आम्बेडकर बहुत फ्रस्ट्रेटड हो गये थे – आनन्द तेलतुंबड़े
(सुप्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक आनन्द तेलतुंबड़े से संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर की बातचीत)
आप ‘रूरल प्रोलेतारियत’ की शब्दावली में बात करते हैं लेकिन बहुत कम दलित इंटेलेक्चुअल इस भाषा में बात करते हैं। ये तो मार्क्सवादी शब्दावली में है। मुख्यधारा की बातचीत में हम अब भी ‘दलितों पर अत्याचार सवर्ण द्वारा किया जा रहा है’ बातें करते हैं। अभी भी इसी फ्रेम में अधिकांश बातें हो रही है?
उस भाषा में कोई दम ही नहीं है। इसलिए सबसे जरूरी है कि आप फर्क करें। पहले जो उत्पीड़न होता था वो उत्पीड़न नहीं था। पहले आप मान लेते थे कि आपकी वही हैसियत है तो क्यों विरोध करेंगे? चुनौती देंगे? अत्याचार तब होता है जब आपने प्रतिरोध किया मुझे। तभी मैं मारूंगा। ऐसे तो नौबत ही नहीं आती। आप पूछिए किसी भी दलित से वो कहेंगे? हाँ भई, मेरा तो यही काम ही है। मै मैला ढो रहा हूँ, ये तो मेरा कर्तव्य है, क्या करेंगे? किसको शिकायत करेंगे? ये तो भगवान ने बनाया है। इस हालत में कैसे उत्पीड़न हो सकता है? इसमें तो मारने की, अत्याचार करने की तो नौबत ही नहीं आती। ये लाइफ वल्र्ड बन गया। ये ऐसे ही रहता है। यही लाइफ वल्र्ड है। जाति समा गयी थी लाइफ में वो एक रूप हो गयी थी। लाइफ वल्र्ड का जो सन्तुलन डिस्टर्ब होता है तब उसमें दिक्कत आने लगती है।
डॉ. आम्बेडकर की लोकतान्त्रिक दृष्टि
ये डिस्टर्ब हुआ जब मैंने कहा कि मुसलमानों के आने के बाद इसमें थोड़ी-थोड़ी डिस्टरबेंस आने लगी। इस्लाम के आने के बाद दलितों या भारतीयों को लगा कि सिर्फ भगवान नहीं बल्कि दूसरा भी अल्टरनेट भगवान होता है। यही धर्म नहीं बल्कि दूसरे तरह का भी धर्म हो सकता है। दूसरी चीजों से एक्सपोज होना, ये बड़ी बात है। विवेकानन्द ने भी कहा है कि हिन्दू धर्म का पाँचवाँ हिस्सा इस्लाम बना तलवार के बल पर नहीं बल्कि अपनी इच्छा से लोग मुसलमान बने।
आजकल आम्बेडकर के तर्कों का इस्तेमाल ब्राह्मणवादी भाजपा कर रही है? कहीं आम्बेडकर के लेखन में ही तो वह बीज नहीं है जिसकी वजह से साम्प्रदायिक शक्तियाँ उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लेती हैं? उदाहरणस्वरूप 1946 में लिखी अपनी किताब ‘शूद्र कौन थे?’ में आम्बेडकर इस निर्णय पर पहुँचे कि दलित क्षत्रिय थे। इतिहासकार रामशरण शर्मा ने आम्बेडकर की आलोचना की थी कि सिर्फ महाभारत की एक कथा के आधार पर इस तरह के नतीजे निकालना सही नहीं है।
क्या है कि आम्बेडकर की बहुत प्रशंसा भी किया गया है। आम्बेडकर का जो पॉलिटिकल लेखन है, जैसे ‘शूद्र कौन थे?’, वो उन्होंने राजनीति में आने के बाद लिखा। उन्होंने जो कुछ भी लिखा वो पॉलेमिक्स था उनको चूँकि कुछ स्कोर करना था इसलिए वैसा लिखा। उस आदमी की कुछ निजी सीमाएँ थीं, वह दूसरा कारण है। मैंने 1995 में लिखा था उस पर काफी विवाद हुआ था कि आम्बेडकर को दो बातें समझ ही नहीं आयीं। उसकी वजह से उन्होंने बहुत सारी गलतियाँ कर रखी थी। ये दो बातें थी स्टेट और रिलीजन। इन दो मसलों को लेकर उनकी साफ समझ नहीं थी।
अम्बेडकर के बिना अधूरा है दलित साहित्य
हिन्दू कोड बिल के मसले पर आखिरकार आम्बेडकर को क्यों नेहरू कैबिनेट छोड़ना पड़ा?
हिन्दू कोड बिल भी बहाना है दरअसल मूल बात ये थी कि कैबिनेट में उनसे ठीक से व्यवहार नहीं किया जा रहा था। इस कारण वे कैबिनेट बाहर आने के मौके की तलाश में थे। तो हिन्दू कोड बिल एक बहाना हो गया था। वे बहुत फ्रस्ट्रेटड हो गये थे। वो आत्ममूल्यांकन कर रहे थे कि मैंने क्या किया, क्या खोया क्या पाया? इस तरह की बात थीं। 1953 से उनके शिष्य हैं, वे गये थे महाराष्ट्र उनसे मिलने। तब तो शिड्यूल्ड कास्ट फेडेरेशन था। औरंगाबाद की यूनिट उनसे मिलने गयी। उनलोगों से आम्बेडकर ने कहा कि अब तक जो कुछ भी मैंने किया उससे शहरी इलाके के लोग ही लाभान्वित हुए हैं। लेकिन मैं अपने ग्रामीण भाइयों के लिए कुछ नहीं कर सका। तब आम्बेडकर ने पहली बार कहा ‘क्या आप लोग कुछ भूमि के सवाल पर कुछ कर सकते हैं?’ हमारे जो रूरल दलित लैण्ड पर निर्भर करते हैं उनके लिए कुछ आन्दोलन कर सकते हो क्या आन्दोलन?
