दिखा दिया गया कि चरखे के द्वारा हम न केवल स्वराज लेंगे, बल्कि एक नये आत्मनिर्भर समाज की स्थापना भी करेंगे। उस युग में यह इतना लोकप्रिय हो गया कि चरखे की प्रशस्ति में असंख्य लोकगीतों की रचनाएँ की गयीं। चरखा’ यूपी बिहार में स्वावलंबन के सिद्धांत का प्रतीक बन गया था। इसकारण चरखे के प्रति लोकमानस में श्रद्धा का भाव है। लोकगीत की इन पंक्तियों में चरखे के चालू रहने में ही स्वराज का सपना फलीभूत होते दीखता है—
देखो टूटे न चरखा के तार, चरखवा चालू रहै। / गाँधी महात्मा दूल्हा बने हैं, दुलहिन बनी सरकार,
सब रे वालंटियर बने बराती, नउवा बने थानेदार। / गाँधी महात्मा नेग ला मचले, दहेजे में माँगैं सुराज,
इन गीतों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकगायक उस दौर में कितना जागरूक था जो ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह को सुर देने वाली लोकगीतों की रचनाओं को जनजन के मन में स्थापित करते हुए स्वराज की अलख जागने का काम बिना किसी तामझाम के कर रहा था। जिसका एक और उदाहरण है अवधी, भोजपुरी और मगही में 1857 के विद्रोह के नायकों में से एक बाबू कुंवर सिंह के बारे में रचे गये लोक गीत।
कइलस देस पर जुलुम जोर फिरंगिया / जुलुम कहानी सुनी तड़पे कुंअर सिंह/ बनके लुटेरा उतरल फौज फिरंगीया/ सुन सुन कुवंर के हिरदय लागल अगिया।
ब्रिटिश राज के खिलाफ पहले और सबसे बड़े संगठित विद्रोह जिसे सिपाही विद्रोह कहा गया है, उसका एक केंद्र बिहार का भोजपुर क्षेत्र भी था। यहाँ 80 साल के बाबू कुअंर सिंह ने ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका। उस दौर में जनसम्पर्क का साधन बने इन लोकगीतों ने बड़ी भूमिका निभाई। उत्तर बिहार और दक्षिण बिहार के तमाम जिलों में लोकगायकों ने बाबू कुअंर सिंह की वीरगाथा को लोकगीतों के माध्यम से चप्पे चप्पे तक पहुंचा कर देश भक्ति की भावना को उद्दीप्त किया। इन गीतों की जनचेतना के प्रसार और जन संचार में बड़ी भूमिका रही। भोजपुरी क्षेत्र में वीर कुअंर सिंह और उनके भाई अमर सिंह की बहादुरी के किस्से गाने की परंपरा आज भी चली आ रही है।
पहिले लड़ाई कुंअर सिंह जीतले / दोसर अमर सिंह भाई / तिसरी लड़इया सिपाही हरवहवा / गईल लाट घबड़ाई
भोजपुरी लोकगीतों में प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम, चारण साहित्य और राष्ट्रीय चेतना के क्रांति स्वर बहुत ही मुखर अभिव्यक्ति देखने सुनने को मिलती हैं। इसी क्रम मे कुंअर विजयमल भोजपुरी का बहुत ही प्रसिद्ध गाथा काव्य है। इसमें 1857 के विद्रोह के नायक वीर कुंअर सिंह की वीरता का बखान है। इसकी कुछ पंक्तियां देखें-
रामा बोली उठे देवी दुरगवा हो ना../ कुँअर इहे हवे मानिक पलटनिया हो ना../ रामा घोड़वा नचावे कुंअर मैदनवा हो ना…
बाबू कुंअर सिंह की वीर गाथा की पंक्तियां भोजपुरी समाज में आज भी गांवों में गाई जाती है। ये गीत लोगों में आज भी उत्साह का संचार करते हैं।
