खेल-खिलाड़ी

अदम्य साहस की विराट जीत और भावुक पल…

 

पाकिस्तान पर भारत की विजय से ऐसा लगा कि विश्वकप की जीत से भी ज़्यादा ख़ुशी दे गयी और यह जीत आकार में उससे भी बड़ी हो गयी…। उसमें तो विश्व में नाम होता है – कितनी बार जीते, का दस्तावेज (रेकोर्ड) बनता है। वह खेल की जीत होती है। राष्ट्र को प्रतिष्ठा मिलती है। लेकिन पाकिस्तान-भारत के मुक़ाबले की जीत में स्वाभिमान (बल्कि अहम कह लें) जीतता है, राष्ट्र की शान जीतती है। यहाँ खेल हो जाता है युद्ध, कहना सही भला भले न हो, मामला होता वही है। और यह दोनो तरफ़ होता है। बस, पाकिस्तान की जीत के जश्न में जो एक हिंसक उत्तेजना का भाव होता है, वह भारत का नहीं होता। यहाँ वह समारोह होता है, उत्साह होता है, जिसमें जन-जन को दिली ख़ुशी होती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो हम अपनी जीत मनाते हैं – हाँ, पाकिस्तान पर अपनी ख़ास जीत मनाते हैं, लेकिन पाकिस्तान के जश्न भारत की हार के जश्न होते हैं। और कर्मफल व भाग्यवाद वाली सनातनी धारणा की जानिब से कहूँ, तो इसीलिए ये अवसर उन्हें कम देती है कुदरत – अब तक के लेखे बारहवाँ हिस्सा मिला है। लेकिन वस्तुत: तो यह अंतर खिलाड़ियों की प्रतिभा, लगन, मेहनत एवं योजना के चलते होता है।

लेकिन जो भी हो, खेल को युद्ध बना देने का यह जज़्बा किसी भी दृष्टि से जीवन-राष्ट्र-मनुष्य के लिए सही नहीं। इसलिए अवांछित है। इसे रोकना होगा, तभी हम मनुष्य हो पाएँगे। लेकिन यह बढ़ता जा रहा है…। इसके साथ जीवन का तनाव बढ़ता जा रहा है। कल मैच के दौरान साहित्य-वाहित्य पढ़ने वाला मैं तक खुद टीवी से एक मिनट के लिए नहीं हिला। चाय नहीं पी। पानी नहीं पिया…!! जिस सूर्यकुमार यादव पर इधर सबसे अधिक भरोसा हो गया था देश को, उनका विकेट गिरने व फिर इकतीस रन मात्र पर चार विकेट हो गये, तो दीवाली की तैयारी के लिए लगे तीनो कर्मी, बेटा, पत्नी व उनकी बहन…सभी लोग अवाक्-स्तब्ध होके टीवी के इर्द-गिर्द पहुँच के हाथ-पर-हाथ धरे यूँ विजड़ित हो गये – गोया कोई राष्ट्र-शोक का अवसर हो…। मैदान के भारतीयों में ऐसा सन्नाटा पसर गया, जैसे भारत पर किसी देश का क़ब्ज़ा हो गया हो और पाकिस्तानी दर्शकों में विजय का तहलका ऐसा मचा, जैसे भारत पर फ़तह मिलने वाली हो…। यह जुनून और यह अवसाद कितना आवेशी है – प्रसादजी के शब्दों में ‘जो भुलवाता है देह-गेह’…। मिटाना होगा इसे…तभी हम मनुष्य रह पायेंगे…। ख़ैर,

इसी के साथ स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने वाला प्रत्यक्ष असर यह दिखा कि ऐसे क्षण में हर धर्म-जाति का बंदा सिर्फ़ भारतीय था…मैदान में भी और उसकी जीवंत प्रतिलिपि मौजूद रही मेरे घर में भी – वही शायद लिखवा भी रही है आज का लेख…। गृह-कर्मियों के मुखिया हैं हमारे बबलू भाई, जो बस्ती ज़िले के मुसलमान हैं। हमसे कम नहीं, बल्कि रुआंसे हो आये ज्यादा अवसन्न दिखे बबलू…। इसके बाद का मेरा मैच देखना बबलू की आँखो की मार्फ़त ही हुआ। हार्दिक को बल्लेबाज़ी के लिए आते देख बबलू ने सीने पे हाथ रखके कुछ तो दुआ माँगी, कोई तो मनौती मनायी…। और विराट ने बाद में बताया कि उसने आते ही ढाढ़स बँधाया – ‘डू नॉट वरी विराट भाई, हो जायेगा…’। कौन कहेगा कि विराट ने जो करिश्मा कर दिखाया, उसमें हार्दिक के इस उत्साही विश्वास का हाथ नहीं था। 10 ओवर के बाद जो विराम हुआ, उसमें राहुल द्रविड़ मैदान पर आये…लगातार विराट-हार्दिक से बातें करते रहे…उन्होंने सलाहें जो दीं, उसके शब्द तो हमें नहीं मालूम, करने में तब दिखा वो, जब दुतरफ़ा आक्रमण शुरू हुए…। मुझे अपने बचपन की कबड्डी याद आयी, जब हार की कगार पर खड़े हमें कोई वरिष्ठ आके कानी अंगुरिया का बल’ ड़े जाता था और हम किसी एक मृत को ज़िला लेते थी – फिर एक-एक को जिला के स्पर्धा जीत भी लेते थे – वही बल सिद्ध हुआ द्रविड़ का आना…।

