आजाद भारत के असली सितारे -9
भूदान के नायक : आचार्य विनोबा भावे
यह महज इत्तफाक था कि मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद सत्य की खोज में घर से भागकर काशी पहुँचने वाले युवक विनायक नरहरि भावे (11.9.1895 – 15.11.1982) को सत्य का सक्षात्कार एक दूसरे गुजराती, गाँधी के दर्शन में हुआ। मालवीय जी के आमंत्रण पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गांधीजी ने व्याख्यान दिया था जिसका सारांश दूसरे दिन विनोबा ने जब अखबार में पढ़ा तो जैसे उन्हें अपनी मंजिल मिल गयी। उन्होंने वहीं से गांधीजी को पत्र लिखा और अनुमति पाकर अहमदाबाद उनके आश्रम में पहुँच गये।
आचार्य विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर 1895 को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में गागोदा नामक गाँव में हुआ था। उनकी मां का नाम रुक्मिणी देवी और पिता का नाम नरहरी शम्भू राव था।उनके पिता बड़ौदा राज्य में टैक्सटाइल इंजीनियर थे।
उनकी माता रूक्मिणी देवी अत्यन्त धर्मपरायण महिला थीं। ब्राह्मण परिवार होने के कारण उनका परिवार धर्म ग्रन्थों के प्रति गहरी निष्ठा रखता था और धार्मिक विधि-विधान का हिमायती था। मां उन्हें प्यार से ‘विन्या’ कहकर बुलातीं थी। विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे, वाल्कोबा और शिवाजी। विनोबा नाम गाँधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का जो चलन है, उसके कारण विनोबा।
विनोबा को अध्यात्म के संस्कार देने, उन्हें भक्ति-वेदांत की ओर ले जाने और वैराग्य की प्रेरणा जगाने में उनकी मां रुक्मिणी बाई की बड़ी भूमिका थी। बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। घर के आध्यात्मिक वातावरण के चलते बचपन में ही उनपर संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, गुरु रामदास आदि की शिक्षाओं का व्यापक प्रभाव पड़ गया था। रामायण, महाभारत आदि की कहानियाँ तथा उपनिषदों के तत्वज्ञान के बारे में वे बचपन से ही जानने लगे थे। गुरु रामदास, संत ज्ञानेश्वर और शंकराचार्य आदि महात्माओं की तरह अपनी आध्यात्मिक तृप्ति के लिए उनका मन भी सन्यास लेकर पहाड़ की कंदराओं में सत्य की खोज के लिए ललक रहा था। इसी तरह के वातावरण में उन्होंने 1915 में हाई स्कूल की परीक्षा पास की किन्तु उनके मन में हिमालय और सन्यास के प्रति आकर्षण बना रहा।
उन दिनों इंटर की परीक्षा के लिए मुंबई जाना पड़ता था। विनोबा भी तय कार्यक्रम के अनुसार 25 मार्च 1916 को मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हुए। उस समय उनका मन डावांडोल था। पूरा विश्वास था कि हाईस्कूल की तरह इंटर की परीक्षा भी पास कर ही लेंगे। मगर उसके बाद क्या होगा ? क्या यही उनके जीवन का लक्ष्य है? विनोबा को लग रहा था कि अपने जीवन में वे जो चाहते हैं, वह औपचारिक अध्ययन द्वारा संभव नहीं है। विद्यालय के प्रमाणपत्र और कालेज की डिग्रियाँ उनका अभीष्ट नहीं हैं। रेलगाड़ी में वे यात्रा जरूर कर रहे थे किन्तु उनका मन कहीं और था। जैसे ही गाड़ी सूरत पहुंची, विनोबा उससे नीचे उतर गयेऔर दूसरे प्लेटफार्म से बनारस की ओर जाने वाली गाड़ी में बैठ गये।
