शख्सियत

जेल जाने वाले पहले हिन्दी-लेखक

 

साहित्य के विद्यार्थी माधवराव सप्रे को हिन्दी के पहले कहानीकार के रूप में उनकी कहानी ‘एक टोकरी-घर मिट्टी’ के संदर्भ से और पत्रकारिता के विद्यार्थी उन्हें बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्ष में प्रकाशित ‘छतीसगढ़ मित्र’ के सम्पादक के रूप में जानते हैं। मगर साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े कम ही लोग जानते हैं कि सप्रेजी हिन्दी के पहले, और अब तक के उन थोड़े-से लेखकों में से हैं जिन्हें अपने लेखन की वजह से जेल जाना पड़ा था।

अंग्रेज़ी साम्राज्य के विरोध में बंगाल और महाराष्ट्र की भाषायी पत्रकारिता में प्रतिवाद की जिस मुखर परम्परा का प्रवर्त्तन हुआ था, उसे हिन्दी के हृदय प्रदेश में आगे बढ़ाने का बीड़ा उठाने वाले पहले लेखक माधवराव सप्रे थे। उनके द्वारा सम्पादित पत्र ‘हिन्दी केसरी’ ने लोकमान्य तिलक के ‘केसरी’ के तेवर और प्रतिबद्धता को क़ायम रखते हुए हिन्दी-क्षेत्र में राष्ट्रीय जागरण के कार्य को आगे बढ़ाया। सप्रेजी के समकालीन बालमुकुंद गुप्त भी उन्हीं दिनों ‘भारत मित्र’ पत्रिका में ‘शिवशम्भु के चिट्ठे’ लिख कर अंग्रेज़ी शासन का मुखर प्रतिरोध कर रहे थे।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ और ‘हिन्दी केसरी’ में प्रकाशित सामग्री का अध्ययन करें तो यह अनुमान लगाना कठिन न होगा कि ‘राष्ट्रीय जागरण’ और ‘देशोन्नति’ के नवजागरणकालीन कार्यभार से हिन्दी क्षेत्र की जनता को परिचित कराने में सप्रेजी की भूमिका कितनी महत्त्वपूर्ण थी। जिस दौर में सप्रेजी ने लेखन-कार्य किया, उसमें साहित्य और पत्रकारिता के बीच आज की तरह की खाई नहीं थी। दोनों के बीच एक स्वाभाविक सहभागिता का सम्बन्ध था। इसलिये भारतेंदु युग के लेख‌कों में से अधिकतर किसी-न-किसी रूप में पत्रकारिता से जुड़े थे। परवर्ती दौर में सप्रे जी के समकालीन महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी-जैसे लेखक भी प्रखर पत्रकार थे। यह परम्परा बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भी गतिमान रही।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में और बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में राष्ट्र‌व्यापी बौद्धिक जागरण का प्रमुख एजेण्डा था, औपनिवेशिक प्रभुत्व और साम्राज्यवाद का विरोध। इसलिए पत्रकारिता और साहित्य दोनों प्रतिरोध के बौद्धिक उपकरण बने। यह प्रतिरोध भारतीय भाषाओं में आधुनिक चेतना का सम्बल लेकर गद्य साहित्य की भूमि पर सक्रिय हुया। सप्रेजी की सृजनशीलता को इसी संदर्भ में देखना चाहिए।

सप्रेजी की चर्चित कहानी ‘एक टोकरी-भर मिट्टी’ को सामंती तन्त्र की प्रभुता के समक्ष निरीह जनता की कमज़ोर-सी लगती चुनौती की तरह भी पढ़ा जा सकता है। ‘हिन्दी केसरी’ के अग्रलेखों में अंग्रेज़ी राज के विरोध और देश को दुनिया में हो रही तरक़्क़ी से जोड़ने की आकांक्षा यानी ‘राष्ट्रोद्धार’ के संकल्प को सहज ही देखा जा सकता है। दरअसल सप्रेजी के व्यक्तित्त्व का निर्माण राष्ट्रीय जागरण के जिस वातावरण में हुआ था, उसकी यह स्वाभाविक परिणति भी था। इसलिये प्रतिवाद-धर्मिता उनके विचारों में ही नहीं, उनके जीवन-व्यवहार में भी दिखाई पड़ती है। यह समझने में कोई मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि मराठी संत रामदास के ‘दासबोध’ का अनुवाद उन्होंने किस ध्येय से किया, या तहसीलदार पद पर नियुक्ति के लिए अंग्रेज़ कमिश्नर के प्रस्ताव को उन्होंने क्यों ठुकरा दिया, अथवा पूरी तैयारी के बाद भी क़ानून की परीक्षा देने से क्यों इंकार किया, या फिर सरकार-विरोधी अग्रलेख लिखने के लिये देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिये जाने पर वामनराव लाखे-जैसे मित्रों के समझाने के अथक प्रयास के बावजूद माफ़ीनामा लिखने के लिए क्यों राज़ी नहीं हुए।

