समाज

इनके लिए कोरोना भी मनमानी का अवसर

 

कोरोना महामारी के इस संकटकाल में लॉकडाउन के कारण जहाँ आमजन अपना जीवन और रोजगार बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है वहाँ सत्ताहीन और सम्पन्न वर्ग इनके जीवन को आसान बनाने में मदद करने की जगह अपने लिए ‘व्यापार को आसान बनाने’ (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) की जुगत में लगा हुआ है।

कोविड-19 महामारी के स्वास्थ्य सम्बन्धी संकट तो हैं ही, वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए भी यह एक ऐसी चुनौती बनकर सामने आई है, जिससे पार पाने में लम्बा वक्त लगेगा। महामारी की रोकथाम के लिए लगभग पूरी दुनिया में लॉकडाउन लगाए जाने से औद्योगिक-व्यवसायिक गतिविधियाँ थम गईं जिससे अर्थव्यवस्थाएँ चरमरा गयी हैं। इस महामारी के कारण मजबूत अर्थव्यवस्थाओं और दुरुस्त स्वास्थ्य प्रणालियों तक को अभूतपूर्व चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। दुनिया के कई हिस्सों में इसने स्वास्थ्य व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा की खामियों को उजागर कर दिया है।

वर्तमान दौर में किसी भी देश का बगैर अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के आगे बढ़ना बेहद कठिन है। और वैसे में कोरोना जैसी बड़ी विपदा से निपटने के लिए तो अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग और भी ज्यादा वांछित हो गया; ख़ासकर ऐसे देशों के लिए जिनके पास इस महामारी से निपटने के लिए जरुरी स्वास्थ्य व्यवस्था  पर ख़र्च करने के लिए अतिरिक्त राशि उपलब्ध ही नहीं थी।

कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को इस संकट से निपटने के लिए सहारे की जरुरत पड़ना स्वाभाविक ही था और ऐसा सहारा देने में वर्ल्ड बैंक जैसे बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) की भूमिका खास तौर पर अहम थी। और ये बैंक आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य क्षेत्रों को सहारा देने के लिए विशाल पैकेजों के साथ सामने भी आए। जरूरतमन्द देशों को इनकी सहायता, जो ऋण के रूप में मिलती है, के महत्व का अन्दाजा इनके द्वारा दी जा सकने वाली राशि की विशालता से लगाया जा सकता है। अकेले विश्व बैंक द्वारा इस महामारी के आर्थिक और स्वास्थ्य क्षेत्र में पड़ने वाले प्रभाव से निपटने के लिए 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर (लगभग ग्यारह लाख करोड़ रुपए) देने का वादा किया गया है।

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पर एमडीबी द्वारा दी गई सहायता शायद ही कभी बगैर शर्तों के होती है। इनकी इन शर्तों, जो साफ-साफ लिखी हुई होती हैं, का उद्देश्य होता है सहायता पाने वाले देशों की घरेलू नीतियों और आर्थिक ढाँचे में अपने अनुकूल बदलाव करवाना।

ऐसी वित्तीय संस्थाओं का काम करने का तरीका इतना अपारदर्शी और अलोकतांत्रिक है कि ये नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों और देश की सम्प्रभुता को कुचल देते हैं। ये देश की आर्थिक और राजनीतिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बन जाते हैं। इनके सहयोग से बनने वाली बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के लिए सारी प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण एवं इसके कारण बड़ी संख्या में लोगों का विस्थापन सामान्य बात है। इनका विकास मॉडल पूँजी, उर्जा और तकनीक के अधिकतम उपयोग और प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों की निरंकुश लूट और शोषण पर आधारित है, जिससे गरीबी, भूख और आर्थिक असमानता बढ़ती है।। इनकी नीतियों और कार्यशैली से समाज में संघर्ष और विभाजन बढ़ना, मानवीय मूल्यों में ह्रास एवं मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन देखने को मिलता है जिससे हमारी सभ्यता और पर्यावरण पर संकट खड़ा हो गया है।

बहुपक्षीय विकास बैंकों ने विकास के नाम पर अलोकतान्त्रिक तरीके से लोगों पर विकास परियोजनाएँ थोपी हैं और मुक्त बाजार एवं नवउदारवाद की नीतियों को बढ़ावा देने का काम किया है। इन्होंने आर्थिक नीतियों में लगातार ऐसे बदलावों का समर्थन किया है और वकालत की है जिनसे निजी क्षेत्र के हितों को  फायदा हो और हाशिये पर रहने वाले समुदायों की तकलीफें बढ़ें। इनके द्वारा पोषित स्मार्ट सिटी, औद्योगिक कॉरिडोर जैसे विराट इंफ़्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में समुदायों, पर्यावरण और जीविका पर इनके कारण पड़ने वाले असर की पूरी अनदेखी की जा रही है। श्रम क़ानूनों को वापस लिया जाना, पर्यावरण  नियन्त्रण के कानूनों को कमजोर किया जाना, कृषि क्षेत्र में लाए गए नए कानून और उर्जा क्षेत्र में सुधार के नाम पर की गई पहल, ये सब उसी नवउदारवादी सुधार कार्यक्रमों का हिस्सा है, जिनकी वकालत ये बैंक करते रहे हैं।

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भारत सरकार द्वारा हाल में किए गए श्रम कानूनों में बदलाव और उन्हें खत्म करने का निर्णय तो इसलिए काफी बड़ा आघात है कि ये कानून आज़ादी के बाद श्रमिक वर्ग के लम्बे एवं गम्भीर संघर्षों के परिणामस्वरूप बने थे। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों को निजी क्षेत्र में बदलने की चल रही निरन्तर प्रक्रिया भी इसी कवायद का हिस्सा है। व्यापक स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराने के लिए उपयुक्त सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों (एमएसएमई) के क्षेत्र की जगह सरकार बड़े पैमाने पर उत्पादन और मेगा परियोजनाओं को बुलावा देने की नीति पर ही आगे बढ़ती दिख रही है। 

