मौसम का मिजाज मापना मुमकिन नहीं
भारतीय मौसम विभाग के वैज्ञानिकों की ओर से कहा गया है कि इस बरस मॉनसून 48 दिन की बजाय लगभग 71 दिन सक्रिय रहेगा, जिसे देश के मॉनसून पंचांग अनुसार सामान्य मॉनसून माना जाता है। केरल में एक जून से दस्तक दे देने वाला मॉनसून धीरे-धीरे देश के अन्य इलाक़ों में आगे बढ़ रहा है। मौसम-वैज्ञानिकों के मुताबिक़ 15 जुलाई से एक सितम्बर तक सक्रिय रहने वाला मॉनसून समूचे देश में 8 जुलाई से 17 सितम्बर तक एक साथ सक्रिय रहेगा और इसका प्रस्थान सोलह दिन विलम्ब से शुरू होगा। इस तरह हम देख सकते हैं कि इस बार मॉनसून के आगमन और प्रस्थान की ज्ञात तिथियों में परिवर्तन हुआ है, किन्तु याद रखा जा सकता है कि राजस्थान के बाड़मेर में 22 दिन ज़्यादा और अहमदाबाद, इन्दौर, अकोला तथा पुरी आदि शहरों में थोड़ी कम बरसात होगी। फिर भी भीगेंगे सभी, भीगेगा देश, बशर्ते कि मौसम विभाग के वैज्ञानिकों का पूर्वानुमान सही साबित हो। हालाँकि अभी तक तो दुनिया में कहीं भी मौसम का मिजाज मापना मुममिन ही नहीं हुआ है।
हमारे देश का मौसम विभाग अभी भी उतना आधुनिक नहीं हो पाया है, जितना कि उसे आजादी के बाद तो कम से कम हो ही जाना चाहिए था? आज भी हमारे मौसम विभाग के पास वैज्ञानिक उपकरणों का अभाव बना हुआ है। यह अभाव वाक़ई अखरने वाली बात है। बगैर आधुनिक उपकरणों के मौसम की सटीक भविष्यवाणी सम्भव नहीं हो पाती है, जिसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ता है। ख़ासतौर से किसानों और मछुआरों को मौसम की सही-सही जानकारी के अभाव में भारी नुकसान होता है, इससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। मौसम परिवर्तन की सूचनाएँ सामान्य जन-जीवन के लिए भी जरूरी है।
मौसम परिवर्तन की अबगैरताओं के लिए सामान्यतः ग्लोबल वार्मिंग को ही जिम्मेदार माना गया है और ग्लोबल वार्मिंग के लिए कार्बन डाइआक्साइड ही प्रमुखतः मुख्य कारण है। कार्बन उत्सर्जन की अधिकता से दुनियाभर में प्रदूषण का विस्तार हो रहा है, जिसने समूचा जन-जीवन और वातावरण ख़राब कर रखा है। मौसम में आ रही विकृतियों के लिए भी बढ़ता प्रदूषण ही जिम्मेदार है। उत्तर भारत में आमतौर पर दिसम्बर का महीना ठंडी हवाओं के लिए जाना जाता है और जनवरी में सर्दियाँ अपने चरम पर होती हैं, जबकि जनवरी में ही पश्चिम से आने वाली हवाएँ भी अपनी रंगत दिखाने लगती हैं। ये हवाएँ भूमध्य सागर-क्षेत्र से उत्पन्न होती हैं।
भूमध्य सागर-क्षेत्र से उठने वाले ये पश्चिमी विक्षोभ ही ठंडी हवाएँ लाते हैं, जो हिमालय से टकराकर कभी उत्तर, तो कभी दक्षिण की ओर निकल पड़ती हैं। ये हवाएँ जब दक्षिण की ओर निकलती हैं, तो वे आद्रता के साथ कभी बारिश भी ला सकती हैं। यहाँ तक कि कुछ ऊँची जगहों पर बर्फ़बारी को भी जन्म दे देती हैं। पिछली बार पश्चिमी विक्षोभ का प्रारम्भ उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश में दिसम्बर के मध्य में ही हो गया था। वैज्ञानिक सूचनाएँ बताती हैं कि पश्चिमी विक्षोभ के कारण होने वाली बर्फ़बारी जरूरी है, ताकि ग्लेशियरों तथा ऊँची पहाड़ियों पर बर्फ़ की मोटी चादर बने और क़ायम भी रहे, किन्तु वर्ष 2019 के पश्चिमी विक्षोभ से पैदा हुई इस दिसम्बर की हवाओं ने हमारे मैदानी क्षेत्रों को बहुत ठंडा रखा। अब कुछ ही दिनों में पूरब से हवाएँ आएँगी और बंगाल की खाड़ी से हवाओं का उठना अपेक्षित है, जिससे ठंडी हवाएँ, गरमी और बारिश आएगी।
जलवायु परिवर्तन के कुछ बिन्दु आर्कटिक के गरम होने से भी जुडे़ हैं। इसी वजह से यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकी देशों में सर्दियों की कथित अनियमितताएँ बढ़ गयी हैं। जैसे-जैसे वातावरण गरम होने लगता है, वैसे-वैसे हवाओं के व्यवहार में भी परिवर्तन की सम्भावनाएँ बढ़ती जाती हैं। समूचा परिदृष्य इस तथ्य से संचालित होता है कि पश्चिमी विक्षोभ कितनी बार बनता है और कितनी बार हमारे पास पहुँचता है? जलवायु परिवर्तन का ठोस आभास हमें सिर्फ़ तभी होता है, जब मौसम अपना कोई चरम चेहरा दिखाता है। बर्फ़बारी बुरी नहीं है; क्योंकि अन्ततः इसी से हमें पानी मिलता है। वर्ष 2019 की शुरूआत औसत से अधिक पश्चिमी विक्षोभ के कारण हुई थी, जिससे समूचा उत्तर-भारत प्रभावित हुआ था। वर्ष 2019 का मौसम चरम सीमाओं का वर्ष था। तापमान में घटत-बढ़त बराबर से ही देखी गयी थी, लेकिन इधर देश और दुनिया का तापमान लगातार बढ़ रहा है।
वर्ष 2100 तक हमारे देश का औसत तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। मौसम वैज्ञानिक बता रहे हैं कि लू चलने की घटनाएँ तीन से चार गुना तक बढ़ जाएँगी और समुद्री जल-स्तर भी स्थिर न रहकर एक फुट ऊपर उठ जाएगा। यही नहीं तेज आँधी-तूफ़ानों की तीव्रता तथा संख्या में भी इजाफा होगा। ये सब जानकारी ’असेसमेंट ऑफ़ क्लाइमेट चेंज ओवर द इंडियन रीजन’ शीर्षक से बनी उस रिपोर्ट में दी गयी है, जिसे पूणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मेटिओरोलॉजी ने तैयार किया है। प्रत्येक चार-पाँच बरस में उक्त रिपोर्ट की समीक्षा की जाएगी। जाहिर है कि तापमान बढे़गा।
वर्ष 1976 से वर्ष 2005 की तुलना में वर्ष 2100 तक सबसे गर्म दिन और सबसे सर्द दिन के तापमान में क्रमशः 4.7 और 5.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की संभावना है, किन्तु अगर मान लिया जाए कि परिवर्तन की परिस्थितियाँ यथावत ही बनी रहती हैं तो इसका अर्थ यही निकाला जाएगा कि क्लाइमेट चेंज की वजह और ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ग्रीन-हॅाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने के लिए कहीं भी कोई कार्रवाई नहीं हुई है, जो कि एक दुःखद निष्कर्ष होगा। यहाँ यह देखा जाना बेहद दिलचस्प हो सकता है कि वर्ष 1951 से वर्ष 2015 के कालखण्ड में मॉनसूनी बारिश छः फ़ीसदी घटी है। ख़ासकर गंगापटटी के मैदानी और पश्चिमी घाट इलाक़ों में बारिश कुछ अधिक घटी है, जबकि इसी दौरान मध्य-भारत के इलाक़ों में बेतहाशा बारिश की घटनाएँ पचहत्तर फ़ीसदी बढ़ी हैं।