स्वतन्त्रता-संग्राम आन्दोलन का प्रभाव भोजपुरी क्षेत्र में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक रहा, क्योंकि इस आन्दोलन का प्रारम्भ गाँधीजी ने स्वयं सन् 1917 में चम्पारण से किया था। हमें कई भोजपुरी गीतों में निलहा आन्दोलन और गाँधीजी का जिक्र मिलता है। बिहार के चम्पारण जिले में नील के किसानों एवं मज़दूरों को नील कोठी के मालिकों द्वारा दशकों से प्रत़ाडित एवं शोषित किया जा रहा था। चम्पारण-प्रवास में गाँधीजी को जो कष्ट उठाने पड़े तथा उनके लिए वहाँ की जनता में जो सद्भाव, प्यार, श्रद्धा एवं सम्मान था, वह सब ऐतिहासिक दृष्टांत बन चुके हैं। लेकिन ध्यान रहे कोई भी आन्दोलन रातों-रात खड़े नही किए जाते इसकी एक पृष्ठभूमि होती है।
चंपारण आन्दोलन को परिणति तक पहुंचाने का श्रेय गाँधी जी को दिया जा सकता है लेकिन भूमिगत रहकर चिंगारी सुलगाने का काम करने वाले बहुत से राष्ट्रप्रेमी थे जिनके नाम आज शायद ही कोई जानता हो। ऐसा ही नाम है उत्तर बिहार के ग्राम पकड़ी चंपारण निवासी शिवशरण पाठक। ” सन 1900 में रचित उनके गीत में नील की खेती और ब्रिटिश जुल्म का चित्रण मिलता है। कवि शिवशरण पाठक ने एक गीत लिखकर बेतिया महाराज को सुनाया। कहा जाता है शिवशरण जी का गीत सुनकर अंग्रेजों को चम्पारण से खदेड़ने की प्रेरणा महाराज को मिली लेकिन वह सफल न हो सके फिर भी इस गीत ने नीलहन के खिलाफ जन-चेतना विकसित करने में सफलता हासिल की। यह गीत बापू के चंपारण आने से पहले का है। ” (भोजपुरी लोकगीतन में चंपारण सत्याग्रह आ महात्मा गाँधी – डॉ. सुनील कुमार पाठक)
राम नाम भइल भोर गाँव लिलहा के भइले/ चंवर दहे सब धान, गोएडे लील बोइले…/ भई भैल आमील के राज, प्रजा सब भइले दुखी/ मिल जुल लुटे गाँव गुमस्ता, हो पटवारी सुखी।
इस गीत की रचना के 17 साल बाद महात्मा गाँधी का चंपारण क्षेत्र में आगमन होता है। इसके साथ ही चंपारण में चल रहे तीन कठिया प्रथा और नील की खेती के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन खड़ा होता है।
चंपारण-आन्दोलन की प्रतिच्छाया बिहार की सभी लोक-भाषाओं जैसे—भोजपुरी, मैथिली, मगही, अंगिका, बज्जिका आदि के लोक-गीतों में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता के साथ देखने को मिलती है। 1857 का स्वतन्त्रता-महासंग्राम, जिसके महानायक मंगल पांडेय और वीर कुँवर सिंह थे, की वीरता का बखान तो भोजपुरी आदि लोकगीतों में प्रमुखता से हुआ ही है, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के साथ ‘चंपारण सत्याग्रह’, ‘असहयोग आन्दोलन’, ‘नमक सत्याग्रह’, ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ आदि की भी भोजपुरी आदि लोक-भाषाओं में बड़ी मार्मिक व्यंजना हुई है। इस आन्दोलन का सबसे बड़ा नतीजा यह निकला कि चंपारण के किसान ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारतीयों के मन-मानस में अंग्रेजों का भय मिटता जा रहा था।
चंपारण-आन्दोलन की सर्वग्राह्यता के कारण यह आन्दोलन सिर्फ कांग्रेस का आन्दोलन बनकर नहीं रह गया, बल्कि इसमें काफी संख्या में किसानों, जमींदारों, मजदूर भी जुड़ने लगे थे। भले ही यह आन्दोलन चंपारण से शुरू हुआ और वहीं की स्थानीय समस्याओं से ही संदर्भित भी था, किंतु इसकी टंकार पूरे भारतवर्ष में सुनाई देने लगी। चंपारण-आन्दोलन कई अर्थों में ऐतिहासिक है। यह एक पूर्ण रूपेण अहिंसक आन्दोलन था। इसमें न तो लाठियाँ चमकीं, न गोलियाँ चलीं, न किसी को लंबी जेल-यातना झेलनी पड़ी, न अनशन, न हड़ताल, न उग्र आन्दोलन, न चंदा हुआ।
