सैक्रामेंटो में दफन है भारतीय क्रान्ति का एक नायक
- सुधीर विद्यार्थी
देश की स्वतंत्रता के लिए विदेशों में रहकर संग्राम करने वाले भारत की निर्वासित सरकार के प्रथम प्रधानमंत्री मौलाना बरकतउल्ला ने एक बार कहा था, ‘मेरे शरीर की खाक मेरे स्वतंत्र देश को पहुचा देना।
मौलाना अमरीका में बनी ‘गदर पार्टी’ के संस्थापकों में से थे।1915 में जब काबुल में भारतीय क्रांतिकारियों की अस्थाई अंतरिम सरकार का गठन किया गया तब उसके प्रथम राष्ट्रपति क्रांतिकारी राजा महेन्द्रप्रताप नियुक्त हुए और मौलाना पहले प्रधानमंत्री। उस समय हिंदुस्तान की इस निर्वासित सरकार ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लेकर संसार को अचंभे में डाल दिया था। वजीरेआजम की हैसियत से मौलाना महान सोवियत नेता लेनिन से भी मिले। उनके साथ राजा महेन्द्रप्रताप और एम.एन.राय भी थे। लेनिन ने भारत के इन निर्वासित क्रान्तिकारियों को वही सम्मान दिया जो एक स्वतंत्र देश के प्रतिनिधियों को दिया जाता है। मौलाना ने उस समय लेनिन को चंदन की एक छड़ी भी भेंट की थी। 1927 में बु्रसेल्स के साम्राज्यवाद विरोधी विश्व सम्मेलन में मौलाना ‘गदर पार्टी’ के प्रतिनिधि की हैसियत से सम्मिलित हुए थे।
विदेषी धरती पर देश की आजादी का अनथक युद्ध करते हुए मौलाना इसके बाद ही भयंकर रूप से बीमार पड़े और फिर 27 सितम्बर 1927 को रात्रि को कैलीफोर्निया की धरती पर उन्होंने अंतिम सांस ली। उस दिन विदेश में ही देश की स्वतंत्रता के लिए संग्राम करने वाले इस महान क्रान्तिकारी को कैलीफोर्निया के निकट चंद प्रवासी भारतीय और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने यह कहकर कफन-दफन कर दिया कि गुलाम वतन में मौलाना ने न लौटने की कसम खाई थी। अब इनकी कब्र उस दिन का इंतजार करेगी जब देश की आजादी के बाद दो गज जमीन क्रांति के इस सूरमा के लिए मादरेवतन की गोद में मिलेगी।
प्रख्यात क्रांतिकारी और चिंतक एम.एन. राय ने मौलाना बरकतउल्ला से मिलकर कहा था, आप स्वदेश जाकर काम क्यों नहीं करते। अंग्रेज आपको फांसी नहीं दे सकते। सिर्फ जेल होगी और उसे काट कर आप मादरेवतन की अच्छी खिदमत कर सकेंगे। मौलाना ने उत्तर दिया था, ‘मैंने कसम खाई है कि मैं गुलाम वतन में नहीं जा सकता।‘
मौलाना जैसे अनोखे लड़वैये और क्रांतिकारी नेता से मिलकर पं0 जवाहरलाल नेहरू भी भावविभोर हो गए थे। मौलाना की ओर देखकर वे बोले थे, ‘ऐसे वीर के रहते हमारी मातृभूमि कैसे गुलाम रह सकती है।‘ यह बु्रसेल्स के साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन की ही बात है।
मौलाना के निधन के ठीक 20 वर्ष बाद देश स्वतंत्र हो गया। पर देश की खाक में लौट आने का मौलाना का सपना 68 वर्शों बाद भीपूरा नहीं हुआ। 