परचम

दिल्ली में एक और शाहीन बाग

 

करीब 2 साल पहले 15 दिसम्बर 2019 में जब दिल्ली के जामिया नगर इलाके में शाहीन बाग आन्दोलन शुरू हुआ था तो वह मीडिया की सुर्खियों में इस कदर छाया कि दुनिया भर की निगाहें उसकी तरह आकर्षित हुईं। इस आन्दोलन का असर इतना हुआ कि देश के कई शहरों में शाहीन बाग की तर्ज़ पर सीएए को लेकर आन्दोलन शुरू हो गए। इस आन्दोलन के खिलाफ शहरी सवर्ण मध्यवर्ग आगे आया और उसने आन्दोलन के कारण सड़क बंद होने का मुद्दा अदालत में खटखटाया जिसका नतीजा यह हुआ कि  उच्चत्तम न्यायालय के एक आदेश के बाद यह आन्दोलन समाप्त हो गया। उस आन्दोलन में बूढ़ी बूढ़ी मुस्लिम महिलाओं ने भी भाग लिया था और उस आन्दोलन में भाग लेने वाली 82 साल की एक वृद्ध महिला को विश्वप्रसिद्ध पत्रिका “टाइम” पत्रिका ने कवर पर छापा।

इस बीच कोविड आ गया और मामला रफा दफा हो गया लेकिन दो साल बाद राजधानी में एक और शाहीन बाग आन्दोलन शुरू हो गया। यह सीएए को लेकर नहीं चल रहा और इसमें मुस्लिम महिलाएं भी नहीं हैंपर यह भी महिलाओं का आन्दोलन है और इसका  एक नेत्री कर रही है और उसने भी कई देशों का ध्यान आकर्षित किया है। पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव और रूस यूक्रेन युद्ध के कारण मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अभी इस आन्दोलन को तवज्जो नहीं दी है  लेकिन सोशल मीडिया पर उसकी खबरें अब आने लगी हैं और अंग्रेजी के कुछ अखबारों ने भी उसे छापा है।

यह आन्दोलन आंगनवाड़ी महिला कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का आन्दोलन है। इसकी गूंज आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक पहुंच गई है। इस आन्दोलन की नेत्री शिवानी कौल जैसी युवा तेज तर्रार और निडर महिला है। दिल्ली आंगनबाड़ी वोमेन्स एक्टिविस्ट एंड हेल्पर्स यूनियन के बैनर तले करींब 22 हज़ार महिलाओं का यह आन्दोलन शाहीन बाग की याद दिलाता है। इस आन्दोलन में जाड़े की ठंड भरी रात में महिलाएं धरने पर रात भर बैठी रहीं। उन्होंने दिल्ली सरकार के महिला बाल विकास मंत्रालय के दफ्तर को कई दिन रात भर घेरे रखा।

जो महिलाएं रात भर धरने पर बैठती थी वे सुबह चली जाती थीं और उनकी जगह दूसरी टीम धरने पर बैठने के लिए चली आती थी। इनके धरने में उनके बच्चे भी साथ मे बैठने लगे और वे अपनी मां के साथ बैठकर होम वर्क करने लगे तथा परीक्षाओं की तैयारियां भी करने लगे। यह वाकई अनोखा आन्दोलन है। ऐतिहासिक भी। 8 मार्च को इन महिलाओं ने एक बड़ा ऐतिहासिक मार्च निकाला और पुलिस की बेरिकेडिंग को तोड़कर धरना दिया। पुलिस शुरू में अड़ी रही लेकिन इन महिलाओं की ताकत और साहस के सामने असहाय बन गयी। यूँ तो यह आन्दोलन आंगनबाड़ी महिला कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के मानदेय बढ़ाने को लेकर है। पर उनकी कई अन्य मांगे भीं हैं।

वैसे यह आन्दोलन केवल दिल्ली में नहीं बल्कि हरयाणा में भी हुआ। इनकी यूनियन ने आंगनबाड़ी महिला कार्यकर्ताओं के लिए मानदेय 25 हज़ार करने और सहायिकाओं के लिए बीस हज़ार करने की मांग उनकी हैं। इन महिलाओं को फिलहाल करीब 11 हज़ार मिल रहे हैं जिनमें 200 रुपए यात्रा भत्ता है। दिल्ली शहर में एक दिन कहीं आने जाने पर कम से कम 100 रुपये खर्च होते हैं ऐसे में 200 रुपए से क्या यात्रा खर्च पूरा हो सकेगा। क्या दिल्ली जैसे शहर में इस महंगाई के दौर में कोई 11 हज़ार रुपए में अपना परिवार चला सकता है?