शुरुआत बेशक हार्दिक ने की, लेकिन करना तो विराट को ही था – क़ायदे का और श्रेष्ठ नामचीन बल्लेबाज़ है वह। यूँ हमारी मनौतियों में हार्दिक भी था और सर्वाधिक तो चार-छह गेंदों के लिए भी आये, तो डीके था… लेकिन हमारे अचेतन में स्थायी आस्था तो विराट पर ही थी – बस, आत्मविश्वास वैसा न था, जैसा ऐसे गाढ़े में धोनी पर हुआ करता था…। लेकिन हम आश्वस्त बैठे भी थे उसी पर इस दुआ के साथ कि वह आउट न हो और अपनी शैली व कूबत का वह खेल खेल सके, जिसके लिए उसे ‘किंग कोहली’ का नाम मिला है…।

लेकिन विराट ने आज अपनी उस दक्षता का खेल नहीं खेला, जिसके लिए वह जाना जाता है।  मैं उसे चौकों का मास्टर मानता था – वैसे स्टाइलिश चौके कम लोगों को मारते देखा हमने। लेकिन आज उसने ऐसे-ऐसे छक्के भी मारे, जिन्हें देखके युवी-माही जैसे छक्कों के मास्टरों ने भी दांतों ताले उँगली तो दबा ही ली होगी…। गरज यह कि उसकी तकनीक ऐसी सैधान्तिक है कि उसकी बल्लेबाज़ी के बल क्रिकेट के नियम लिखे नहीं, तो तस्दीक़ तो किये जा ही सकते हैं…लेकिन आज उसने वह भी नहीं खेला। आज उसने निहायत ग़ैर पारंपरिक खेल खेला – जिसने बल्लेबाज़ी के सारे नियमों को तोड़के नये नियम बनाये – बल्कि उससे नये नियम अनजाने ही बन गये। ज़िंदगी में कभी ऐसे मौक़े आते हैं कि सारा ज्ञान, सारा कौशल, सारी कला धरी की धरी रह जाती है। अभ्यास व अनुभव से अर्जित आपकी थाती आपसे ऐसा कुछ करा लेती है, जिसकी आपने भी कभी कल्पना न की होगी। इसे हमारे परम आदरणीय पंडित हज़ारी प्रसाद द्विवेदी कहते थे – ‘काल देवता करा लेता है’, जिसे ज्ञान व गायन में ‘सरस्वती की जिह्वा पर’ या ‘कंठ में बैठना’ कहते हैं, वही आज विराट के साथ हुआ। यह होना तब साक्षात दिखा, जब मैच पूरा होने पर किंग कोहली बोलने की स्थिति में भी न बचा था। सब कुछ उलीच के ऐसा निथर गया था कि बस, उसके हाथ उभरे, तर्जनी उँगली आसमान (भगवान) की तरफ़ उठी और उस जवाब को तो दुनिया की कोई भाषा उतने सशक्त ढंग से न बता सकती थी। आँसू ने ही कंठ अवरुद्ध किये, पर आँखों में भरे तो क्या उभरे भी नहीं। फिर भी बबलू के आईने में फ़िराक़ सार्थक हुए मेरी चेतना में –

फ़िज़ा तवस्सुमे सुबहे बहार थी लेकिन, पहुँच के मंज़िले जाना पे आँख भर आयी।

अस्तित्ववाद कहता है कि जब आपके अस्तित्त्व से ऐसा कुछ असंभाव्य हो जाता है, तो आप कुछ देर के लिए अस्तित्वहीन हो जाते हैं – निढाल हो जाते हैं…कोहली का विराट उस वक्त उसी सूक्ष्म में समा गया था – चल रहा था बस दैहिक अस्तित्त्व…। अच्छा हुआ कि वह पेविलियन चला गया, वरना तो आँखें ही बोलतीं धार-धार …। बहरहाल,

क्रिकेट-देवता ने उसके सर पे सवार होके पाँव-शरीर को वैसे मोड़वा कर हाथ से बल्ले को उस तरह घुमवाया न होता, तो बाक़ी सब तो ठीक है, रऊफ के 19वें ओवर की 5वीं-6ठीं गेंद पर जो हुआ, न हुआ होता, जिसने खेल की तक़दीर बदल दी – भारत के क्रिकेट के इतिहास में एक अनहोनी लिख दी। उस देवता को कोहली के ज़ेहन में बिठाने का काम रऊफ की उन चार ज़बरदस्त गेदों ने भी किया, जिसने 12 गेंदों में 31 रनों की दरकार के आँकड़े को आठ गेंदों में 28 रनों की नामुमकिन-सी स्थिति दे दी। तब पाकिस्तानी अवाम के हौसले बुलंदी के चरम पर खड़े हो गये थे और हिंदुस्तानी प्रजा के हौसले ज़मीनदोज़ हो गये थे…। हमारे घर का काम कब रुका, कब सभी चित्र-लिखे की तरह टीवी के सामने जड़ हो गये…का पता ही न लगा…। और तभी आये वे दोनो छक्के, जिसने हमारी जड़ता में चेतना का संचार कर दिया।