जिन दिनों विनोबा काशी में थे उन्हीं दिनों गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले के कहने पर भारत भ्रमण के लिए निकले थे और काशी में ठहरे हुए थे। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मालवीय जी ने 4 फरवरी 1916 को गांधीजी का व्याख्यान आयोजित किया था। गांधी जी का वह ऐतिहासिक व्याख्यान था जिसमें उन्होंने राजाओं, सामंतों आदि को अपने धन का सदुपयोग राष्ट्र निर्माण के लिए करने को कहा। वह एक क्रांतिकारी अपील थी। अगले दिन उनके भाषण की खबर अखबारों में प्रमुखता से छपी थी और वही विनोबा की मंजिल बन गयी।
विनोबा कोरी शांति की तलाश में घर से नहीं निकले थे। वे देश के हालात और अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अमानवीय अत्याचारों से भली- भाँति परिचित थे, मगर कोई राह मिल ही नहीं रही थी। भाषण पढ़कर उन्हें लगा कि इस व्यक्ति के पास शांति भी है और क्रांति भी। उन्होंने वहीं से गांधी जी के नाम पत्र लिखा था।
7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद तो वे गांधी जी के ही होकर रह गये। गांधी जी ने भी विनोबा की प्रतिभा को पहचान लिया था। इसलिए पहली मुलाकात के बाद ही उनकी टिप्पणी थी कि “अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है।“ काफी दिन बाद अपनी पहली भेंट को याद करते हुए विनोबा ने कहा था,
“जिन दिनों मैं काशी में था, मेरी पहली अभिलाषा हिमालय की कंदराओं में जाकर तप-साधना करने की थी। दूसरी अभिलाषा थी, बंगाल के क्रांतिकारियों से भेंट करने की। लेकिन इनमें से एक भी अभिलाषा पूरी न हो सकी। समय मुझे गांधी जी तक ले गया। वहां जाकर मैंने पाया कि उनके व्यक्तित्व में हिमालय जैसी शांति है तो बंगाल की क्रांति की धधक भी। मैंने छूटते ही स्वयं से कहा था, मेरी दोनों इच्छाएं पूरी हुईं।”
गांधी जी को जैसे ही पता चला कि विनोबा अपने माता-पिता को बिना बताए आए हैं, उन्होंने वहीं से विनोबा के पिता के नाम एक पत्र लिखा कि विनोबा उनके साथ सुरक्षित हैं। उसके बाद उनके सम्बन्ध लगातार प्रगाढ़ होते चले गये। विनोबा ने खुद को गांधी जी के आश्रम के लिए समर्पित कर दिया। अध्ययन, अध्यापन, कताई, खेती के काम से लेकर सामुदायिक जीवन तक आश्रम की हर गतिविधि में वे आगे रहते। गांधी जी का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा था। उतनी ही तेजी से बढ़ रही थी आश्रम में आने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या। कोचरब आश्रम छोटा पड़ने लगा तो अहमदाबाद में साबरमती के किनारे नए आश्रम का काम तेजी से होने लगा। गांधी वैसा ही आश्रम वर्धा में भी चाहते थे। वहां पर ऐसे अनुशासित कार्यकर्ता की आवश्यकता थीजो आश्रम को गांधी जी के आदर्शों के अनुरूप चला सके। इसके लिए विनोबा सर्वथा अनुकूल पात्र थे और गांधी जी के विश्वसनीय भी।8 अप्रैल 1923 को विनोबा, वर्धा के लिए प्रस्थान कर गये। वहां उन्होंने ‘महाराष्ट्र धर्म’ मासिक का संपादन शुरू किया। पत्रिका को अप्रत्याशित लोकप्रियता प्राप्त हुई।कुछ ही समय पश्चात उसको साप्ताहिक कर देना पड़ा। विनोबा अभी तक गांधी जी के शिष्य और सत्याग्रही के रूप में जाने जाते थे। पत्रिका के माध्यम से जनता उनकी एक चिन्तक की छवि निर्मित हो गयी।
