छठ पर्व – प्राचीन सूर्य उपासना की एक जीवित विरासत
प्रत्येक वर्ष करोड़ों लोग उत्तर भारत में कई नदियों, नहरों और तालाबों के घाटों पर सूर्य का मुख्य उत्सव मनाते हैं, जो कि वैदिक भारत पूजा-पद्यति की एक जीवित विरासत है। दिवाली के छह दिन बाद, कार्तिक मास के षष्ठी को मनाया जाने वाला छठ पर्व हिन्दू सभ्यता के केवल उन कुछ त्यौहारों में से है जो सूर्य देवता को समर्पित है। सूर्य देव और उनकी संगिनी ऊषा शायद समकालीन हिन्दू धर्म में वह स्थान नहीं रखते जोकि 4000 साल पहले रखते थे। किन्तु छठ पर्व के दौरान उसका प्रतिबिम्ब अवश्य दिखाई देता है, जहाँ वह सर्वश्रेष्ठ देव तुल्य हो जाते हैं।
प्राचीन समय में सूर्य के सर्वश्रेष्ठ देव होने के कई प्रतीक उपलब्ध हैं। जैसेकि प्रसिद्ध श्रुति गायत्री-मन्त्र सवित्र देव को समर्पित है, जो स्वयं सूर्य का ही एक रूप है। वैदिक परंपरा के अनुसार सूर्य की आराधना उनके विभिन्न रूपों और नामों में की जाती है, जैसे सूर्य, सवित्र, मित्र, विष्णु, पूषण, विवस्वात, भग और आर्यमान। इन सभी को एक सामूहिक नाम ‘आदित्य’ से सम्बोधित किया जाता है। वैदिक भारत में सूर्य को इंद्र और वायु देवता के समकक्ष रखा जाता था। ऋग्वेद मे सूर्य परिवार के विभिन्न देवी-देवताओं का विभिन्न रूपों और तरीकों से ध्यान किया जाता था। और सभी के लिए अपनी-अपनी कहानी है। ऋग्वेद के समय सूर्य को उसी तरह के अनुष्ठानों के माध्यम से प्रातः और संध्या पूजा जाता था, जैसा कि समकालीन समय में छठ पर्व मनाया जाता है।
छठ त्यौहार मुख्यतः चार दिनों का उत्सव है। इसमें चार अनुष्ठानों-नहाय खाय, खरना, संध्या अर्घ्य और प्रातः अर्घ्य- की एक क्रमबद्ध परम्परा का पालन किया जाता है। यह पर्व अमावस्या के चौथे दिन शुरू होकर सातवें दिन तक चलता है। प्रथम दिन, नहाय खाय, में श्रद्धालु बहते हुए पानी में डुबकी लगाते हैं। और नहा धो कर, नए कपड़े पहन कर, तन-मन को पवित्र कर सुपाच्य भोजन करते हैं। हालाँकि सबसे पवित्र जल गंगा और उसकी सहयोगी नदियों जैसे कोसी और कर्णाली का माना जाता है। फिर भी इसकी अनुपस्थिति पर कोई भी बहता जल उपयुक्त होता है।
दूसरे दिन, खरना में, श्रद्धालु लोग पूरा दिन उपवास रखते है और सूर्यास्त को छठ माता की पूजा कर खीर, केला और रोटी का प्रसाद ग्रहण करते हैं। और इस प्रसाद को अपने घर-परिवार, नातेदार और रिश्तेदारों में बाँटते हैं। अगले 36 घंटो के कठिन उपवास से पहले श्रद्धालु लोग यही खाद्य पदार्थ ग्रहण करते हैं।
तीसरे और चौथे दिन सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। हालांकि यह चार दिन का पर्व है परन्तु षष्ठी दिवस, यानि पर्व का तीसरा दिन बहुत ही शुभ माना जाता है। इसी दिन श्रद्धालु पूरा दिन और रात निर्जला उपवास रखते हैं। उपवास रखने के उपरांत श्रद्धालु लोग, नदी या तालाब मे छाती तक पानी मे खड़े हो कर सूर्यास्त के सूर्य को अर्घ्य देते हैं। इस समय यह एक व्यक्तिगत त्यौहार न हो कर सामुदायिक उत्सव हो जाता है। छूआछूत, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का सब भेद मिटा कर सभी लोग एक साथ पूजा अर्चना करते हैं। छठ मैया की गीत गाते हैं। सूर्य के समक्ष सर झुकाते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि इस समय दिवाली की भांति आतिशबाज़ी कि जाती है। पूरी रात जाग के बिताई जाती है। और चौथे दिन सूर्योदय के सूर्य को अर्घ्य देने के उपरांत त्यौहार का समापन होता है। इस लोकपर्व मे प्रसाद बनाने के लिए उन्हीं सभी वस्तुओं का प्रयोग होता है जो एक आम ग्रहस्थ के घर पर आसानी से उपलब्ध हो सके जैसे कि गेहूँ के आटा, गुड़, और घी से बना हुया ठेकुआ, गन्ना, नारियल, मौसमी फल और सब्जियाँ।