रक्त के मिश्रण से ही अपनेपन की भावना पैदा होगी
तब पहली बार भूमि संघर्ष औरंगाबाद के मराठवाड़ा में हुआ। उसी इलाके में उनके देहान्त के बाद गायकवाड़ ने 1959 में और एक सत्याग्रह किया। उसमें कम्युनिस्ट भी थे। वो कांगड़ी और मराठावाड़ा के बीच का इलाका है वहीं हुआ। तो उसमें हुआ उसमें कम्युनिस्ट और दलित दोनों जेल गये। कम्युनिस्ट ज्यादा संख्या में थे दलितों से, नॉन दलित भी थे उसमें जाति के हिसाब से। अपील होने लगा था लोगों में इसका। पहले सत्याग्रह में भी 1700 लोग जेल गये। फिर ये 1959 में डिस्पाट दि फैक्शन ऑफ़ रिपब्लिकन पार्टी दादा साहब गायकवाड़ ने संगठित किया 1964-65 के सत्याग्रह में बहुत बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। इसने इलार्म किया। फस्र्ट टाइम मैटेरियल डिमांड ऑफ़ द दलित केम टू फोर। दिस वाज द थ्रेट टू द रूलिंग क्लासेस, यू नो। तो उसने रिस्पांस में कोऑप्शन की पालिसी एडोप्ट की। फस्र्ट ऑफ़ द विक्टिम बिकेम द दादा साहब गायकवाड़ हिमसेल्फ। यशवंत राव चह्वान जो उस समय मुख्यमन्त्री थे महाराष्ट्र के, उन्होंने गायकवाड़ को राज्यसभा में ऑफ़र किया। आम्बेडकर की तरह गायकवाड़ भी जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं तो मराठी में बोले कि ‘गाजरी द पूंगी वासली त वाजली नहीं त खोम टाकली’ नहीं समझे? गाजर वो होती है जो ‘बजी तो बजी नहीं तो निगल जाऊँगा’ लेकिन अन्ततः सत्ता ने गायकवाड़ को ही निगल लिया।
हमलोग जैसे आर.एस.एस की ओलाचना करते हैं कि वो आजादी के आन्दोलन में शरीक नहीं थे यदि इस पैमाने पर देखें तो आम्बेडकर का भी रिकॉर्ड अच्छा नहीं था। वे वायसराय की काउंसिल में रहे। हमेशा अंग्रेज़ों की नजर में अच्छे बने रहे।
जो कुछ भी आम्बेडकर ने करना चाहा। कभी न कभी खुद ही अपने जीवन में महसूस किया कि वो फेल्योर हैं, असफल हैं। ये आरग्यूमेंट की बात नहीं है। लेकिन भक्त लोग हैं। उनका क्या कहा जाए?
कहा जाता है कि गोविंद पानसारे, जिनकी हत्या कर दी गयी, द्वारा किताब एक किताब में आम्बेडकर का एक पत्र है जिसमें उन्होंने बताया कि आम्बेडकर ने इच्छा जाहिर की थी 1952 के चुनाव के बाद कम्युनिस्ट पार्टी ज्वायन करने की बात।
गायकवाड़ को चिट्ठी लिखा था कि वो दो-तीन लाइन की चिट्ठी है कि आम्बेडकर खुद लिखते हैं कि ‘आइ डोंट थिंक दैट माई मेथड्स आर वार्किंग’। मराठी में है मैं इंग्लिश में बता रहा हूं। ‘माई मेथड्स आर नॉट वर्किंग बिकॉज पीपुल्स वांट टू ज्वायन कम्युनिस्ट पार्टी, दे मे। इफ कम्युनिस्ट कैन ब्रिंग देम इमीडियेटली।’
राष्ट्र के समग्र विकास के पैरोकार रहे बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर
आम्बेडकर की चिन्ता सही नहीं थी उनको लगता था कि वे दलितों के हितों की सुरक्षा कर पाएँगे। ऐसा कुछ होने वाला नहीं था एक तरह का राजनीतिक नौसिखियापन था आम्बेडकर का। ये दरअसल गाँधी जी की रणनीति थी। गाँधी ने निर्देश जारी किया कि आम्बेडकर को संविधान सभा के भीतर लाओ। गाँधी की रणनीति का कोई जोड़ न था। इस मामले में गाँधी ने कौटिल्य तक को मात दे दी। गाँधी का यह मास्टर स्ट्रोक था। आम्बेडकर को इस कांस्टीट्यूऐंट असेम्बली से क्या मिला? पूरा कांस्टीट्यूऐंट तो दो-तिहाई 1935 के एक्ट का हूबहू है। उनलोगों ने कोलोनियल नुस्खों को अपना लिया।
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