जाहिर है यह लगभग असंभव है लेकिन केजरीवाल सरकार उनकी मांगों को नहीं मान रही है और उनके मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम ने पिछले दिनों मानदेय बढ़ा कर तेरह हज़ार रुपए किये तो कहा कि देश में सबसे अधिक मानदेय दिल्ली सरकार दे रही है लेकिन उनके झूठ की पोल खुल गयी जब महिलाओं ने बताया कि तेलंगना और कर्नाटक में पहले से 15 हज़ार दिए जा रहे हैं। इस पूरे प्रसंग का दिलचस्प पहलू या है कि हाल में ही दिल्ली सरकार ने विधायकों और मंत्रियों के वेतन में भारी इजाफा किया है लेकिन उनके पास इन महिलाओं को मानदेय बढ़ाने के लिए पैसे नहीं हैं। तब क्या ये महिलाएं गलत मांग कर रही हैं?

लेकिन उनकी मांगों को कोई सुनने वाला नहीं। एक माह से अधिक हो गए पर केजरीवाल ने कोई बयान तक नहीं दिया। अगर वह राजधानी में लोगों को बिजली पानी अस्पताल में इलाज मुफ्त दे सकते हैं तो क्या वे इन महिलाओं की मांग नहीं मान सकते हैं? लेकिन इन महिलाओं की मांग केवल वेतन तक सीमित नहीं। वे आंगनवाड़ी महिलाओं को नियमित करने की भी मांग कर रही हैं और समेकित बाल विकास योजना के निजीकरण को खत्म करने की भी मांग कर रहीं हैं। जिस तरह देश मे हर चीज़ का निजीकरण हो रहा है उसमें अगर इस योजना का निजीकरण हो रहा हो तो कोई आश्चर्य नहीं लगता। यूँ तो मोदी जी ने 2019 के चुनाव से पहले 2018 में आंगनबाड़ी महिलाओं का मानदेय बढ़ाकर 15 हज़ार करने का वादा किया था पर आज वे भी अपने वादे को भूल गए।

अब उस उस वादे के बारे में कोई बात ही नहीं कर रहा है। ऐसे में महिलाओं के पास आन्दोलन करने के अलावा चारा क्या हैं। जब बिहार के छात्रों ने एनटीपीसी परीक्षा में धांधली के खिलाफ रेल रोको आन्दोलन किया तब उनकी मांगों पर विचार के लिए सरकार ने एक कमेटी बना दी लेकिन ये महिलाएं तो शांतिपूर्वक आन्दोलन कर रहीं हैं। उन्होंने कोई हिंसक या आक्रामक रवैया नहीं अपनाया पर वर्तमान सत्ता उनकी बातों को सुनती तक नहीं उल्टे इन महिलाओं को अधिकारियों द्वारा बर्खास्त करने की धमकी दी जा रही और उनका चरित्र हनन किया जा रहा है। इसके विरोध में इन महिलाओं ने प्राथमिकी दर्ज कराने की कोशिश की तो वह भी दर्ज नहीं की जा रही है।

इस आन्दोलन का भविष्य जो भी हो पर एक बात स्पष्ट है कि महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जाग रहीं हैं और लड़ रहीं है। लड़की हूँ लड़ सकती हूँ का नारा इस आन्दोलन को चरितार्थ करता है। इस आन्दोलन से एक और बात प्रमाणित हो रही है कि भारत की सत्ता दिन प्रतिदिन क्रूर और अमानवीय तथा संवेदनशील होती जा रही है। उसकी कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही है और वह आन्दोलन को बदनाम करने लगती है। दिल्ली सरकार कभी इस आन्दोलन के पीछे भाजपा तो कभी कांग्रेस का हाथ बताती है।

उसने इन महिलाओं से वार्ता करने का भी प्रयास नहीं किया। किसान आन्दोलन के समय भी केंद्र सरकार का यही रवैया रहा पर जब विधान सभा के चुनाव आये तो सरकार झुकी और तीनों किसान विरोधी बिल वापस लिए। देश में चारों तरफ एक गहरा असंतोष और बेचैनी व्याप्त है। लेकिन जनता की मांग पर कोई गौर नहीं करता जब तक वह आन्दोलन हिंसक नहीं होता या उससे चुनाव में वोट खिसकने का डर पैदा न होता हो। अगर ये महिलाएं जीतती हैं तो मजदूर आन्दोलन के इतिहास में यह एक उल्लेखनीय घटना होगी

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विमल कुमार

लेखक वरिष्ठ कवि और पत्रकार हैं। सम्पर्क +919968400416, vimalchorpuran@gmail.com
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