यह भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन और ब्रिटिश उपनिवेश की विदाई के प्रथम प्रयोग के रूप में तो याद किया जाएगा ही इसकी एक और विशेषता यह थी कि पूरा आन्दोलन जातिभेद, संप्रदाय, धर्म आदि सभी दीवारों को तोड़कर समाज के गरीब, निर्बल, मजदूर, मेहनतकश, किसान, शिक्षित, निरक्षर तबकों को साथ लेकर आगे बढ़ा। इस (‘चंपारण) आदोलन’ के दौरान किसानों पर 46 प्रकार के टैक्स लगाए गये थे, जिसके कारण उनको अनेक कठिनाइयों को झेलना पड़ा। भोजपुरी के लोकगीत की में जुल्मी टैक्स और कठोरतम कानूनों के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया अभिव्यक्ति हुई –
स्वाधीनता हमनी के, नामो के रहल नाहीं। / अइसन कानून के बा जाल रे फिरंगिया॥
जुलुमी टिकस अउर कानूनवा के रद्द कइ दे। / भारत का दइ दे, सुराज रे फिरंगिया॥
नीलहों के अत्याचार तथा ‘तीनकठिया’ प्रथा से मुक्ति के बाद गाँधी ने और स्वावलंबन के सिद्धांतों को मूर्त रूप देते हुए चंपारण में कई शिक्षा-संस्थाएँ, लघु कुटीर उद्योग एवं खादी संस्थाएँ स्थापित कीं।
‘सूतल जे भारत के भाई के जगाई जा। / गाँधी अइसन जोगी भइया जेहल में परल बाटे/ मिली जुली चलु आज गाँधी के छोड़ाई जा।
इस प्रकार के गीतों की रचना से लोकगायकों की तर्ज पर सरदार हरिहर लोकजागरण का काम कर रहे थे। ये वही सरदार हरिहर सिंह हैं जो आजादी के बाद राजनीति में आए और 1969 में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने।
भोजपुरी भाषा के माध्यम से स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ब्रिटिश राज के खिलाफ मुखर भोजपुरी गीतों और कवियों की लम्बी सूची है। शाहाबाद, बलिया, छपरा के 20 से ज्यादा कवि हैं जिन्होंने अपनी कलम ब्रिटिश राज के खिलाफ चलाई और गीतों के माध्यम से जन जागरण का काम किया।
पुरूषों के साथ महिलाएं भी जनजागरण के लिए राष्ट्रभक्ति के गीतों को जनमन तक पहुंचाने के अनौखे तरीके प्रयोग कर रहीं थी। नवाब वाजिद अली शाह की दरबारी नृत्यांगना मलिका जान और आर्मेनियाई पिता विलियम की 1873 में जन्मी संतान गौहर की फनकारी, विद्वता और अदाओं ने संगीत प्रेमियों को अपना दीवाना बना रखा था। उस युग की वह पहली ऐसी गायिका थीं, जिनके गीतों के रिकॉर्ड्स बने थे। 1902 से 1920 के बीच द ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया ने गौहर के हिन्दुस्तानी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, तमिल, अरबी, फारसी, पश्तो, अंग्रेजी और फ्रेंच गीतों के छह सौ डिस्क निकाले थे। गौहर जान के बारे में कहा जाता है कि वे क्रांतिकारियों की मदद भी करती थीं। उनके चाहने वालों की फेहरिस्त में बड़े बड़े रईस लोग थे। इन्ही में से एक के विरह में उन्होंने कचौड़ी गली सून कइल बलमू लिखा था। इस विरह गीत में ब्रिटिश सरकार द्वारा क्रांतिकारियों पर किए जोर जुल्म को समझा जा सकता है इसकी आगे की पंक्तियां बताती हैं….एहि मिर्जापुरवा से उड़ल जहजवा, पिया चले गइले रंगून हो / कचौडी गली सून कइला बलमू। इसमें पिया के रंगून जाने का जिक्र आता है। तब क्रांतिकारियों को सजा के तौर पर रंगून भेजा जाता था।