यह भी समझने में मुश्किल न होगी कि माफ़ीनामा आखिर बुझे मन से उन्होंने तब लिखा, जबविकट पारिवारिक परिस्थितियों के चलते उनके बड़े भाई ने भावनात्मक दबाव डाला और माफ़ीनामा न लिखने पर ख़ुद‌कुशी करने की धमकी दे डाली। कहने की ज़रूरत नहीं कि सप्रेजी के व्यक्तित्त्व में प्रतिरोध और संघर्ष की प्रवृत्ति अत्यन्त प्रबल है। यही बात उनके साहित्य के बारे में कही जा सकती है। वे हिन्दी गद्य के आरम्भिक संघर्ष के साक्षी, सहभागी और और भोक्ता रहे हैं।

हिन्दी साहित्य के द्विवेदी-युग को संभवतः उसके बौद्धिक उन्मेष और क्रमशः पुष्ट होती वैचारिक प्रखरता की वजह से डॉ. रामविलास शर्मा ने सर्वथा उचित ही ‘ज्ञान काण्ड’ कहा है। पश्चिम के नवीनतम ज्ञान-विज्ञान के प्रति जैसा आकर्षण इस युग में दिखाई देता है, वह इस मायने में अभूतपूर्व है कि पश्चिम से टकराव का सैद्धांतिक आधार स्वयं पश्चिम का तर्कवाद और विवेकपरायणता है जिसे हिन्दी ने अपनाने का जतन किया। यहाँ पश्चिम-मोह नहीं, उसका सचेत परीक्षण और विवेकपूर्ण अधिग्रहण दिखाई देता है—ख़ास तौर से उस युग के पत्रकारों के गद्य लेखन में।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के यशस्वी सम्पादक यदि 1907 में ही हड़ताल के अधिकार को लोकतान्त्रिक और क़ानूनी अधिकार मानने की वकालत करते हैं तो इसके महत्त्व पर विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि इस आधिकार के लिए संघर्ष करने वाले साम्यवादी दल का तब जन्म ही नहीं हुआ और देश में औद्योगिक ढाँचा अभी बना भी नहीं था। ‘हड़ताल’ शीर्षक से लेख लिख कर सप्रेजी ने हिन्दी प्रदेश को प्रतिवाद के एक नये अस्त्र से परिचित कराया। यह भारतीय जनता की साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना को बुर्जुआ राष्ट्र‌वाद की बजाय अपेक्षाकृत मूलगामी (रेडिकल) जनवाद के करीब लाने की चेष्टा जान पड़‌ती है।

पश्चिम के सामाजिक प्रयोगों को देसी संदर्भ में रूपांतरित करने की आकांक्षा से जन्मी यह चेष्टा क्या द्विवेदी-युग के पत्रकार माधवराव सप्रे की लेखनी से अनायास फूट पड़ी थी? ‘सरस्वती’ या ‘छत्तीसगढ़‌ मित्र’ की फ़ाइलें देखें तो समझते देर नहीं लगेगी कि यह उस युग की जन-आकांक्षा थी। यह उस युग के ज्ञानकाण्ड का चारित्रिक वैशिष्ट्य था। संयोग मात्र नहीं है कि सप्रेजी के इस लेख को आचार्य द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ में प्रकाशित किया था। दरअसल ज्ञानकाण्ड के इस सजग और सतर्क गद्य को, प्रतिवाद के प्रयत्न के तौर पर ‘छ‌त्तीसगढ़ मित्र’ के पन्ने-पन्ने पर देखा जा सकता है। उस दौर की अन्य पत्र-पत्रिकाओं में भी—ख़ास कर ‘सरस्वती’ में भारत की धरती पर एक लोकतान्त्रिक समाज के निर्माण की आकांक्षा और जागरूकता के प्रसार की प्रवृत्ति मिलती है। यह सही मायनों में नवजागरण का गद्य है। माधवराव सप्रे का गद्य प्रमाणित करता है कि बीसवीं सदी के शुरुआती समय में ही गद्य के भीतर विवेकवाद और जनतान्त्रिक उदारवाद का सपना पलने लगा था और वह धीरे-धीरे संघर्ष की खुरदरी सतह पर क़दम जमाने की कोशिश कर रहा था।