छठ पर्व के दौरान सूर्य के साथ उनकी संगिनी ऊषा की भी पूजा आराधना की जाती है। ऋग्वेद के अनुसार ऊषा सूर्योदय की देवी है। और इस पर्व के दौरान वह छठ्ठी मैया की रूप में पूजी जाती हैं। प्रतिकात्मक रूप से ऊषा चेतना, संज्ञा और ज्ञान की देवी हैं। उनकी आराधना से सभी कष्टों का अन्त होना और सुख समृद्धि का प्रारम्भ होना माना जाता है। ये गौर करने की बात है की यह पर्व हिन्दू सभ्यता के उस दौर का चिन्ह पेश करता है जहाँ प्राकृतिक तत्वों की पूजा की जाती थी जैसे सूर्य, जल, अग्नि, पृथ्वी और वायु। वैसे ही अभी भी इस पर्व को बिना मन्दिर जाये ही मनाया जाता है।
इस पर्व का प्रारब्ध लगभग 1500 से 2000 ईसा पूर्व के प्रारम्भिक वैदिक समाज से माना जाता है जहाँ ऋग्वेद के अनुसार अग्नि, वायु, इंद्र, पृथ्वी और सूर्य प्रमुख देव गणों में गिने जाते थे। ऋग्वेद में ही सूर्य का प्रारम्भिक उल्लेख सूर्यादय के रूप में होता है, जो कि अंधकार को दूर करने वाला कारक माना जाता है। उसी तरह ऊषा देवी भी एक महत्वपूर्ण देवी हैं जो की सूर्योदय या भोर की देवी है।
शुरुआती दौर में सूर्य और ऊषा की आराधना सूर्यास्त और सूर्यादय के माध्यम से ही की जाती थी। और यह प्रथा बहुत ही व्यापक रूप से भारत के लगभग समस्त भाग में व्यापत थी। वैदिक और उत्तर वैदिक काल मे भी यह पूजा विभिन्न तरीके से प्रचलित रही। रामायण और महाभारत ने भी सूर्य उपासना की प्रसिद्धि को बढ़ाया है। सबसे प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष पटना से प्राप्त मौर्यकालीन मिट्टी के बर्तन है, जिनका समय लगभग 300 ईसा पूर्व है। इसके उपरांत, कुषाणकालीन सूर्य देव कि प्रतिमाएँ हैं, जो कि प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से दूसरी शताब्दी ईस्वी के बीच की हैं। इनमें मध्य एशिया के चिन्ह स्वतः ही मिलते हैं जिसमे की प्रतिमाये ऊँचे बूट और कमरबंद धारण किए हुए हैं।
गुप्त काल में, चौथी से पाँचवी सदी तक भी सूर्य एक महत्वपूर्ण देवता थे जो की 13वीं शताब्दी तक चलते रहे। आठवीं से तेरहवी सदी में सूर्य अराधना का बहुत ही व्यापक विकास हुआ और इस दौरान कई वृहद सूर्य मंदिरों का निर्माण हुआ। जिनमे प्रमुख हैं जम्मू और कश्मीर का मार्तण्ड सूर्य मन्दिर (8 वीं शताब्दी), उत्तराखण्ड का कटारमल मन्दिर (9वीं शताब्दी), गुजरात का मोढेरा सूर्य मन्दिर (1026-27 ईस्वी) और ओड़ीशा का कोणार्क सूर्य मन्दिर (लगभग 1255 ईस्वी)। इसके आलावा राजस्थान में भरतपुर और हिमाचल प्रदेश में भी ऊषा को समर्पित सूर्य मन्दिर है।
लेकिन बाद के समय में सूर्योपासना दो सम्प्रदायों, वैष्णों और शैव, में एकीकृत हो गयी। विष्णु को सूर्य-नारायण की संज्ञा मिल गयी और शिव मार्तण्ड-भैरव के नाम से प्रसिद्ध हुए। सूर्य की प्रचुरता और समृद्धि लाने वाले देवता की पदवी विष्णु और शिव को मिल गयी और इन कार्यों के फलीभूत के लिए इन दोनों देवताओं का आह्वान किया जाने लगा।
हालाँकि सूर्य के वृहद और बड़े पैमाने में सूर्योपासना का प्रचलन कम हो गया है। परन्तु छठ पर्व के रूप में इस उपासना की जीवित विरासत अभी भी प्रचिलित है।