“चौबीस वर्ष पहले ईश्वर के दर्शन की कामना लेकर मैंने अपना घर छोड़ा था। आज तक की मेरी जिंदगी जनता की सेवा में समर्पित रही है। इस दृढ़ विश्वास के साथ कि इनकी सेवा भगवान को पाने का सर्वोत्तम तरीका है। मैं मानता हूं और मेरा अनुभव रहा है कि मैंने गरीबों की जो सेवा की है, वह मेरी अपनी सेवा है, गरीबों की नहीं।“
आगे उन्होंने इतना और कहा, “मैं अहिंसा में पूरी तरह विश्वास करता हूं और मेरा विचार है कि इसी से मानवजाति की समस्याओं का समाधान हो सकता है। रचनात्मक गतिविधियाँ, जैसे खादी, हरिजन सेवा, सांप्रदायिक एकता आदि अहिंसा की सिर्फ बाह्य अभिव्यक्तियाँ हैं। ….युद्ध मानवीय नहीं होता। वह लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क नहीं करता। आज का मशीनों से लड़ा जाने वाला युद्ध अमानवीयता की पराकाष्ठा है। यह मनुष्य को पशुता के स्तर पर ढ़केल देता है। भारत स्वराज्य की आराधना करता है जिसका आशय है, सबका शासन। यह सिर्फ अहिंसा से ही हासिल हो सकता है। फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद में अधिक फर्क नहीं है। लेकिन अहिंसा से इसका मेल नहीं है। यह भयानक खतरे में पड़ी सरकार के लिए और परेशानी पैदा करता है। इसलिए गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह का आह्वान किया है। यदि सरकार मुझे गिरफ्तार नहीं करती तो मैं जनता से विनम्र अनुरोध करूंगा कि वे युद्ध में किसी प्रकार की, किसी रूप में मदद न करें। मैं उनको अहिंसा का दर्शन समझाऊंगा, वर्तमान युद्ध की विभीषिका भी समझाऊंगा तथा यह बताऊंगा की फासीवाद, नाजीवाद और साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो अलग-अलग पहलू हैं।”
विनोबा गिरफ्तार हुए और इस बार उन्हें 3 वर्ष के लिए सश्रम कारावास का दंड मिला। इसके पहले नागपुर झंडा सत्याग्रह में वे बन्दी बनाये गये थे। 1937 में गांधीजी जब लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लौटे थे तो जलगाँव में विनोबा भावे ने एक सभा में अंग्रेजों की आलोचना की थी जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था और उस बार उन्हें छह माह की सजा हुईथी।
1937 ई० में विनोबा पवनार आश्रम में आ गये और तब से लेकर जीवन पर्यन्त उनके रचनात्मक कार्यों का यही केन्द्रीय स्थान रहा। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। यह रचनात्मक कार्यकर्ताओं का अखिल भारतीय संघ था। इसका उद्देश्य अहिंसात्मक तरीके से देश में सामाजिक परिवर्तन लाना था।
सर्वोदय का अर्थ है सबका उत्थान। मार्च 1948 में सेवाग्राम में एक अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, पं नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जे.बी.कृपलानी,, शंकरराव देव, काका कालेलकर, दादा धर्माधिकारी, पी.सी.घोष, जयप्रकाश नारायण आदि नेता शामिल हुए थे। सभी की उपस्थिति में सर्वोदय समाज की स्थापना हुई थी।
1950 में सर्वोदय अभियान के अंतर्गत बहुत से कार्यक्रम शुरू किए गये जिसमें मुख्य कार्य भूदान आन्दोलन था। 18 अप्रैल 1951 को तेलंगाना क्षेत्र के पोचमपल्ली गाँव के हरिजनों ने आवास के लिए 80 एकड़ जमीन की व्यवस्था करने का आग्रह किया। विनोबा ने इस संदर्भ में गाँव के जमींदारों से बात की और हरिजनों के हितों की रक्षा के लिए गाँव की कुछ जमीन दान करने को कहा। एक जमींदार रामचंद्र रेड्डी नें 100 एकड़ जमीन दान करने का प्रस्ताव रखा। इस घटना ने भूमिहीनों की समस्या का नया समाधान खोज दिया जिसे भू-दान कहा जाता है। इस घटना से प्रभावित होकर विनोबा ने तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में भी भूदान आन्दोलन शुरू किए।