1982 से मैंने समाचार पत्रों के माध्यम से निरन्तर मांग की कि मौलाना के अवषेश हिन्दुस्तान लाए जाएं, लेकिन मुझे इस कार्य में सफलता नहीं मिली। इसके 1988 में भारतीय संसद में विशेष उल्लेख के जरिए मौलाना की कब्र को स्वदेश जाए जाने का मामला उठाया गया। उस समय तक हमें पता था कि कैलीफोर्निया में कहीं मौलाना को दफन किया गया था। अमरीका में रह रहे अपने भारतीय मित्रों के सहयोग से मैं उस कब्र को तलाश करने की कोषिषें करता रहा। तबवहां बर्कले में रह रहे मेरे मित्र डॉ. वेदप्रकाश बटुक ने मुझे लिखित रूप से सूचित किया गया कि मौलाना की कब्र का कहीं अता-पता नहीं मिला क्योंकि यहां कब्रें कुछ समय के बाद नश्ट भी कर दी जाती हैं। लेकिन मेरे अनुरोध पर वटुक जी के साथ कश्मीर सिंह, चरण सिंह और गुरूचरन सिंह जख्मी ने इस खोजबीन में निरन्तर लगे रहे। नतीजा यह हुआ कि कैलीफोर्निया के राजधानी शहर सैक्रामेंटोमें मौलाना की कब्र के निशान मिल गए जहां उनके नाम और संक्षिप्त परिचय का एक पत्थर लगा हुआ है। कब्र के चित्र जब मुझे भेजे गए तो अपने मिशन की सफलता परहम अपार प्रसन्नता से भर उठे। यह गदर पार्टी के नायक के स्मारक की खोज का हमारा रोमांचक सिलसिला था जिसके लिए हम 1982 से निरन्तर प्रयत्नशील थे।
नई पीढ़ी नहीं जानती कि मौलाना बरकतउल्ला कौन थे और उनके अवषेशों को भारत लाने का अर्थ क्या है। क्या मौलाना को जानना अपने देश की संस्कृति और उसके इतिहास से परिचित होना नहीं है। स्वतंत्रता के पष्चात कितने ही भारतीय अमरीका की धरती पर गए होंगे, पर वहां जाकर किसी ने उस जमीन पर सोए पड़े भारतीय क्रांति के अनोखे नायक मौलाना बरकतउल्ला की खोजबीन नहीं की, न कोई उस मुल्क में पहुंचकर ऐतिहासिक ‘गदर पार्टी’ के उस भवन को देखने का समय निकाल सका जहां से उस अनोखी क्रान्ति का संचालन किया गया था जिसके सूत्रधार लाला हरदयाल और करतार सिंह सराभा जैसे बलिदानी परम्परा के लोग थे। हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि अमरीका में बसे हमारे कुछ भारतीय मित्रों के प्रयास से ‘गदर पार्टी’ का वह भवन अब ‘गदर स्मारक’ में तब्दील कर दिया गया है जहां ‘गदर पार्टी’ के नेताओं के चित्र तथा स्वतंत्रता संग्राम का कतिपय इतिहास सुरक्षित कर दिया गया है।
मौलाना ने अपना सम्पूर्ण जीवन विदेशों में घूम-घूमकर देश के स्वतंत्रता संग्राम को संचालित करने में खपा दिया था। वे 1829 में भोपाल में जन्मे और बड़े होकर उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड चले गए। वहां से वे कुछ वर्षों बाद लिबरपूल पहुंचकर युनिवर्सिटी के ओरियंटल कालेज में अरबी के प्रोफेसर नियुक्त कर दिए गए। वेतन मिलता था पन्द्रह सौ रूपए। आराम की जिंदगी बिताने के लिए यह पर्याप्त था। पर मौलाना को तो कुछ और ही बनना व करना था जिसके लिए वे समय आने पर बड़े से बड़ा बंधन भी तोड़ सकते थे। इसी समय उनकी भेंट देश के प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई।
मौलाना को तो जैसे रास्ता मिल गया और वे जल्दी ही क्रान्ति की भावना से भर कर मातृभूमि की मुक्ति के लिए ताना-बाना बुनने लगे।
