भारत छोड़ो आन्दोलन या अगस्त क्रान्ति भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का अभूतपूर्व क्षण है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में कहें तो राष्ट्रीय जीवन के संदर्भ में यह आन्दोलन उन क्षणों में से है, ‘जब लम्बे समय से दमित किसी राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति के लिए स्वर मिल जाता है।’ यह सच्चे अर्थों में एक ऐसा जनांदोलन था, जिसमें – नेता, कार्यकर्ता और आम आन्दोलनकारी – ये तीनों ही भूमिकाएँ हिंदुस्तान की आम जनता ने निभाई।
अपनी सक्रिय भागीदारी से इस आन्दोलन को मज़बूती देने वालों में छात्र, किसान, मज़दूर, महिलाएँ, ग्रामीण तो थे ही, नौकरी छोड़ देने वाले सरकारी कर्मचारी और देसी रियासतों की जनता ने भी इस आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पुलिस के बर्बरतापूर्ण दमन के सामने, जिसमें मशीनगनों तक का प्रयोग शामिल था, आम भारतीयों ने जिस अप्रतिम साहस और निर्भीकता का परिचय दिया वह अभूतपूर्व था। इतिहासकार फ्रांसिस हचिन्स ने अगस्त क्रान्ति पर लिखी अपनी किताब में भारत छोड़ो आन्दोलन को ‘स्वतःस्फूर्त क्रान्ति’ (स्पांटेनस रिवोल्यूशन) का दर्जा दिया है।
आधुनिक भारत के इतिहास में बीसवीं सदी का तीसरा व चौथा दशक दूरगामी प्रभाव वाली ऐतिहासिक घटनाओं के घटित होने का समय है। वर्ष 1937 के चुनावों के बाद काँग्रेस ने कई राज्यों में मंत्रिमंडलों का गठन किया था। लेकिन दो साल बाद ही अक्तूबर 1939 में काँग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफ़ा दे दिया। काँग्रेस सरकार ने किसानों और श्रमिकों में एक नई उम्मीद और आशा का संचार किया। लेकिन यह भी सच है कि प्रान्तों में काँग्रेस सरकारें किसानों, श्रमिकों और दलितों की अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरा नहीं उतरीं। वर्ष 1939 काँग्रेस नेतृत्व में गहराते संकट का भी साल है, जब त्रिपुर काँग्रेस अधिवेशन से पूर्व और उसके बाद के घटनाक्रम में सुभाष चन्द्र बोस और महात्मा गाँधी के बीच गहरे मतभेद पैदा हो गये और अंततः सुभाष चन्द्र बोस ने काँग्रेस के सभापति पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
वैश्विक संदर्भ में भी वर्ष 1939 व्यापक उथल-पुथल का वर्ष था। इसी वर्ष, सितम्बर के महीने में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई और दुनिया दो परस्पर विरोधी खेमों में बंट गयी। तत्कालीन वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने भारतीयों की राय जाने बग़ैर ही भारत को इंगलैंड के पक्ष में युद्ध से जोड़ दिया। काँग्रेस ने लिनलिथगो के इस क़दम का विरोध किया और माँग की कि भारत दो ही शर्तों पर युद्ध में शामिल होगा। पहला, ब्रिटिश सरकार युद्ध के बाद भारत को स्वाधीनता देने की घोषणा करे और दूसरा, तत्काल प्रभाव से केन्द्र में राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाए। वाइसराय द्वारा ये दोनों मांगें न माने जाने पर काँग्रेस मंत्रिमण्डल ने इस्तीफ़ा दे दिया।
