ये पाँच साल दमनकारी और डरावने रहे हैंॽ
- दलित नेता और विधायक जिग्नेश मेवाणी का जिया अस सलाम द्वारा लिया गया साक्षात्कार
यह कहना संभवत: ठीक होगा कि अगर ऊना न होता तो राजनीति में जिग्नेश मेवाणी नहीं रहे होते। ‘98 प्रतिशत कार्यकर्ता और 2 प्रतिशत नेता’ होने को स्वयं कबूलने वाले मेवाणी तब प्रसिद्ध हो गये जब वे उन चार दलित युवकों के पक्ष में उठ खड़े हुये जिन्हें जुलाई 2016 में गुजरात के ऊना में कथित रूप से एक गाय का चमड़ा उतारने के लिए कमर तक नग्न करके मारा-पीटा गया था। गुजरात के मोटा समधियाला के निवासी इन सभी युवकों – वशराम सरवैया, उनके भाई रमेश और उनके चचेरे भाई अशोक और बेचर ने हाथ जोड़कर निवेदन किया था कि वे सिर्फ एक मृत गाय का चमड़ा उतार रहे थे किन्तु कोई फायदा न हुआ। उन्हें एक जीप से बाँध दिया गया और सबकी आँखों के सामने उन्हें कोड़े मारे गये।
ऊना के इस हमले ने राज्य भर में और यहाँ तक कि मुंबई, चेन्नई और दिल्ली जैसे स्थलों पर भी दलितों के व्यापक प्रतिरोध को जन्म दिया। दलितों के लिए सुरक्षा और सम्मान की माँग करते हुए गुजरात में मेवानी ने अहमदाबाद से ऊना तक 300 किमी लंबा मार्च निकाला। 10 दिन लंबा मार्च 2016 के स्वाधीनता दिवस को शोषण से स्वतंत्रता की दलितों की प्रतिज्ञा के साथ सम्पन्न हुआ। इस जबर्दस्त जबाव ने यह तय किया कि (गुजरात में) दलितों की लिंचिंग की कोई और घटना न हो।
मेवाणी जल्द ही नरेंद्र मोदी विरोधी प्रमुख आवाज़ बन गये। अब गुजरात विधान सभा के एक सदस्य के रूप में वे ‘फासीवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता’ की ताकतों के खिलाफ आवाज़ उठाना’ जारी रखे हुए हैं और रेखांकित करते हैं कि यह आम चुनाव ‘भारत की आत्मा के लिए (लड़ी जा रही) एक लड़ाई’ है। ‘फ्रंट लाइन’ के लिए जिया अस सलाम को दिये गये उनके एक साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है :
दलितों और अल्पसंख्यकों के संदर्भ में मोदी सरकार के पाँच सालों को आप कैसे देखते हैं ॽ
मैं आपको एक स्पष्ट और सीधा-साधा जबाव दूँगा। ये पाँच साल सबसे ज्यादा आपदादायक, सबसे ज्यादा दमनकारी, सबसे ज्यादा पीड़ाजनक और डरावने रहे हैं।
आप इन्हें डरावने क्यों कहते हैं ॽ हमारे पास सरकार और उसकी अधिनायकवादी प्रवृत्तियों का मुकाबला करने के लिए आप जैसे लोग हैं।
ये डरावने हैं क्योंकि आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) ने मुसलिमों और दलितों के खिलाफ अपने कैडरों को खुली छूट दे दी है। उन्होंने अल्पसंख्यकों और दलितों की आवाज़ कुचलने की कोशिश की है, वास्तव में भारत के उनके विचार का हर एक ने विरोध किया है। वे अपने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को थोप देना चाहते हैं। बहुत गहरे तक वे अभी भी मनु स्मृति की कसमें खाते हैं।
किन्तु ऊना में आपके लंबे मार्च के बाद समाज में सकारात्मक बदलाव हुये हैं।
हाँ, सशक्तिकरण का भाव है। जुड़े होने का और संभवत: सुरक्षित होने का भी भाव है। लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि ऊना के बाद भी अल्पसंख्यकों पर हमले जारी हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दिखावटी फैशन में ऊना के बाद खेद प्रकट किया था। क्या इसने किसी भी तरह दलितों की मदद की ॽ
उनके भाषण के उपरांत एक राहत का भाव था किन्तु यह भाषण बहुत देर से आया था। लेकिन मुझे दोहराना है कि लड़ाई खत्म नहीं है या यह लिचिंग का इकलौत मामला नहीं है। हमला बहुआयामी है और एक ऊना मार्च से यह रुकने वाला नहीं है। इन पाँच सालों में दलित समुदाय पर सतत् हमले हुये हैं। दलितों के खिलाफ हाथ उठाने के लिए लोगों को उकसाया गया है। सौभाग्य से (गुजरात में) दलित लोगों की लिंचिंग नहीं हुई है लेकिन दूसरे हमले हुये हैं। उदाहरण के लिए कुछ स्थानों पर वे घोड़े पर नहीं चढ़ सकते, कुछ अन्य स्थानों पर वे मूँछे नहीं रख सकते। एक स्थान पर दलितों के वैवाहिक जुलूस को ऊँची जाति के मोहल्ले से होकर गुजरने की अनुमति नहीं है। अगर दलित समुदाय का दमन जारी नहीं है तो यह क्या है ॽ