भारत में ब्रिटिश राज के आगमन काल के साथ ही हिन्दी पट्टी में खडी बोली का उदय हो रहा था। पर यह बात बहुत मजबूती के साथ कही जा सकती है कि वह 1857 का गदर के आसपास का कालखंड हो या फिर चंपारण आन्दोलन, इस समय भोजपुरी लोकगीतों ने तत्कालीन समाज में जन चेतना जागृत करने में जन संचार के रूप में महत्त्वपूर्ण निभाई। लोकगीत समाज की आत्मा है। लोकगीतों में जो संवेग आत्मीय एवं मन को झंकृत करने वाले भाव होते हैं वो किसी अन्य गीतों में नहीं पाया जा सकता। बिहार में मिथिला की अपनी सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा रही है। भारतवर्ष की सभ्यता, संस्कृति, स्वाधीनता संग्राम में बिहार का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यहाँ के लोकगीत में आजादी पाने की ललक और उत्कंठा बच्चे बूढ़े और जवानों में एक समान व्याप्त थी –अब ना सहब हम जुलमिया बलम/ हमहूं जायब भले जेलखाना/ फिरंगिया भइल दुश्मनवां बलम/ अब रउओ चली जेलखाना/ फुहलि किरनिया पुरुब असमनवां/ अब ना रूकी संग्रमवा बलम/ अब रउओ चली जेलखाना
मैथिली एवं भोजपुरी लोकगीत हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। भारत के स्वाधीनता संग्राम में लोकगीत एक ऐसा माध्यम बना जो जनमानस में एक कंठ से दूसरे कंठ में स्थान पाता चला गया ओर लोक उन गीतों के माध्यम से अपने हृदय की भावनाओं एवं पीड़ा को व्यक्त करता रहा। क्रांतिकारियों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष का मार्ग अपनाया था। अधिकत्तर लोगों के कंठों से उठते-बैठते क्रांतिगीत की ध्वनियां निकलती रहती थी।
इनकलाब के मशाल कें/ देश के जवान अहाँ जराउ ने/ अन्हारों के बीच मुस्काउ ने/ अहाँ जौं एखन उदास सन रहब/ देश पर बलिदान प्राण कोना करब/ अहाँ अपन जिनगी के तार सँ/ जुलुम के निशान के मेटाउ ने।
9 अगस्त 1942का दिन हमारे देश के इतिहास में एक प्रमुख दिन है। इसी दिन क्वीट इंडिया (भारत छोड़ा) आन्दोलन का आरम्भ हुआ था। पूरे देश के साथ पूरा बिहार अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए अपने प्राण न्यौछावर हेतु तैयार हो गया था। जनता की उत्सुकता, आतुरता, आत्मसमर्पण ने जोर पकड़ लिया था। जयनंदन झा ने वर्ष 1921 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर हाजीपुर हाई स्कूल की नौकरी छोड़ दी। वह त्यागपत्र देकर आजादी की लड़ाई में कूद गये। उनके संबंध में एक लोकगीत यह है-
जदुआ हो परगनवा के पंडित जयनंदन झा इसकुलवा टीचर न/ देसहित छोड़लन नौकरिया, इसकुलवा टीचर न
गाँधीजी के कहनमा पर गेलन जेलखनमा, इसकुलवा टीचर न/ सजा काटि काटि सहलन विपतिया, इसकुलवा टीचर न
सत अहिंसा से लेलन सुरजवा, इसकुलवा टीचर न/ देसहित छोड़लन नौकरिया, इसकुलवा टीचर न।
मिथिलांचल में होली के अवसर पर गाए जाने वाले फाग गीतों में भी राष्ट्रप्रेम एवं क्रांतिकारी नेता के प्रति सम्मान एवं स्नेह के साथ कृतज्ञता का भाव भरा होता था। एक होली गीत-
आईरे होरिया आयल फेर सँ/ गाबथिस गाँधी संग मनोहर/ चरखा चलाबे बाबू राजेन्द्र/ गुंजत भारत अमराई। होरिया …/ वीर जवाहर शान हमारो/ वल्लभ है अभिमान हमारो/ जयप्रकाश जैसो भाई रे/ होरिया आयल फेर सँ।