दूसरी ओर, दक्षिण एशिया में जापान के हमले का ख़तरा दिन-ब-दिन गहराता जा रहा था। जापानी आक्रमण की आशंका के साथ-साथ खाद्यान्न संकट भी विकराल रूप ले रहा था। बर्मा से हिंदुस्तान में चावल के आयात में भारी गिरावट दर्ज की गयी थी। बर्मा और मलय क्षेत्र से लौटे शरणार्थियों ने इस संकट को और गहरा कर दिया था। अप्रैल 1942 में क्रिप्स मिशन की असफलता, बढ़ती हुई क़ीमतें, खाद्यान्न का संकट और भारत पर जापानी आक्रमण का भय, ब्रिटिश सरकार का भारतीय नेतृत्व के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया, यह कुछ ऐसी वजहें थीं जिन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन को अवश्यंभावी बना दिया था।
‘करेंगे या मरेंगे’ : महात्मा गाँधी का आह्वान
जनान्दोलनों की प्रवृत्ति और जनता की मनोवृत्ति को गहराई से जानने-समझने वाले महात्मा गाँधी ने भांप लिया था कि यह क्षण जनान्दोलन शुरू करने के लिए सर्वाधिक अनुकूल समय है। इस आशय का एक प्रस्ताव गाँधी ने काँग्रेस कार्यकारिणी की वर्धा में हुई बैठक में रखा, जिसे स्वीकार किया गया। 8 अगस्त 1942 को बंबई में हुई अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की बैठक में महात्मा गाँधी ने आन्दोलन का आह्वान किया। बैठक में भारत छोड़ो आन्दोलन का आह्वान करते हुए गाँधी ने कहा ‘या तो हम भारत को आज़ाद करेंगे या आज़ादी की कोशिश में प्राण दे देंगे। हम अपनी आँखों से अपने देश को सदा गुलाम और परतंत्र बने रहना नहीं देखेंगे। प्रत्येक सच्चा कांग्रेसी, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री, इस दृढ़ निश्चय से संघर्ष में शामिल होगा कि वह देश को बंधन और दासता में देखने के लिए जिन्दा नहीं रहेगा। ऐसी आपकी प्रतिज्ञा होनी चाहिए।’ लेकिन 9 अगस्त 1942 को तड़के ही काँग्रेस के सभी बड़े नेताओं को एक झटके में गिरफ़्तार कर लिया गया।
गिरफ़्तार होने से पूर्व देश के नाम अपने संदेश में महात्मा गाँधी ने लिखा कि ‘हर व्यक्ति को इस बात की खुली छूट है कि वह अहिंसा पर आचरण करते हुए अपना पूरा ज़ोर लगाए…सत्याग्रहियों को मरने के लिए, न कि जीवित रहने के लिए, घरों से निकलना होगा। उन्हें मौत की तलाश में फिरना चाहिए और मौत का सामना करना चाहिए। जब लोग मरने के लिए घर से निकलेंगे केवल तभी क़ौम बचेगी। करेंगे या मरेंगे।’
भारत छोड़ो आन्दोलन का प्रसार
कुछ ही दिनों में भारत छोड़ो आन्दोलन अहमदाबाद, पूना, दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना जैसे शहरों में फैल गया। विश्वविद्यालय और कालेज के छात्रों ने इस आन्दोलन में बड़ी भूमिका निभाई। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़, बलिया, गोरखपुर आदि ज़िलों में आन्दोलन को मज़बूत बनाने में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के छात्रों ने सक्रिय योगदान दिया। बिहार के गया, भागलपुर, सारण, पूर्णिया, शाहाबाद, मुजफ्फरपुर और चंपारण आदि ज़िले भी इस आन्दोलन के सक्रिय केन्द्रों के रूप में उभरे।
डॉ. राममनोहर लोहिया, सुचेता कृपलानी, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ़ अली और जयप्रकाश नारायण सरीखे नेताओं ने भूमिगत रहते हुए आन्दोलन को दिशा देने में और जनता के मनोबल को ऊँचा रखने का काम किया। डॉ. लोहिया और उषा मेहता ने बंबई से ‘काँग्रेस रेडियो’ के जरिये सरकार की आँखों में धूल झोंककर आन्दोलन से जुड़ीं खबरें प्रसारित करने का काम किया। गाँधीवादियों और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा स्थापित फॉरवर्ड ब्लॉक के सदस्यों और क्रान्तिकारियों ने भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। सैकड़ों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने भी अपनी पार्टी की नीति के विरुद्ध जाकर स्थानीय स्तर पर और गाँवों में इस आन्दोलन में हिस्सा लिया। लेकिन न तो हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और मुस्लिम लीग ने भारत छोड़ो आन्दोलन का समर्थन किया और न ही इन दलों के बी.