ज़ाहिर है, मूलतः पत्रकारिता और वैचारिक गद्य के ज़रिए विकसित हुई नवजागरण की चेतना अन्यान्य पत्रों के साथ सप्रेजी के ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ और ‘हिन्दी केसरी’ के माध्यम से भी राष्ट्रीय चेतना के प्रसार की दिशा में विकसित हो रही थी। सप्रेजी द्विवेदी-युग के महत्त्वपूर्ण निबन्धकार थे। लेकिन उनकी भूमिका पत्रकारिता तक सीमित नहीं थी। हिन्दी के सर्जनात्मक गद्य के विकास की दिशा में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। उनकी कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ की गणना हिन्दी की प्रारम्भिक कहानियों में की जाती है; बल्कि कुछ विद्वान उसे पहली आधुनिक कहानी मानते हैं।

आधुनिक चेतना अगर अपने ख़ास तरह के रूपगठन और उसकी संवेद‌नात्मक बनावट में निहित है तो माना जा सकता है कि हिन्दी कहानी में वह ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी में चरितार्थ हुई। इस कहानी में निहित मानवतावाद और सामंत-विरोधी चेतना को उचित ही रेखांकित किया गया है। ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित सामग्री की छानबीन की जाए तो व्याकरणाचार्य कामता प्रसाद गुरु की तरह यह मानने में किसी को आपत्ति नहीं होगी कि “हिन्दी में समालोचना का प्रारम्भ और प्रचार ‘छ‌त्तीसगढ़ मित्र’ ने ही किया था।”

       यह विदित ही है कि हिन्दी क्षेत्र में नवजागरण के संवाहक साहित्यकार ही थे, न कि बंगाल या महाराष्ट्र की तरह समाज-सुधारक। हिन्दी क्षेत्र की नई चेतना में समाज-सुधार की अपेक्षा राष्ट्रीय चेतना और साम्राज्यवाद के विरोध का स्वर अधिक मुखर था। 1906 में प्रकाशित पुस्तिका ‘स्वदेशी आन्दोलन और बॉयकाट’ में सप्रेजी ने औपनिवेशिक शोषण का विस्तार से विश्लेषण करते हुए स्वदेशी के महत्त्व पर बल दिया है। इस पुस्तिका में उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘जब तक इस देश में स्वराज्य स्थापित न हो जाएगा तब तक अन्य विषयों में सुधार करने का यत्न सफल न होगा।’

ज़ाहिर है, वह स्वाधीनता के एजेंडा को समाज-सुधार की अपेक्षा अधिक प्राथमिकता देते थे। इसलिए तिलक के मराठी पत्र ‘केसरी’ को जब उन्होंने ‘हिन्दी केसरी’ के रूप में पुनरवतरित किया तो वह स्वाधीनता संग्राम का मुखपत्र ही बन गया था। ‘हिन्दी केसरी’ भी अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के विरोध में अत्यन्त मुखर था। उसमें राष्ट्रीय आन्दोलन और जन जागृति की ख़बरें प्रमुखता से छपती थीं। यह निस्संदेह दुस्साहसिक कार्य था। लेकिन सप्रेजी हिम्मत के साथ जोख़िम लेने को तैयार थे। उत्तर भारत ही नहीं, दक्षिण से भी राष्ट्रीय प्रतिरोध के समाचार इसमें छपते थे। उदाहरण के लिए 24 अगस्त, 1907 को उसके एक आरम्भिक अंक में इलाहाबाद, मद्रास, राजमुंदरी, कोचीन आदि के समाचार छपे हैं। निरन्तर ऐसी ख़बरों के कारण ‘हिन्दी केसरी’ और सप्रेजी को सरकार के कोप प्रकार का सामना करना पड़ा और 22, अगस्त, 1908 में वे गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिए गए। तीन माह तक वह जेल में रहे।

