‘चीन पर आरोप लगाना आसान है, किन्तु भारत का वन्यजीव व्यापार भी फल-फूल रहा है’
- संयुक्ता चेमुदुपति से दिव्या गाँधी की बातचीत
संयुक्ता चेमुदुपति ने एक अपराध विज्ञान की शिक्षिका के रूप में अपना कैरियर शुरु किया और अभी वन्य जीव अपराधों की जाँच में अपराध विज्ञान के इस्तेमाल हेतु वन विभाग के अग्रणी लोगों को प्रशिक्षित करती हैं। वे अपराध स्थल को अपराधियों के साथ जोड़ने का प्रशिक्षण देती है। चाहे यह सम्बन्ध मानव डीएनए की रूपरेखा से जोड़ा जाएया जानवरों पर बन्दूक की गोली के निशानों के विश्लेषण से या फिर काले बन्दर के पदचिह्नों का पता लगाकर स्थापित किया जाए। वन्यजीव संरक्षण न्याय, मुम्बई के अपराध विज्ञान की अध्यक्षा चेमुदुपति वन्यजीवों के व्यापार और पशुजन्य बीमारियों के बीच की कड़ी पर बात करती हैं और वे बात करती हैं इसप्रकार की गतिविधियों में बलि का बकरा बनने वाले लोगों पर और इन गतिविधियों के सरगनाओं पर। यह व्यापार वैश्विक स्तर पर होने वाला चौथा सबसे बड़ा गैर कानूनी व्यापार है।
देवदासी प्रथा का कलंक
कोविड-19 जैसी पशुजन्य बीमारियों पर बढ़ता विमर्श वन्यजीवों के इस गैर कानूनी व्यापार पर कठोर कार्रवाई के लिए क्या वैश्विक स्तर पर कहीं ज्यादा संगठित कार्रवाई सामने लाता है ॽ जबकि ध्यातव्य है कि इस महामारी के जिन स्रोतों की अटकल लगाई गयी है, यह भी उन्हीं में से एक स्रोत है।
खैर, यह एक दिलचस्प बिंदु है क्योंकि विश्वभर के संगगठनों ने वास्तव में कोरोना के प्रसार पर ही ध्यान दिया है, और अब इन्होंने अग्रणी देशों से गुहार लगाई है कि इस सूचना का इस्तेमाल इसे समझने में किया जाए कि कैसे गैर कानूनी वन्यजीव व्यापार न सिर्फ वन्यजीवन को खत्म करता है अपितु जंगली जानवरों से बीमारियों को भी फैलाता है।
मेरा मानना है कि गैर कानूनी वन्यजीव व्यापार और और कोरोना वायरस के बीच के सीधे सम्बन्ध को प्रमाणित करने के लिए अभी पर्याप्त सूचना नहीं है; जो ख़ास चीज विचारणीय है, वह यह है कि जब आप किसी जंगली जानवर को उस स्थान से हटाते हैं जहाँ यह महत्वपूर्ण प्रकार्य संचालित करता है, तो उसके अन्दर जो है, आप उसे भी आगे बढ़ा रहे होते हैं। कोई जानवर अपने पारिस्थितिकीय तंत्र में जिस प्रकार्य को करता है, उस प्रकार्य को वहाँ से हटाते हुए आप उस बीमारी को भी आगे बढ़ा रहे होते हैं, जिसे वह जानवर नए इलाके में अपने साथ ले जा सकता है।
आपने कहा है कि जब हम परम्परागत चीनी औषधियों पर ऊँगली उठाते हैं तो हमें अपने देश के अन्दर वन्यजीव व्यापार को लेकर भी आत्मविश्लेषण करना चाहिए।
हाँ, बहुत ही विविधता भरे तरीकों से वन्यजीवों की भारत में खपत होती है। यह खपत बहुत ही सीधे-सरल ढंग की हो सकती है, जैसे शहर में मजमा लगाकर बैठने वाले किसी बाबा द्वारा (कुछ वन्यजीवों के) कुछ तत्वों को अवैध ढंग से बेचना, जैसे गठिया के सम्भावित उपचार के रूप में काँटेदार पूँछ वाली छिपकली को बेचा जाना। यह मंदिर में मोरपंखों का इस्तेमाल हो सकता है या सजावट की चीजों के रूप में हमारे घरों में इनका इस्तेमाल हो सकता है। ये हमारे आभूषणों में काम आने वाले मूँगे हो सकते हैं। काले जादू की प्रथाओं के रूप में ये कुछ गोपनीय चीजें तक हो सकती हैं, उदाहरण के लिए दीवाली के आसपास उल्लुओं की बड़ी मांग रहती है। कारण कि लोगों का मानना है कि इस समय देवताओं को खुश करने के लिए आपको उन्हें बटोरना चाहिए।
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पालूत वन्यजीवों का व्यापार भी बहुत बड़ा है, लेकिन इस बाज़ार का विस्तार से सर्वे नहीं हुआ है। अत: जंगली जानवर जिस परिमाण में कैद है, हम उसके बारे में सटीक रूप से नहीं जानते हैं। लेकिनयह कहना निरापद है कि हर कोई यह जानता है कि उसके निकट के सामाजिक या पारिवारिक दायरे में कोई न कोई जंगली जानवर को पालतू के रूप में रखता है। यह मासूम से हीरामन तोता जैसा कुछ हो सकता है जो वन्यजीव संरक्षण अधिनियम अन्तर्गत संरक्षित है। अथवा यह कोई सितारा कच्छप हो सकता है जो भी इस अधिनियम अन्तर्गत एक अनुसूचित प्रजाति है। तो परम्परागत चीनी औषधियों के ऊपर आरोप लगाना आसान है, जबकि हमारे अपने ही देश में वन्यजीवों की भारी मांग बनी रहती है और वन्यजीवों का गैर कानूनी व्यापार फल-फूल रहा है।