एस. मुंजे, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, विनायक दामोदर सावरकर और मुहम्मद अली जिन्ना जैसे नेताओं ने।
इस आन्दोलन की एक और ख़ासियत थी : समांतर सरकारों की स्थापना। ऐसी पहली सरकार उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में चित्तू पाण्डेय के नेतृत्त्व में बनी। बलिया में चित्तू पाण्डेय के अलावा महानंद मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद मरदाना, पारस नाथ मिश्र सरीखे स्वतन्त्रता सेनानियों ने इस आन्दोलन को व्यापक बनाने में योगदान दिया। दिसम्बर 1942 में बंगाल के मिदनापुर ज़िले में ‘जातीय सरकार’ और 1943 के आरम्भ में महाराष्ट्र के सतारा में ‘प्रति सरकार’ की स्थापना की गयी। ‘प्रति सरकार’ ने कई सकारात्मक क़दम भी उठाए थे। जिसमें गाँवों में ‘न्यायदान मण्डल’ और पुस्तकालयों की स्थापना, शिक्षा को बढ़ावा देना, मद्य-निषेध का कार्यक्रम भी शामिल था।
सरकारी दमन और आन्दोलनकारियों की प्रतिक्रिया
सरकार ने अपनी दमनात्मक कार्यवाही का निशाना भारतीय प्रेस पर भी साधा। नतीजतन नेशनल हेराल्ड, हरिजन और भारतीय भाषाओं में छपने वाले कई अन्य अख़बारों और पत्रिकाओं का प्रकाशन बन्द हो गया। फिर भी हड़तालों और प्रदर्शनों में कोई कमी नहीं आई। पुलिस थानों, कचहरियों, रेलवे स्टेशनों पर हमले बोले गये, सरकारी इमारतों पर तिरंगा फहराने के लिए लोगों ने गोलियाँ खाईं। पर लोगों का साहस डिगा नहीं। फरवरी 1943 में जब गाँधी ने जेल में रहते हुए 21 दिनों का उपवास शुरू किया तो भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रियता के एक नए चरण का आरम्भ हुआ और आन्दोलन बंगाल, उड़ीसा, गुजरात, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश के इलाक़ों में भी तेजी से फैल गया।
भारत छोड़ो आन्दोलन ने कई जगहों पर हिंसक रूप भी लिया। पर आन्दोलनकारियों की हिंसा, औपनिवेशिक राज्य द्वारा किए जा रहे बर्बरतापूर्ण दमन और हिंसात्मक कार्यवाहियों की तुलना में कुछ भी न थी। जनता ने अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति पुलिस थानों और कचहरियों आदि को निशाना बनाकर की, जिन्हें वह औपनिवेशिक सरकार के दमन के औज़ार के रूप में देखती थीं। स्थानीय नेतृत्व और आम जनता की सक्रिय सहभागिता – इस आन्दोलन की दो ख़ास विशेषताएँ थीं। औपनिवेशिक राज्य की मशीनरी को जिस तरह आम जनता ने, जिसमें महिलाएँ भी बड़ी संख्या में शामिल थीं, सड़कों पर खुलेआम चुनौती दी, वह इस आन्दोलन को अभूतपूर्व बनाती है।
रॉबर्ट निबलेट की डायरी का ऐतिहासिक महत्त्व
भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान आजमगढ़ के ज़िलाधिकारी रहे रॉबर्ट निबलेट ने आन्दोलन के दौरान हुए अपने अनुभवों को डायरी में दर्ज़ किया था। जो उनके निधन के बाद वर्ष 1957 में द काँग्रेस रेबेलियन इन आजमगढ़ शीर्षक से प्रकाशित की गयी। अपने इस संस्मरण में निबलेट ने अगस्त-सितम्बर 1942 के दौरान आजमगढ़ और मऊ की स्थिति का आंखों-देखा विवरण प्रस्तुत किया।