बड़े भाई द्वारा आत्महत्या की धमकी दिये जाने पर माफ़ीनामा लिख कर जेल से बाहर आने के बाद सप्रेजी को बेहद ग्लानि हुई। 14 नवम्बर, 1908 को ‘हिन्दी केसरी’ में उन्होंने लिखा भी कि माफ़ी माँग कर उन्होंने ‘अपने राजनीतिक सार्वजनिक जीवन का सत्यानाश कर लिया।’ वह अज्ञातवास में चले गये और भिक्षावृत्ति से जीवन निर्वाह करने लगे। फिर वह हनुमानगढ़ के रामदासी मठ में रहने लगे। वहाँ उन्होंने 1910 में समर्थ रामदास के ग्रन्थ ‘दासबोध’ का अनुवाद किया जो 1912 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होंने तिलक के ‘गीता रहस्य’ का अनुवाद शुरू किया, जो 1915 में पूरा हुआ और 1916 में छपा।

तिलक के गीता रहस्य का भारत की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है, लेकिन हिन्दी में उसका अनुवाद सबसे पहले हुआ था। हिन्दी में सप्रे जी के अनुवाद के अब तक पच्चीस से अधिक संस्करण निकल चुके हैं। हिन्दी की ज्ञान परम्परा के विकास पर गीता रहस्य के प्रभाव का व्यापक असर पड़ा। इसके उपरान्त सप्रेजी ने चिन्तामणी विनायक वैद्य द्वारा लिखित ‘महाभारत के उपसंहार’ नामक मराठी ग्रंथ का अनुवाद ‘महाभारत मीमांसा’ के नाम से किया जो 1920 में प्रकाशित हुआ।

       सप्रेजी लोकमान्य तिलक और विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से प्रभावित थे। ‘हिन्दी केसरी’ की उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक चेतना और उसकी निर्भीक अभिव्यक्ति में इस प्रभाव को लक्ष्य किया जा सकता है। जनवरी, 1900 में पेंड्रा जैसी अनाम जगह से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ प्रकाशित करने का साहस सप्रेजी ही कर सकते थे। यह मुख्यतः विचार की पत्रिका थी। राजनीति, समाज, धर्म आदि विविध विषयों पर लेख के साथ इसमें साहित्य पर भी सामग्री होती थी। इसमें समाचार, कविताएँ, कहानियाँ और वैचारिक निबन्ध आदि शामिल थे। महत्त्वपूर्ण यह है कि उसमें साहित्य-समीक्षा भी प्रकाशित होती थी। इसी पत्र से हिन्दी में समीक्षा और कहानी आरम्भ माना जाता है। दो वर्ष बाद यह पत्र बंद हो गया।

दिसम्बर, 1905 में बनारस में हुए कांग्रेस अधिवेशन में सप्रे जी तिलक से मिले थे। लौटने के बाद ‘केसरी’ में प्रकाशित लेखों से प्रेरित होकर सप्रेजी ने 1906 में ‘स्वदेशी आन्दोलन और बॉयकाट’ शीर्षक पुस्तिका लिखी और हिन्दी क्षेत्र में तिलक के विचारों के प्रचारित करने के उद्देश्य से 1907 में ‘हिन्दी केसरी’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया। ‘केसरी’ का घोषित उद्देश्य था—‘राजनैतिक दासत्व से मुक्त होकर स्वराज्य प्राप्त करना’। तब तक छत्तीसगढ़ में ही नहीं, समूचे हिन्दी क्षेत्र में स्वराज्य-प्राप्ति को जनता के मुक्ति संग्राम के लक्ष्य के रूप में पहचान कर उसका स्पष्ट ऐलान इतनी मुखरता से किसी ने नहीं किया था।

सप्रेजी मुख्यतः पत्रकार थे। लेकिन उनका लेखन साहित्य के दृष्टिबोध से सम्पन्न था। उनके निबन्धों का साहित्यिक महत्त्व भी असंदिग्ध है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में एक सजग पत्रकार और बुद्धिजीवी की निगाह से वह चीज़ों को देख रहे थे। उन्होंने भारतीय समाज के यथार्थ का विश्लेषण नवजागरण की तार्किक-बौद्धिक चेतना के आलोक में किया। इसलिए उनका लेखन मुख्यतः समाज के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर एकाग्र है।

