- एनएपीएम टीम
उत्तराखण्ड में लगातार पिछले कुछ वर्षों में दलितों पर दमन की खबरें आती रही हैं। जन आन्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय की ओर से 12.06.2019 को “उत्तराखण्ड में बढ़ते दलित अत्याचार: आगे की राह” विषय पर चर्चा का आयोजन किया गया, जिसमें देहरादून के विभिन्न जनसंगठन प्रातिनिधिक रूप में शामिल हुए। गाँधी मैदान में हुई बैठक में शामिल हुए साथियों ने बहुत आक्रोशित स्वर में दलित अत्याचारों के मुद्दे उठाए।
उत्तराखण्ड आन्दोलन के समय टिहरी जिले के निर्भीक पत्रकार स्वर्गीय कुंवर प्रसून ने कहा था कि यह आन्दोलन दलित विरोधी है। आज दलित बेटियों से बलात्कार व हत्या जैसी लगातार हो रही घटनाओं ने हमें कुंवर प्रसून की दी गयी हिदायत पर सोचने के लिए मजबूर किया है।
आज बलात्कार जैसे घृणित कार्य में भी पंचायत बुलाकर समझौता कराने की कोशिश की जाती हैं, जिसका पैसा भी बाद में नहीं दिया जाता।
30 मई को 9 साल की बिटिया को लेकर उसकी माँ 8 किलोमीटर अकेले दौड़ती रही। और उच्चजाति के गाँव के लोग उसका पीछा कर के उसको वापस लौटने के लिए दबाव बनाते रहे। मगर वह रुकी नहीं तब जाकर केस दाखिल हो पाया। इसके बाद भी लम्बी लड़ाई चली और 11वें दिन जाकर बिटिया का 164 का बयान दर्ज हो पाया। केस में बहुत अनियमितताएं की गयी हैं।
दलित अत्याचार और उसकी समाज में गैर बराबरी की परम्परा को कैसे समाप्त किया जाए ताकि समाज में दलित वर्ग को उनके हक मिल सके और उसके सम्मान की रक्षा हो सके।
दरअसल गलती सोच के स्तर पर है। गलत सोच का विरोध हर स्तर पर होना चाहिए। मुसलमान से नफरत, दलितों से नफरत- यह नफरत कहाँ ले जाएगी? मात्र निर्भया फण्ड बनाने से काम नहीं चलेगा। हमें एकजुट होकर दबाव बनाना पड़ेगा। हम अन्याय नहीं बर्दाश्त करेंगे। एक साथ आकर लड़ने की जरूरत है। बाबा साहब के नाम पर हजारों संगठन हैं। मगर मुश्किल यह है कि एस सी/एस टी एक्ट में 100 में से 2 मुकदमे भी दर्ज नहीं होते। पीड़ित पर चारों तरफ से दवाब पड़ता है, उसका बहिष्कार होता है और दलित हारकर चुप बैठ जाता है।
उत्तराखण्ड के जौनपुर इलाके के में नौ वर्षीय बच्ची के साथ हुई हैवानियत, कुछ दिन पहले विवाह में साथ बैठकर खाना खाने के कारण से युवक जितेंद्र की हत्या एवं उत्तराखण्ड में जगह-जगह, दूर गाँवों में, शहरों में हो रहे दलित अत्याचार की कड़े शब्दों में निन्दा की गयी।
लोगों ने कहा कि दलितों का उत्तराखण्ड राज्य में बराबर का हिस्सा है। उनको प्रताड़ित करना, उनको इंसान ना समझकर बहुत आसानी से उनके साथ कोई भी अपराध कर लेना और फिर उसको बड़े लोगों की पंचायत में दबा देने की परम्परा स्वीकार्य नहीं हो सकती। भविष्य में ऐसा ना हो उसके लिए एक रणनीतिक संघर्ष का भी आह्वान किया गया।
बैठक के बाद में एक प्रस्ताव पारित करके दलित अस्मिता के साथ एकजुटता घोषित की गयी। लम्बे मंथन के बाद तय किया गया कि:- दलितों को ऐसे ही नहीं छोड़ा जाएगा। इन घटनाओं की पुनरावृत्ति ना हो उसको रोकने के लिए उनके संघर्ष में सभी साथ होंगे।
30 जून को “उत्तराखण्ड में दलित अस्मिता” के प्रश्न पर राज्यभर के समाज कर्मी व जनसंगठनों को बुलाया जाएगा।
कु0 शीला, जबर सिंह वर्मा, विमल भाई, रीना कोहली, राजेश कुमार
सम्पर्क- 9927145123, 9718479517
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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