रॉबर्ट हॉवर्ड निबलेट (1890-1956) एक एँग्लो-इंडियन अधिकारी थे। अँग्रेज अधिकारियों की नज़र में निबलेट भारतीयों से कुछ हद तक सहानुभूति भी रखते थे। वर्ष 1939 में आजमगढ़ का ज़िला मजिस्ट्रेट और कलेक्टर बनने से पूर्व निबलेट इलाहाबाद, गाजीपुर, अलीगढ़, गोंडा, सीतापुर, बरेली और अल्मोड़ा सरीखी जगहों पर सब-डिवीज़नल ऑफिसर (एस.डी.ओ.) रह चुके थे।
निबलेट की डायरी तत्कालीन आजमगढ़ की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का ऐतिहासिक विवरण देती है। वे आजमगढ़ के कृषि संकट और सांप्रदायिक तनाव का भी ब्योरा देते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सुदूर पूर्व में जापान के आक्रमण का प्रभाव आजमगढ़ पर भी पड़ा। कयोंकि आजमगढ़ के बहुत-से लोग मलय प्रायद्वीप, बर्मा और बंगाल के तटवर्ती इलाक़ों में कार्यरत थे। इन लोगों द्वारा भेजे जाने वाले पैसे से आजमगढ़ को प्रायः 30 लाख रुपये की सालाना आमदनी होती थी। इन क्षेत्रों में लड़ाई शुरू होने के बाद 1941 में, दस हज़ार से ज़्यादा लोग अपना काम छोड़कर इन इलाक़ों से आजमगढ़ वापस लौटे। इस दौरान बर्मा से होने वाला चावल का आयात भी बन्द हो चुका था।
9 अगस्त, 1942 को काँग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया। आजमगढ़ में भी उसी दिन काँग्रेस के प्रमुख नेता सीताराम अस्थाना की गिरफ़्तारी हुई। 10 अगस्त को जब बंबई और अन्य इलाक़ों में काँग्रेस के बड़े नेताओं की गिरफ़्तारी की ख़बर आजमगढ़ पहुँची, तो ज़िले के छात्र हड़ताल पर चले गये। ज़िले के नामी वकील सिद्धेश्वरी मिश्रा के नेतृत्व में इन छात्रों ने सीताराम अस्थाना की तुरन्त रिहाई की माँग की। पर ज़िला प्रशासन ने उनकी माँग को अनसुना कर दिया। नतीजतन 12 अगस्त 1942 को इन छात्रों ने मुख्तारखाना और कलेक्ट्रेट में आग लगा दी। इसी दौरान अपने प्रिय नेता की गिरफ़्तारी और सरकार की दमनात्मक नीति से आक्रोशित ग्रामीणों ने सरायमीर में और दीदारगंज रोड रेलवे स्टेशन के पास रेल की पटरियाँ उखाड़ दीं। तार सेवाएँ भी ग्रामीणों और आन्दोलनकारियों ने बाधित कर दी थीं। फलस्वरूप आजमगढ़ और मऊ के अधिकारी अब इलाहाबाद या बनारस के अपने उच्चाधिकारियों से सम्पर्क में नहीं थे। आजमगढ़ के नोटिफाइड एरिया और कई सरकारी भवनों में भी आन्दोलनकारियों ने आग लगा दी।
आन्दोलन जब तीव्र होने लगा, तभी बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के छात्रों ने औड़िहार स्टेशन को आग के हवाले कर दिया। बनारस-भटनी रेलमार्ग पर पड़ने वाले कई छोटे-बड़े स्टेशनों मसलन, इंदारा, किड़ीहड़ापुर और बेल्थरा रोड रेलवे स्टेशन को आन्दोलनकारियों ने आग लगा दी। गाजीपुर के सादात और तरवा पुलिस थाने पर भी आन्दोलनकारियों ने हमला बोलकर सभी दस्तावेज़ों को जला दिया। इसी दौरान मऊ के नेता गोकरन नाथ शुक्ल की गिरफ़्तारी ने भी आग में घी का काम किया। गुस्साए ग्रामीणों ने पुलिस थानों, डाकघरों और रेलवे स्टेशनों पर हमले किए।