अपने समय की प्रमुख पत्रिकाओं, ‘सरस्वती’, ‘मर्यादा’, ‘प्रभा’, ‘विद्यार्थी’, ‘अभ्युदय’, ‘ज्ञानशक्ति’, ‘ललिता’, ‘श्रीशारदा’, ‘विज्ञान’, ‘हितकारिणी’, ‘हिन्दी चित्रमय जगत’ आदि में उनके लेख छपे। इन पत्रों के माध्यम से नवजागरण की चेतना अपने दोनों पक्षों—समाज-सुधार और राष्ट्रीयता-बोध—को समेटते हुए प्रसारित हो रही थी। सप्रेजी के विदेशी वस्तुओं के बॉयकॉट और हड़ताल जैसे विषयों पर लिखे निबन्धों से ही स्पष्ट है कि हिन्दी क्षेत्र में विकसित हो रही नवजागरण की चेतना बंगाल की तरह सामाजिक सुधार पर बल न दे कर राष्ट्रीयता के मुद्दे पर एकाग्र थी। सप्रेजी मानते थे कि ‘जब तक इस देश में स्वराज्य स्थापित न हो जाएगा तब तक अन्य विषयों में सुधार करने का यत्न सफल न होगा।’

उन्होंने 1905 में नागपुर में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशन मंडली की स्थापित कर हिन्दी ग्रंथमाला का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इसका पहला अंक मई, 1906 में निकला। प्रकाशन के लिए प्रस्तावित सूची में भारतवर्ष का इतिहास, अन्य देशों के इतिहास, देश-विदेश के प्रसिद्ध स्त्री-पुरुषों के जीवन चरित्र, ऐतिहासिक नाटक, उपन्यास और आख्यायिका, भारतवर्ष की तत्कालीन राजनीति, विज्ञान और साहित्यालोचना आदि से सम्बन्धित पुस्तकें शामिल थी। इसी ग्रंथमाला के अन्तर्गत 1906 में ‘स्वदेशी आन्दोलन और बॉयकाट’ पुस्तिका छपी थी।

हिन्दी कहानी के इतिहास में माधवराव सप्रे के योगदान को रेखांकित करते हुए पिछली सदी के सत्तर के दशक में देवीप्रसाद वर्मा ने ‘सारिका’ में एक लेख लिखा था जिसमें ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी में आधुनिक ढंग की कहानी बताया था। इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। निस्संदेह इस कहानी के शिल्प में लोककथा का प्रभाव स्पष्ट है। इसे लेकर हुई बहस में एक कश्मीरी लोककथा से प्रेरित बताया गया तो कुछ लोगों ने इसके कथ्य में आधुनिक यथार्थ-चेतना की उपस्थिति को महत्त्वपूर्ण माना। हिन्दी आलोचना के इतिहास में भी सप्रेजी की भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।

मैनेजर पाण्डेय ने नवजागरण और हिन्दी गद्य के निर्माण में उनके योगदान की चर्चा करते हुए लिखा है कि ‘हिन्दी कहानी के विकास में माधवराव सप्रे का जितना योगदान है उससे अधिक महत्वपूर्ण है हिन्दी समालोचना के आरम्भिक रूप के निर्माण में उनकी भूमिका। वे साहित्य के उत्थान के लिए समालोचना की उन्नति को बहुत आवश्यक मानते थे, इसलिए वे हिन्दी समालोचना के विकास के बारे में चिन्तित थे और प्रयत्नशील भी।’ उन्होंने इस तथ्य का उल्लेख भी किया है कि सप्रेजी इस दिशा में नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से पहल किये जाने, इसके लिए एक समालोचक समिति की स्थापना किये जाने तथा ‘नागरी समालोचक’ नाम की पत्रिका निकालने का भी सुझाव दिया था। लेकिन यह सम्भव नहीं हुआ। फिर भी ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के संक्षिप्त जीवनकाल में, केवल दो वर्षों में सप्रेजी ने साहित्य के अलावा ज्योतिष, व्याकरण और स्त्री-शिक्षा से सम्बन्धित पुस्तकों की लगभग 20 समीक्षाएँ लिखीं। कहने की ज़रूरत नहीं कि हिन्दी कहानी और आलोचना के विकास में उनकी भूमिका नींव के पत्थर की तरह की है

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जय प्रकाश

लेखक साहित्य-संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न विषयों पर पिछले 25 वर्षों से लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919981064205, jaiprakash.shabdsetu@gmail.com
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