भारत को स्वाधीनता प्राप्त होने से जनता बहुत प्रसन्न हुई थी। एक लोकगीत है जिसमें महिलाएं गा रही हैं कि स्वराज्य आ गया है। उसे देखने चलें। भारतमाता हाथी पर चढ़कर आ रही हैं और स्वराज के डोली में बैठकर आ रहा है।
भारत मे आयल स्वराज/ चलू सखि देखन को/ कथि जे चढि़ल स्वराज हे/ सखि चलू देखन को/ कथि जे चढिय़े आयल/ वीर
15 अगस्त सैंतालीस के रिनवां/ मिलले अजदिया ना कि आहो सभा/ मिलले अजदिया ना कि आहो रामा
एहि के दिनवां करले गुलमियां/ मिलले अजदिया ना।
लोकगीतों की परंपरा जीवन की सच्चाई खोजने की परंपरा है जो ना जाने कितने युगों से आ रही है और न जाने कितने युगों तक जाएगी। क्योंकि लोक जीवन को सम्पूर्णता के साथ देखता है और अपनी अभिव्यक्तियों में जीवन के कटु मधुर अनुभवों को मुक्तता के साथ अभिव्यक्त करते हुए अपने गीतों से शोषण के विरुद्ध प्रतिक्रिया का भाव भी जगाता है इसलिए लोकगीतों में प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट दिखाई दे जाते हैं। कहा जाता है लोक मानस अपनी बोली के माध्यम से अपने इतिहास के साथ आत्मीयता से जुड़ पाता है इसलिए अपनी स्मृतियों में अपने इतिहास को अपनी ही बोली में सुरक्षित रखता है।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को अंग्रेज इतिहासकार भले ही संकुचित राष्ट्रवाद कहें या फौज का गदर कहते रहें हो लेकिन आज ऐसे प्रमाणिक साक्ष्य मौजूद हैं जो इसे जनता का स्वतन्त्रता संग्राम सिद्ध करते हैं। लोक स्मृतियों मे बसे कथाएं गीत इसके गवाह है। हमने हमारा इतिहास नही लिखा जिन अभिलेखों को हमने आधार बनाया वह वास्तव में पूर्ण सत्य नही था। लोक साक्ष्यों को ध्यान में रखकर लिखा गया इतिहास ही सच्चा इतिहास हो सकता है। इसलिए स्वतन्त्रता संग्राम को बहुमुखी परिप्रेक्ष्य मे समझने के लिए तत्कालीन लोक संस्कृति के सभी पहलुओं को देखने की आवश्यकता है क्योंकि लिखित साक्ष्यों के साथ लोकमन में बसे गीतों, कथाओं और गाथाओं की मौखिक अभिव्यक्तियों का अध्ययन ज्यादा प्रमाणिक और महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन सकते हैं। भारतीय इतिहास-लेखन की परंपरा में लोक-साहित्य को महत्त्व नहीं मिला जबकि लोक-गीतों, लोक-परंपराओं, लोक-कथाओं और लोक-संस्कृति के अध्ययन के माध्यम से भारतीय इतिहास के विस्मृत प्रसंगों और उनसे जुड़े विविध तथ्यों की प्रमाणिक प्रस्तुति संभव हो सकती है।
संदर्भ ग्रंथ
भारतीय लोक साहित्य परंपरा और परिदृश्य- विद्या सिंहा, प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, प्रथम संस्करण 2011
जंगनामा – विद्या विंदु सिंह, पृष्ठ – 58 प्रकाशक – ज्ञानगंगा, दिल्ली।
1857:बुंदेली लोक गायकी का संघर्ष, चौमासा :वर्ष 14 अंक 45 पृष्ठ 17- नर्मदा प्रसाद गुप्त
1857:वैकल्पिक स्त्रोतों की आवश्यकता, चौमासा :वर्ष 14 अंक 45 पृष्ठ 20- पंकज राग
हिन्दी दैनिक, 6 अप्रैल 2017, संपादकीय पृष्ठ, ध्रुव गुप्ता का लेख, गौहर जान।
बीबीसी हिन्दी, मृणाल पांडे का लेख- गौहरजान- 18 अप्रैल 2016
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