भूदान एक स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन था। विनोबा जी की कोशिश थी कि भूमि का पुनर्वितरण सिर्फ सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आन्दोलन के माध्यम से, हृदय परिवर्तन के जरिए, गांधी जी के ट्रस्टीशिप के सिद्दांत का सदुपयोग करते हुए किया जाए।
विनोबा पद-यात्राएं करते हुए गाँव-गाँव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीन किसानों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। उस समय पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। आन्दोलन के शुरुआती दिनों में विनोबा ने तेलंगाना क्षेत्र के करीब 200 गांवों की यात्रा की थी और उन्हें दान में 12,200 एकड़ भूमि मिली। इसके बाद आन्दोलन उत्तर भारत में फैला।
बिहार और उत्तर प्रदेश में इसका गहरा असर देखा गया था। 1955 तक आते-आते आन्दोलन ने एक नया रूप धारण किया। इसे ‘ग्रामदान’ के रूप में पहचाना गया। इसका अर्थ था ‘सारी भूमि गोपाल की’। ग्रामदान वाले गांवों की सारी भूमि सामूहिक स्वामित्व की मानी गयी, जिसपर सबका बराबर का अधिकार था। इसकी शुरुआत उड़ीसा से हुई और इसे काफी सफलता मिली। 1960 तक देश में 4,500 से अधिक ग्रामदान गाँव हो चुके थे। इनमें 1946 गाँव उड़ीसा के थे, जबकि महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर था। वहां 603 ग्रामदान गाँव थे। कहा जाता है कि ग्रामदान वाले विचार उन्हीं स्थानों पर सफल हुए जहां वर्ग भेद उभरे नहीं थे। वह इलाका आदिवासियों का ही था।
मगर साठ के दशक में भूदान और ग्रामदान आन्दोलन कमजोर पड़ गया। लोगों की राय में इसकी रचनात्मक क्षमताओं का आमतौर पर उपयोग नहीं किया जा सका। दान में मिली 45 लाख एकड़ भूमि में से 1961 तक 8.72 लाख एकड़ जमीन गरीबों व भूमिहीनों के बीच बांटी जा सकी थी। इसके कई कारण थे मसलन् दान में मिली भूमि का अच्छा-खासा हिस्सा खेती के लायक नहीं था। इसके अलावा काफी भूमि मुकदमों में फंसी हुई थी। अन्य भी बहुत से कारण थे। आज विनोबा का भूदान आन्दोलन सिर्फ स्मृतियों में बचा हुआ है।
सितम्बर,1951 में के.पी.मशरुवाला की पुस्तक ‘गांधी और मार्क्स’ प्रकाशित हुई और विनोबा ने इसकी भूमिका लिखी। इसमें विनोबा ने मार्क्स के प्रति काफी सम्मान प्रदर्शित किया था। कार्ल मार्क्स को उन्होंने विचारक माना था। ऐसा विचारक जिसके मन में गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति थी। किन्तु लक्ष्य तक पहुंचने के तरीके को लेकर मार्क्स से उन्होंने अपना मतभेद व्यक्त किया था। विनोबा कम्युनिस्टों को विध्वंसक नहीं मानते थे और उनसे बातचीत करके तथा उनके लक्ष्य के प्रति सक्रिय सहानुभूति प्रकट करके उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहते थे।
गाँधीजी के शिक्षा दर्शन में विनोबा की गहरी आस्था है। वे शिक्षा में भी शारीरिक श्रम को पहला स्थान देते हैं। वे लिखते हैं, “शरीर के हर अवयव की पूर्ण और व्यवस्थित वृद्धि होना, इंद्रियों का कार्यकुशल बनना, विभिन्न मनोवृत्तियों का सर्वांगीण विकास होना, बौद्धिक शक्तियों का प्रगल्भ और प्रखर बनना, इन सब नैसर्गिक या प्राकृतिक प्रवृत्तियों का विकास ही शिक्षण है।”