ग्यारह वर्ष इंग्लैण्ड में रहकर मौलाना एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति बन गए थे। इसके पश्चात उन्हें न्यूयार्क जाना पड़ा और वहां वे अरबी की शिक्षा देने का कार्य करने लगे। पर कुछ ही दिनों बाद जब वे एक प्रतिनिधिमण्डल में सम्मिलित होकर जापान पहुंचे तो टोक्यो विश्वविद्यालय ने उन्हें उर्दू का प्राध्यापक नियुक्त कर लिया। वहां रहकर मौलाना ने ‘इस्लामिक फ्रटर्निटी’ नाम से जापानी और अंग्रेजी भाशा में एक पत्र भी प्रकाशित किया जिसके माध्यम से उनकी योजना अंग्रेजी साम्राज्यवाद पर प्रहार करने की थी, लेकिन टोक्यो स्थित ब्रिटिश राजदूत के दबाव से उन्हें विश्वविद्यालय की सेवा से पृथक कर दिया गया। जापान में रास्ता उतना साफ न देखकर मौलाना ने फ्रांस चले जाना उचित समझा जहां चैधरी रहमत अली के नेतृत्व और क्रांतिकारी रामचन्द्र के सहयोग से ‘इन्कलाब’ प्रकाशित होता था। मौलाना अधिक दिन वहां भी न ठहर सके और वे कैलीफोर्निया के प्रमुख नगर सैनफ्रांसिसको जा पहुंचे। उन्होंने लाला हरदयाल और भाई परमानंद के साथ मिलकर अमरीका और कनाडा के प्रमुख नगरों में सभाएं कीं और प्रवासी भारतीयों को क्रांति की पे्र्ररणा दी। परिणाम यह हुआ कि वहां नई नगरों के गुरूद्वारे उस समय भारतीय राजनीति के प्रमुख केन्द्र बन गए और वहीं ‘गदर पार्टी’ का जन्म हुआ। उस समय डेढ़ सौ भारतीय उसमें शरीक हुए। बाद को 1857 के ‘गदर’ की स्मृति में जो सभा हुई उसमें पहली बार पन्द्रह हजार डालर जमा किया गया। उस समय मौलाना ने अंग्रेजों के विरूद्ध एक बड़ा ही ओजस्वी भाषण दिया जिसका अंश इस प्रकार है:
‘वीरो उठो! तुम्हारे पास अब इतना समय नहीं है। विप्लव करने’ क्रांति लाने के लिए जीवन बलिदान कर दो। यूरोप में युद्ध छिड़ा हुआ है। वीरो उठो! शीघ्रता करो। सब सरकारी करों को देना बंद करो। सारे भारत में गदर मचा दो। हमें ऐसे वीर बलिदानी योद्धा चाहिए जो भारत में विप्लव मचा दें। उनका वेतन—मृत्यु, पुरस्कार–बलिदान और पेंशन–देश की आजादी। वीरो उठो! अपनी आंखें खोलो। गदर के लिए दिल खोलकर दान दो। गदर मचाने के लिए भारत चलो।। देश की स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन बलिदान कर दो।,
मौलाना बरकतउल्ला के जीवन और क्रान्तिकर्म को आज देशवासी नहीं जानते। सही तो यह है कि उन्हें मौलाना के कृतित्व से परिचित भी नहीं कराया गया। कहा जाता है कि रूस में मौलाना बरकतउल्ला का आज भी बहुत सम्मान है। ‘नेहरू एवार्ड’ से सम्मानित रूसी मितेरांरिक्र ने एक बार अपने साक्षात्कार में कहा था कि भारत सरकार को इस ओर ध्यान देकर मौलाना के अवषेशों को स्वदेश जाने का प्रयत्न करना चाहिए।
यह हैरत की बात है कि अमरीका में बनी मौलाना की अंतिम आरामगाह पर हमारे देश को कोई प्रतिनिधि या नागरिक एक बार भी उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने नहीं पहुंचा। स्वतंत्र भारत के किसी प्रधानमंत्री को क्रांतिकारियों की निर्वासित अंतरिम सरकार के प्रथम प्रधानमंत्री मौलाना बरकतउल्ला की याद नहीं आई जबकि पं0 नेहरू उनके नाम और काम से बखूबी परिचित थे। यह सचमुच हमारी इतिहास विमुखता है जिस पर लज्जित हुआ जा सकता है।
लेखक क्रन्तिकारी इतिहास के अन्वेषक व विश्लेषक हैं|
सम्पर्क- +919760875491, vidyarthisandarsh@gmail.com
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