वन्यजीव अपराधों में लगे बुरे लोग जन मानस के लिए हमेंशा अवैध शिकारी ही होते हैं जो उत्पादकों और उपभोक्ताओं की भारी मांग को पूरा करने वाले अक्सर सबसे गरीब लोग होते हैं। वन्यजीव व्यापार जो संसार का चौथा सबसे बड़ा अन्तर्देशीय अपराध है, के वास्तविक खिलाड़ियों को लेकर हम इतना कम क्यों सुनते हैं ॽ
मेरा मानना है कि इसका सबसे आसान जबाव यही है कि इन अपराधों के पीछे जो वास्तविक लोग होते हैं, स्वयं प्रवर्तन एजेंसियाँ भी उनके बारे में नहीं जानती हैं। असल में जमीनी स्तर पर इन गतिविधियों को अंजाम देने वाले लोग निश्चय ही (प्रवर्तन एजेंसियों के) सबसे आसान शिकार होते हैं। आप उनका पता लगा सकते हैं, उन्हें पकड़ना आसान है, उनका फोटो लेना आसान है। उन्हें ऐसी गतिविधि की ओर धकेलने वाली चीज चाहे जो हो, चाहे यह उनका और उनके परिवार का पेट भरने वाली अतिरिक्त आय हो, तथ्य यही है कि कोई होता है जो उसके परम्परागत कौशल का दोहन कर रहा होता है।
उदाहरण के लिए आदिवासी शिकारी जंगल के अन्दर पथप्रदर्शन में, जानवरों के पदचिह्न पहचानने में, उन स्थानों पर उनका पता लगाने में बहुत कुशल होते हैं जहाँ लोग सम्भवतः मर जाए। इस पूरे आख्यान में जो चीज छूट रही है, वह यह है कि इस अवैध व्यापर में सिर्फ यही लोग नहीं होते हैं। शहरों के लोग भी हैं, जो दलाल होते हैं। वैश्विक स्तर पर काम कर रहे लोग भी हैं, जो इस वन्यजीव व्यापार के सरगना होते हैं। वे अपनी जेबें भरने के लिए इन लोगों का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन तथ्य तो यही है कि आप अक्सर यह भी नहीं जानते कि वे अक्सर इस प्रकार के अपराध में शामिल हैं, कारण कि उनके सूत्र बहुत अच्छे हैं, वे साधन सम्पन्न हैं।
अपराध की गहनता से निपटने के लिए क्या भारत को एक अनुशासन के रूप में वन्यजीव अपराध विज्ञान में ज्यादा निवेश करने की जरूरत है ॽ
निश्चय ही। मेरा तो मानना है कि हमें वास्तव में एक पूरी सेना की ही जरूरत है, सिर्फ अपराध विज्ञान के वैज्ञानिकों मात्र की नहीं। विज्ञान को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने में सक्षम ये वैज्ञानिक साक्ष्यों का द्रुत गति से, वैज्ञानिक सटीकता के साथ और पूरी काबिलियत से मूल्यांकन कर सकते हैं। अगर उदाहरण हेतु, आप यू.के. में वन्यजीव अपराध विज्ञान को देखें तो वे अभूतपूर्व नया अनुसन्धान कर रहे हैं। उन्होंने पंखों और अण्डों के छिलकों पर से उंगलियों के निशान लेने की तकनीकें विकसित कर ली हैं।
हमें अपराध विज्ञान के वैज्ञानिकों की जरूरत भारत में न सिर्फ प्रवर्तन एजेंसियों की सहायता के लिए है अपितु क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए भी है। इनकी हमें तत्काल आवश्यकता है।
तो, इस कार्रवाई के साथ जुड़ने, अपराधियों को पकड़ने के लिए हमें और भी वैज्ञानिकों की जरूरत है, विज्ञान को आगे बढ़ाने की जरूरत है। हमें विज्ञान में अभूतपूर्व तरक्की की जरूरत है ताकि हमारे पास अदालत में पेश करने के लिए वास्तव में ही ठोस प्रमाण हो सकें। वहाँ फिर न्यायधीश यह कहने में सक्षम न होंगे कि यह मुकदमा सच नहीं हो सकता; अथवा फिर हमारे पास बचाव पक्ष का कोई ऐसा वकील न होगा जो साक्ष्यों को ढंग से न जमाए जाने या ठीक से विश्लेषण न किये जाने या विश्लेषण में काम ली गयी तकनीक को संदेहास्पद ठहराये जा सकने के कारण किसी मुकदमे की धज्जियाँ उड़ा दे। अपने अदालती कक्षों में हम विज्ञान का जैसे इस्तेमाल करते हैं, उसे लेकर हमें खेल को बदलने की जरूरत है।
दिव्या गाँधी
(अनुवाद:प्रमोद मीणा)
साभार –द हिन्दू
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