मुद्दा

भ्रष्टाचार का सामाजिक विज्ञान

 

भ्रष्टाचार की समस्या एक लम्बे अरसे से हमारे समाज में है किन्तु उसका विधिवत अध्ययन करना हमने जरुरी नही समझा क्योंकि हम आपने आप को खुद से ही ईमानदारी के ताम्रपत्र (सर्टिफिकेट) सुसज्जित किये हुए है। भारत के विद्वानों ने जातिवाद, साम्प्रदायिकता, केन्द्र राज्य सम्बन्ध, आर्थिक समस्या आदि विषयों पर्याप्त चर्चा-परिचर्चा और लेखन भी किया, किन्तु शायद ही किसी बड़े विद्वान (पब्लिक फिगर) ने भ्रष्टाचार की प्रक्रिया को समझने या समजने की कोशिश की हो। दिलचस्प यह है कि इस दौरान भ्रष्टाचार की समस्या कठिन से कठिनतर होती चली गयी और आज स्थिति यह है कि यह एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में हमारे सामने मौजूद है। भ्रष्टाचार जब तक समस्या रहता है तब तक लोगों को कष्ट देता है किन्तु समाज के लिए खतरा नहीं बनता। यह एक ऐसी चुनौती है जिसका मुकाबला किए बगैर सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखना सम्भव नहीं है।

भारतीय भ्रष्टाचार

गाँधी जी असहयोग आन्दोलन के जरिए भारत का शुद्धिकरण चाहते थे। भ्रष्टाचार और राजनीतिक आतंकवाद उन्हें परेशान करते थे। इसीलिए 6 दिसम्बर 1928 के यंग इंडिया में उन्होंने लिखा, ‘एक दिन भ्रष्टाचार सबके सामने आएगा, भ्रष्टाचारी चाहें उसे जितना छिपाने की कोशिश करें’। इसलिए ये हरेक नागरिक की जिम्मेदारी होगी कि वह भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाए और अपने अधिकारों के लिए लड़े। आजादी के पूर्व भारत के नेताओं में बहुत हद तक नैतिकता, देशसेवा की भावना, समता की भावना एकजुटता आदि देखा गया लेकिन आजादी के बाद भारतीय राजनीति जिस तेजी से भ्रष्टाचार का शिकार होती गयी। यह एक अलग कहानी है, सबसे बड़ी बात यह है कि भ्रष्टाचार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने की दिशा में कोई कोशिश दिखाई नहीं देती।Telangana Second Most Poor Performing State In Curbing Corruption ...

भारत मूलतः एक गरीब देश है जहाँ कुछ संपन्न तबकों द्वारा विलासितापूर्ण जीवन शैली को बनाए रखने के लिए भ्रष्टाचार की ओर आँखें मूंदे रहना अनिवार्य है। शुरू में भ्रष्टाचार के प्रति उदासीनता थी अब यह सार्वजनिक जीवन के आवश्यक अंग बन गया। भ्रष्टाचार अब राजनीतिक कर्म की परिणति नहीं बल्कि राजनीति विकास का माध्यम है। आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शायद सबसे अच्छी समझ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की उस टिप्पणी से हासिल होती है जो उन्होंने विवाह नाम की संस्था पर की थी

विवाह अधिकतम प्रलोभनों और अधिकतम अवसरों को एक जगह ला देता है

सच्चिदानंद सिन्हा ने इसके आधार पर व्यवस्थित भ्रष्टाचार का एक विश्वसनीय सिद्धांत पर प्रकाश डालते है जिसमे दो बिन्दुओं पर विशेष बल दिया गया है केन्द्रीय व्यवस्था और उपभोगवाद, उपभोगवाद भ्रष्ट होने की लालसा पैदा करता है और व्यवस्था का केंद्रीकरण भ्रष्ट होने के अवसर मुहैया कराते हैं। विकसित देशों में सामान्य जीवन का लघु भ्रष्टाचार लगभग समाप्त हो गया है। एक दिलचस्प कहावत है कि नेता किसी काम को मना नहीं करते और अफसर किसी काम के लिए हाँ नहीं करते आप पाएँगे कि यह इनकार और इकरार दोनों का लक्ष्य एकही है और दोनों अपनी-अपनी तरह से उस लक्ष्य की ओर से अग्रसर है।

भ्रष्टाचार का असर हमारे जीवन को कई तरह से प्रभावित करता है पहले बेटी की शादी के लिए लड़के तलाशते वक्त समय उसका चरित्र और उसकी पढ़ाई देखी जाती थी अब लड़के के पास मकान, गाड़ी, कितनी कमा लेता है ऊपरी कमाई पर विशेष ध्यान रहता है भ्रष्टाचार के आरोपी को कानून मुश्किल से ही दण्ड दे पाता है इसके साथ-साथ उसको राजनीतिक संरक्षण आसानी से प्राप्त हो जाता है सबसे बड़ा परिवर्तन यह है कि उस व्यक्ति के साथ हम उठना-बैठना, सेल्फी लेना खुद को गौरव प्रदान करने जैसा महसूस करते हैं यही मनोभाव हमारे व्यक्तित्व, घर, परिवार और समाज के साथ-साथ राष्ट्र की पहचान बनती जा रही है इसी स्वीकार्यता को तोड़ना होगा एक तरफ ईमानदार उपहास का पात्र और वही भ्रष्टाचारी सम्मान का पात्र बनता जा रहा है