इधर देश में सावन का महीना शुरू हो चुका है, जबकि झमाझम बारिश का मौसम इससे पहले ही दिखाई दे गया है। अगर लद्दाख को छोड़ दिया जाए तो मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और बिहार सहित देश के छत्तीस राज्यों और केन्द्र-शासित प्रदेशों में कहीं रिमझिम, तो कहीं झमाझम बारिश हो चुकी है। कुल मिलाकर अब तक के दिनों में मॉनसून अच्छा ही रहा है। जुलाई के पहले हफ़्ते में ही मॉनसून समूचे देश पर छा गया था। इस तरह अब जुलाई मध्य तक 12 से 15 फ़ीसद बारिश हो चुकी है। यह औसत से अधिक है और आगे के लिए अलर्ट जारी कर दिया गया है। अर्थात् संभावनाएँ सकारात्मक ही अधिक दिखाई दे रहीं हैं, किन्तु कहीं-कहीं भारी बारिश भी हो सकती है। आन्ध्र और कर्नाटक में, पश्चिमी मॉनसून की आख़िरी बारिश होगी। फिर भी कहना कठिन है कि कल क्या होगा?
भारतीय मौसम विभाग की उत्तर क्षेत्रीय पूर्वानुमान इकाई का भी यही कहना है कि ’भारत जैसे ऊष्ण कटिबंधीय-जलवायु क्षेत्रों में, मौसम की चरम गतिविधियों का सटीक पूर्वानुमान लगा पाना असम्भव है।’ सब जानते हैं कि हमारे देश की जलवायु सम्बन्धित परिस्थितियाँ न सिर्फ़ भिन्न हैं, बल्कि असामान्य भी हैं। कहीं रिकॉर्ड तोड़ सर्दी है, तो कहीं रिकॉर्ड तोड़ गर्मी है। कहीं रिकॉर्ड तोड़ बाढ़ है, तो कहीं रिकॉर्ड तोड़ सूखा है। कहीं लू-लपट चल रही हैं, तो कहीं मौसम बेहद ही आषिक़ाना है। मौसम की ऐसी चरम गतिविधियों का ठीक-ठीक दीर्घकालिक पूर्वानुमान लगा पाना कैसे सम्भव हो सकता है, जबकि मौसम विभाग के पास अत्यन्त ही संवेदनशील आधुनिक, किन्तु विज्ञान सम्मत उपकरणों का अभाव भी कोई कम नहीं हो?
दीर्घकालिक पूर्वानुमान की घोषणा में मौसम विभाग की पूणे इकाई ने इस बरस सामान्य से कम सर्दी का अनुमान जताया था, किन्तु सर्दियों ने सौ बरस का रिकॉर्ड तोड़ दिया। यहाँ यह भी स्मरण रखा जा सकता है कि मौसम के अनपेक्षित और अप्रत्याषित रूझानों का सटीक पूर्वानुमान लगाने की तकनीक तमाम दुनिया में अभी कहीं भी उपलब्ध नहीं है। बदलता मौसम, पल-पल में बदलता है। पल-पल में बदलते मौसम के बदलते मिजाज को मापना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। मानाकि व्यापक बहुस्तरीय पूर्वानुमान प्रणाली के तहत देशभर के दो सौ पर्यवेक्षण केन्द्रों से मौसम का मिजाज हर तीन घन्टे में मापा जाता है और देशभर की 35 जगहों से सेंसर युक्त गुब्बारों की मदद लेकर वायुमण्डल की प्रतिदिन जाँच-पड़ताल भी की जाती है, किन्तु तमाम तकनीकी तरक्की के बाद भी मौसम का मिजाज मापना अभी मुमकिन नहीं हो सका है।
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