पिछले कुछ वर्षों में इन बहुपक्षीय विकास बैंकों ने आपदा के बाद और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियों का उपयोग सहायता देने के दम पर नीतियों में अपने अनुकूल सुधार (परिवर्तन) कराने के रूप में करना शुरु कर दिया है। आपदा के पश्चात के पुनर्वास और स्वास्थ्य लाभ कार्यक्रम इन बैंकों को प्रवेश का आसान मार्ग उपलब्ध करा देते हैं। किसी भयंकर आपदा के बाद जरूरतमन्द सरकारें आम तौर पर कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाती हैं ताकि उन्हें डॉलर के रुप में सहायता मिल जाए। इस तरह की सहायता लेकर वे अपने ऊपर न सिर्फ ऋण का बोझ लाद लेती हैं बल्कि ऋण देने वाले ऐसे बैंकों द्वारा सुझाए (जबरन लादे जाने वाले) व्यापक सुधार कार्यक्रमों के लिए भी सहमत हो जाती हैं। ये एमडीबी वैसी अर्थव्यवस्थाओं को सहायता देने में विशेष रुचि रखती हैं जो कमज़ोर हैं या दबाव में हैं क्योंकि वे इनकी शर्तों का पालन मुस्तैदी से करती हैं। आपदाकाल के दौरान नीतियों में वैसे बदलाव करना आसान होता है जिन्हें किसी अन्य समय में आमतौर पर विरोध का सामना करना पड़ता।

वित्तीय योगदान के दम पर बहुपक्षीय विकास बैंक राष्ट्र-राज्यों की नीतियों में अनुचित दख़लअंदाज़ी करते आए हैं। वे सिर्फ संरचना ही नहीं बल्कि व्यवस्था के साथ भी छेड़छाड़ करते रहे हैं। ऐसे व्यक्ति और संगठन जिन्हें अपने देश की सार्वभौमिकता की फ़िक्र है, इस अहम मुद्दे को उठाते रहे हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय समझौतों को लेकर भारत जैसे देश में योजना और उसके क्रियान्वयन के अलावा और किसी चीज की निगरानी या निरीक्षण का इन वित्तीय संस्थानों को अधिकार नहीं हो। ग़ौरतलब है कि 1990 के दशक में विश्व बैंक के नुमाइंदों को देश के योजना आयोग में शामिल करने का प्रयास किया गया था, जो देश के ऐसे जागरूक समूहों के भारी विरोध के कारण ही सफल न हो पाया था।

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इनके खिलाफ जनता और जन आन्दोलनों ने पूरी दुनिया में पिछले कुछ दशकों से अपनी आवाज बुलन्द कर रखी है। भारत के नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने तो विश्व बैंक को नर्मदा घाटी से अपने हाथ खींच लेने पर ही विवश कर दिया था और शान्तिपूर्ण विरोध के दम पर सफलता हासिल कर पूरी दुनिया के सामने एक उदाहरण पेश किया था।

इस कोरोना महामारी के समय का तक़ाज़ा तो यह था कि ये एमडीबी जरूरतमंद देशों को कम से कम इस समय बग़ैर किसी शर्त और गुप्त एजेंडा के बेहतर सामाजिक और स्वास्थ्य सुरक्षा व्यवस्था बनाने के लिए मदद देते। पर यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोरोना जैसे विपत्तिकाल का उपयोग भी एमडीबी द्वारा पूँजीवाद के एजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए किया जा रहा है।

सबसे चिंता की बात यह है कि इन बैंकों के द्वारा विकास के नाम पर दिए जा रहे ऋण से दरअसल किन्हें लाभ मिलता है और इसकी आड़ में ये बैंक देश की व्यवस्था के साथ किस तरह खिलवाड़ करते हैं, इसकी जानकारी से आमजन बिल्कुल अनभिज्ञ रहता है। देश के आम नागरिकों का इन बैंकों से लिए जाने वाले ऋण, उनकी शर्तों और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से होने वाली छेड़छाड़ के प्रति अन्धेरे में रहना बेहद चिन्ता का विषय है क्योंकि इन ऋणों का बोझ अगले कई वर्षों तक इन नागरिकों पर ही पड़ने वाला है और जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में यह बेहद जरुरी लगता है कि देश की अर्थव्यवस्था और समुदायों पर इन ऋणों का सही आकलन कर उससे नागरिकों को अवगत कराया जाए।

ग़ौरतलब है कि वर्ल्ड बैंक के अलावा अन्तर्राष्ट्रीय वित्त निगम (आईएफ़सी), एशियाई विकास बैंक (एडीबी), और एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआइआइबी) ऐसे ही कुछ अन्य बैंक हैं, जिनसे भारत ने ऋण लिया है। इसलिए, जरूरी है कि इन ऋणों की शर्तों और इसके तत्काल और दूरगामी प्रभावों के बारे में देश के सामान्य नागरिकों में एक स्पष्ट समझ बनाई जाए ताकि एमडीबी की नीतियों को पारदर्शी एवं उनके क्रिया-कलापों को ज्यादा जवाबदेह बनाने के लिए पर्याप्त जनदबाव बन सके।

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बसन्त हेतमसरिया

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व एनएपीएम झारखण्ड के संयोजक हैं। सम्पर्क +919934443337, bkhetamsaria@gmail.com
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