इनमें मधुबन के पुलिस-स्टेशन का घेराव प्रमुख घटना है। निबलेट ने इस घटना का रोमांचक ब्योरा दिया है। मधुबन, मऊ से 23 मील की दूरी पर घोसी-दुबारी रोड और दोहरीघाट-बिलौली रोड पर स्थित है। घाघरा के कछार में बसा यह इलाक़ा, ख़ासकर दुबारी दियारा, किसानों के विद्रोह के लिए जाना जाता था। 15 अगस्त, 1942 को ग्रामीणों और आन्दोलनकारियों की भीड़ ने मधुबन थाने को घेर लिया। उस समय निबलेट पुलिस थाने में ही थे। ग्रामीणों का नेतृत्व करने वालों में बी.एच.यू. के पूर्व-छात्र मंगलदेव शास्त्री और रामबृक्ष चौबे प्रमुख थे। दोनों ने उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘स्वराज हासिल कर लिया गया है।’ इन दोनों ने थाने के स्टेशन ऑफिसर से सभी काग़ज़ात की माँग की। साथ ही, थाने पर काँग्रेस झण्डा फहराने की भी शर्त रखी। अधिकारियों ने इन मांगों को मानने से इंकार कर दिया। जिससे क्रुद्ध ग्रामीणों ने पत्थरबाजी शुरू की।
लाठी और भाला लिए दस हज़ार से ज़्यादा लोगों की इस भीड़ को देखकर निबलेट ने लिखा कि हाथ में लाठी लिए इस भीड़ की हलचल को देखकर ऐसा लगता था ‘जैसे सरपत का कोई समूचा जंगल चलायमान हो!’ इस बीच पुलिस ने हवाई फ़ायरिंग शुरू की। एक नेता राम नक्षत्र तिवारी ने लोगों से कहा कि ‘महात्मा गाँधी के जादू से अब गोलियाँ हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं।’ भीड़ में से कुछ उत्तेजित लोग थाने की ओर बढ़े, पर गोली लगने से बुरी तरह ज़ख़्मी हो गये। आख़िरकार भयानक गोलीबारी की वजह से भीड़ को पीछे हटना पड़ा। वहाँ से भीड़ नवादा की ओर बढ़ी, जहाँ उसने कई सरकारी इमारतों में आग लगा दी।
अपनी किताब में निबलेट आन्दोलनकारियों के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीतियों की समीक्षा करते हैं। वे लिखते हैं कि इस दौरान कमिश्नर ने आजमगढ़ में सारे फैसले ख़ुद लिए और निबलेट को महज़ नाम का ज़िलाधिकारी रहने दिया गया। निबलेट ने एक पुलिस अधिकारी द्वारा ख़ुद निर्णय लेने और उस पर अमल करने पर भी विरोध जताया। आन्दोलन के दौरान अधिकारियों द्वारा प्रतिशोध में की गयी कार्यवाही का भी निबलेट ने ब्योरा दिया है। पुलिस अधिकारियों ने बाबू राधा रमण, अलगू राय शास्त्री, संत बख्श सिंह सरीखे काँग्रेस के नेताओं के घर जला दिये। दोहरीघाट के पास स्थित एक हरिजन आश्रम को भी पुलिस ने आग लगा दी।
निबलेट ने अपने उच्च अधिकारियों को लिखा कि ‘ज़िले में हम आन्दोलनकारियों को नियन्त्रित करने के लिए उन्हें गिरफ़्तार कर सकते हैं, गाँवों पर जुर्माना लगा सकते हैं पर आधिकारिक तौर पर लूट और आगजनी जैसे बर्बर तरीके अपनाना कतई उचित नहीं है।’ पर आन्दोलन से खिन्न और क्रुद्ध अँग्रेज अधिकारियों और पुलिस ने निबलेट की एक न सुनी। उल्टे निबलेट का ही सितम्बर 1942 में आजमगढ़ से बदायूँ स्थानांतरण कर दिया गया। निबलेट ने आजमगढ़ से अपने लगाव को खुले तौर पर अभिव्यक्त भी किया है अपनी इस डायरी में। रॉबर्ट निबलेट ने भारत छोड़ो आन्दोलन के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक कारकों को गहराई से समझते हुए इसे ‘इतिहास की स्वाभाविक प्रक्रिया का हिस्सा’ कहा है।
कहना न होगा कि रॉबर्ट निबलेट की यह डायरी भारत छोड़ो आन्दोलन का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ तो है ही, साथ ही, यह भारत छोड़ो आन्दोलन की पृष्ठभूमि, तात्कालिक राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों, आन्दोलन के प्रसार और आन्दोलनकारियों की गतिविधियों, सरकारी दमन की कार्यवाहियों का भी प्रामाणिक विवरण देती है।