अब मेरे घर क्या, पूरी दुनिया के क्रिकेट-प्रेमियों ने तो काम बंद कर दिया होगा, अप्रेमी जन  भी अगले व अंतिम ओवर का रोमांच देखे बिना अपने को रोक न पाये होंगे…। उक्त दोनो ऐतिहासिक छक्कों ने एक ओवर में 16 रनों का हिसाब दे दिया। लेकिन उस ओवर के रोमांच का कर्त्ता तो पाकिस्तान के गेंदबाज़ नवाज़ बने, जिसमें 10-20 प्रतिशत योगदान पूरी टीम ने किया – उन्हीं के फेंके शायद 12वें ओवर से बड़े शॉट मारने की शुरुआत भी हुई थी। नो बॉल पर विराट का छक्का और फिर फ़्री हिट पर ‘आउट या नॉट आउट’ की बहसें भी हुईं। हार्दिक-दिनेश के दो विकेट भी गये। दिनेश के साथ वाइड में भाग के तीन रन का कुतूहल भी बना। और धीर-गम्भीर सूझ-बूझ वाले रवि अश्विन का नाम भी जिताऊ गेंद खेलने के दस्तावेज में दर्ज़ होना था…। लेकिन अश्विन के रन पर कोई तनाव न था। बाज़ी बराबरी पर आ गयी थी। अंतिम गेंद पर जिताऊ रन न भी आता, तो सुपर ओवर की निश्चिंतता तो थी, लेकिन उससे बड़ी थी उस कबाहट में न जाके जीत जाने की प्रबल इच्छा, जो अश्विन ने शान से पूरी करायी। आख़िरी रन बनते ही पलक झपकते भर में कब सूर्या ने आकर विराट को भींच लिया कि ‘काहु न लखा, रहे सब ठाढ़े’…। लेकिन नयनाभिराम था कप्तान रोहित का आके विराट को कंधे पर लेके नाचने का दृश्य – ‘प्रेम न हृदय समात’। वही तो समझता था – इस जीत की प्रतियोगिताई की असली क़ीमत को और हार के ख़ामियाज़े को…।

पाकिस्तान के जीते मैच को विराट के कौशल और उससे अधिक उसके साहस ने उसके मुँह से छीन लिया। इस दौरान सूर्या के आउट होने से लेकर देश जिस तनाव में मुब्तिला हुआ था, उसकी हल्की सी सिकन भी हार्दिक के आने के बाद से अंतिम गेंद पर जीतने तक विराट के चेहरे पर क़तई न दिखी थी – वह ग़ज़ब के आत्मविश्वास से लबरेज़ था। इसी दृढ़-संकल्प के लिए बाबा ने ‘त्रिपुरारी’ शब्द का प्रयोग किया है – ‘भाविउ (निश्चित भविष्य) मेटि सकहिं त्रिपुरारी’, जिसे विराट ने सच करके दिखा दिया। सभी ने एक स्वर से इसे ‘विराट की सर्वोत्तम पारी’ कहा, लेकिन रोहित ने सच ही इसे ‘पूरे भारतीय क्रिकेट की सर्वोत्तम पारियों में से एक’ कहा। इधर बार-बार असफलता का सेहरा पहनाते हुए तमाम लोग विराट को दल से बाहर करने की बात कर रहे थे, लेकिन आज सिद्ध हुआ कि सभी लोग ग़लत थे और बार-बार मौक़ा देने वाले दल के प्रबन्धन व ख़ास तौर पर कप्तान के विश्वास के पास क्रिकेट व विराट को सही समझने की समझ थी…वही लोग सही थे।

मैच के बाद हुई तमाम प्रतिक्रियाओं और देर तक चलते समारोही संवादों ने भी सिद्ध किया कि इतना-इतना सब कहने के बावजूद न कोई विराट के करिश्मे को पूरा बता पा रहा था, न उसके प्रति सबका प्रेम तृप्त हो पा रहा था…।

और इस जीत की परितृप्ति व आह्लाद की जो छाप हमारे बबलू के रोम-रोम में पुलक बनकर खेल-खिल रही थी, उससे अभिभूत होकर मैं ‘क्या कहूँ-करूँ’, की सोच ही रहा था कि बेटे ने घोषणा की कि उसने किसी प्रचार कम्पनी के साथ बाज़ी लगायी थी और वह साढ़े छह हज़ार रुपए जीत गया है…। बस, मुझे रास्ता सूझ गया और बबलू को ही मैंने ‘ब्रजवासी’ भेज दिया – हम सबकी परम-प्रिय राबड़ी लाने के लिए और कुछ मीठा हो जाये…की गहमागहमी के साथ ज़बर्दस्त स्पर्धा और किंग कोहली की विराट पारी सदा के लिए यादगार बन गयी...

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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