शिक्षा सम्बन्धी अपनी इसी व्यापक दृष्टि के कारण विनोबा मानते हैं कि शिक्षा प्रणाली को श्रम के प्रति प्रेम और आदर उत्पन्न करने वाली होनी चाहिए। उनके अनुसार ज्ञान और कर्म, विद्या और परिश्रम, दोनो अगर जुड़ जाएंगे तभी देश की प्रगति होगी। अपनी इन्हीं कसौटियों के आधार पर वे अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को कसते हैं और बताते हैं कि अंग्रेजी तालीम के कारण समाज में विद्वान और अविद्वान- दो वर्ग बन गये। उनके अनुसार शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए और वह सरकारी तंत्र से स्वतंत्र होनी चाहिए।
विनोबा शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम में समन्वय पर जोर देते हैं। गाँधीजी की तरह वे इस तर्क को अस्वीकार करते हैं कि शारीरिक श्रम के कारण मानसिक विकास बाधित होता है। उनके अनुसार शारीरिक श्रम से मानसिक विकास को गति मिलती है।
अनेक भाषाओं के ज्ञाता विनोबा जी देवनागरी को विश्व लिपि के रूप में देखना चाहते थे। भारत के लिए वे देवनागरी को सम्पर्क लिपि के रूप में विकसित करने के पक्षधर थे। वे कहते थे कि, “मैं नहीं कहता कि नागरी ही चले, बल्कि मैं चाहता हूं कि नागरी भी चले।” उनके ही विचारों से प्रेरणा लेकर ‘नागरी लिपि संगम’ की स्थापना की गयी है जो देवनागरी के उपयोग और प्रसार के लिये समर्पित है।
विनोबा भावे की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं। कुछ पुस्तकों का उन्होंने संस्कृत से अनुवाद भी किया है। ‘ईशावास्यवृत्ति’, ‘गीताई-चिंतनिका’, ‘गीता प्रवचने’, ‘जीवनदृष्टी’, ‘भागवत धर्म-सार, ’‘लोकनीती’, ‘विचार पोथी’, ‘साम्यसूत्रवृत्ति’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं।
आजीवन अविवाहित रहते हुए विनोबा ने अपना सारा जीवन देश और समाज के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। रेमन मैग्सेसे पुरस्कार पाने वाले वे पहले व्यक्ति थे। 1983 में उन्हें भारत का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ दिया गया।
1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपात काल की घोषणा की तो विनोबा ने ‘अनुशासन पर्व’ कहकर उसका समर्थन किया था जिसके कारण उनकी काफी आलोचना भी हुई।
आजभूदान आन्दोलन के बारे में विचार करते हुए हमें लगता है कि जो काम भूदान से विनोबा पूरा नहीं कर सके, वही भूमि-सुधार का काम, बाद में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश आदि की सरकारों ने कानून बनाकर सफलतापूर्वक लागू कर दिया। ऐसी दशा में विनोबा के आन्दोलन का लक्ष्य भूस्वामियों से भूदान की अपील करना होना चाहिए था या प्रान्तीय सरकारों से भूमि-सुधार की माँग करने का? यह प्रश्न पुनर्विचार की मांग करता है। आखिर कुछ के पास सैकड़ों एकड़ जमीन और कुछ का पूरी तरह भूमिहीन होना कैसे न्यायसंगत है? आजतक बिहार में यह भूमि-सुधार लागू नहीं हो सका। यही कारण है कि बिहार में बड़ी संख्या में भूमिहीन भी हैं और सैकड़ों एकड़ के भूस्वामी भी। देश के कोने-कोने में दर- दर की ठोकर खाते बिहारी मजदूर जो मिलते हैं उसका यह भी एक कारण है।
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