1974 में संजीव कुमार की एक फिल्म ‘ईमान’ जिस के विज्ञापन में एक महिला सवाल करती है ईमान क्या है और इसके जवाब में अमीन सयानी कहते हैं ईमान वह है जो हर आदमी दूसरे में ढूंढता है। इसके दो साल पहले मनोज कुमार की फिल्म ‘बेईमान’ रिलीज हुई जो भारतीय समाज में भ्रष्टाचार का जीवन्त चलचित्र प्रस्तुत करती है। एक तरह से 70 के दशक के शुरुआत में ही ईमान नाम की चीज की नियति निर्धारित की जाने लगी थी। उसके बाद देश में राजनीतिक चक्र तेजी से घूम और सब कुछ बदल कर रख दिया। क्या सचमुच ईमानदारी अपनी ताकत खो चुकी है..? इस पर कोई विचार नही करना चाहता क्योंकि यह खुद को आयना दिखाने जैसा होगा।

कार्ल क्रॉस कहा है कि,

भ्रष्टाचार वेश्यावृत्ति से भी बदतर है। वेश्यावृत्ति किसी व्यक्ति की नैतिकता को खतरे में डालती है, भ्रष्टाचार निर्विवाद रूप से पूरे देश की नैतिकता को खतरे में डालता है

राजनितिक भ्रष्टाचार

राजनीतिक घोटालों की लिस्ट इतनी लम्बी है कि यह एक शोध का विषय होना चाहिए पर गाँधी के देश में भ्रष्टाचार पर शोध क्यों हो..?

जहाँ काँग्रेस के साथ बोफोर्स, कामनवेल्थ, 2G, कोयला घोटाला नाम जोड़ा जाता रहा है। जिसे मुद्दा बनाकर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई। भ्रष्टाचार की समाप्ति, काले धन तथा सुचिता की राजनीति की बात भाजपा अपने राजनीतिक घोषणा पत्र में कीथी जबकि वास्तव में स्थिति एकदम विपरीत है जहाँ भाजपा के कई बड़े नेताओ पर भ्रष्टाचार में (व्यापम घोटाला, नीरव मोदी घोटाला, खनन घोटाला, ललित गेट, शारदा चिटफंड घोटाला) संलिप्तता के आरोप लगे हैं जिसकी लीपापोती करने के लिए सरकार भ्रामक मुद्दों को उठाकर मीडिया द्वारा भ्रमित करने की अच्छी तरकीब खोज ली है।

लाल किले के प्राचीर से प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भ्रष्टाचार को दीमक कहा जो हमारे देश को परत दर परत खोखला करते जा रहा है। उन्होंने इसे समाप्त करने के लिए संगठित प्रयास की बात किखासकर पुराने कानूनों की समाप्ति और प्रौद्योगिकी का सही से सदुपयोग, परन्तु अपने खुद के मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को आँख मूंदकर स्वीकृति प्रदान करना, यह उनके दोहरे चरित्र तथाभ्रष्टाचार एवम् काला धन से निपटने की कार्यविधि को दर्शाता है। भाजपा भ्रष्टाचार की पावन गंगा बनी हुई।

Digitalization से कम हुई रिश्वतखोरी ...

अन्तर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने करप्शन इंडेक्स 2019 में 180 देशों में भारत को 80 वा स्थान दिया। जो हमारे देश के भ्रष्टाचार सम्बन्धित अंकगणित को दर्शाता है इस पर किसी भी पक्ष-विपक्ष का कोई सरोकार नहीं है न ही सुधार की कोई गुंजाइश है।

भ्रष्टाचार निवारण के लिए भारत में कई आन्दोलन सिविल सोसाइटी तथा अन्य माध्यमों से चलाए गये परन्तु आज भी आश्वासन के अलावा जनता को कुछ कारगर कानून नहीं मिला वहीं लोकपाल की नियुक्ति तथा उसके कार्य क्षेत्र को लेकर अब भी अस्पष्टता साफ नजर आती है। भ्रष्टाचार निवारण विधायक 2018  ने एक आशा अवश्य दिया है परन्तु इसके कार्य विधि एवं सक्रियता पर अब भी संशय बना हुआ है।

वर्तमान में भ्रष्टाचार से बढ़कर कोई बड़ी समस्या नहीं है क्योंकि जब तक भ्रष्टाचार है तब तक राष्ट्रीय निर्माण का कोई काम पूरा नहीं हो सकता, ना प्रशासन को सक्षम तथा कुशल बनाया जा सकता है, न समग्र आर्थिक विकास किया जा सकता है और न ही सरकारी योजनाओं का जनहित में इस्तेमाल किया जा सकता है यहाँ तक कि शिक्षा और स्वास्थ्य की प्रसार के कार्यक्रम भी खण्डित और अधूरे रहने को बाध्य है। स्पष्टतः भ्रष्टाचार की चुनौती राष्ट्र निर्माण की चुनौती से कम नहीं है। अब यह हम पर है कि हम सामूहिक आत्मा-नाशका रास्ता चुनते हैं या किसी ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष करते हैं जिसमें चमक दमक तो कम होगी, पर सबके लिए नैतिक और सुखमय जीवन बिताना सम्भव होगा।

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संदीप यादव

लेखक जगलाल चौधरी कालेज, छपरा में राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। सम्पर्क- +91 8601539479, sanbhu77@gmail.com
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