यद्यपि अधिकांश लोगों ने ऊना पर ध्यान केंद्रित किया है किन्तु केन्द्र में भाजपा के शासन के दौरान दलितों की लिंचिंग की यही एकमात्र घटना न थी। राजकोट में एक दलित व्यक्ति को पीट-पीटकर मार दिया गया था। मीडिया ने चुप्पी ओढ़ ली।
दलितों पर हमले ही दमन के एकमात्र सबूत नहीं हैं। हमारे पास आदिवासियों के पक्ष में खड़े होने के लिए या सरकार और उसके मित्र पूँजीपतियों के खिलाफ मोर्चा लेने के लिए मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किये जाने का मसला है।
सरकार की असफलताओं से ध्यान हटाने के लिए दलितों और अल्पसंख्यकों पर हमले या कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी एक रणनीति का हिस्सा है। प्रधानमंत्री के बड़े-बड़े वादों के बाद भी कोई रोजगार सृजित नहीं हुआ है। बेरोजगारी 45 सालों की ऊँचाई पर है। मैं कहूँगा कि कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी भी विपक्ष के साथ-साथ आम आदमी के मन में भय बैठाने के लक्ष्य से थी। हम अघोषित आपातकाल के दौर में रह रहे हैं।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब हम मानव अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी देखते हैं तो वहीं भीमा कोरेगाँव को लेकर भी बहुत कुछ शोरगुल किया जा रहा है क्योंकि वैचारिक रूप से सत्ताधारी दल आदिवासियों, दलितों और मुसलिमों के खिलाफ है। कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने आदिवासियों के पक्ष में और आदिवासी संस्कृति को नष्ट करने की इच्छुक कॉरपोरेट लॉबी के विरोध में आवाज़ उठाई थी। गिरफ्तारी और दमन के ये उदाहरण उस गंदगी की अभिव्यक्ति है जो भाजपा और उसके पूर्ववर्तियों ने 1925 से लेकर अब तक एकत्रित की है। अगर आज जुनैद या अख़लाक की हत्या के सभी आरोपी आज़ाद घूमते हैं तो इसका कारण यही है कि उनके ऊपर राजनैतिक लोगों का हाथ है। यह एक योजना का हिस्सा है। यह वही भय है जिसके बारे में मैं बात करता हूँ।
चुनावी स्तर पर हमें यह (सुनिश्चित करने की) कोशिश करनी है कि ये लोग सत्ता में कभी वापिस न लौटे। लेकिन जब राजनीतिक सत्ता से इन ताकतों को उखाड़ दिया जाये तो हमें नीचे तक फैला दिये गये विष से पीछा छुड़ाने के लिए सामाजिक स्तर पर कार्य करना होगा।
आगे का रास्ता क्या है ॽ क्या हमें भाजपा या मोदी से पीछा छुड़ाना है ॽ
दोनों से, कारण कि भाजपा का एजेंडा अपनी प्रकृति में कट्टर ब्राह्मणवादी, जातिवादी और फासीवादी है। आजादी से पहले (एम.एस.) गोलवलकर ने उनके सामने जो प्रचारित किया था, यह उसी की परिणति है। और कई शताब्दियों पहले उन्हें यही मनु ने सिखाया था। आरएसएस जैसी ताकतों ने वर्तमान सत्ताधारी नेताओं को पैदा किया है। हमें भाजपा और संघ, दोनों से छुटकारा पाना होगा और कहना होगा कि ‘अलविदा मोदी, अलविदा शाह’।
करने की बजाय कहना आसान है। यहाँ तक कि विपक्ष भी संगठित नहीं है। यहाँ तक कि गठबंधन के खेल में कांग्रेस ने भी गड़बड़ कर दी है।
मैं सहमत हूँ। क्रिकेट के सादृश्य का इस्तेमाल करें तो फासीवादी आरएसएस के मोदी और शाह का सामना करना अंतिम ओवर में वसीम अकरम का सामना करने जैसा है जबकि जीत के लिए आपको 20 रन बनाने हों। यह कठिन है किन्तु संभव है। और यह करना होगा। एक कार्यकर्ता के रूप में मैंने मोदी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की है। हम सबको अपने आप को सुनाना होगा और कुछ लोगों द्वारा किये जा रहे शोरगुल को यह अनुमति नहीं देनी है कि वह हमारी आवाज़ों को बहा ले जाये।
क्या पुलवामा चुनाव को प्रभावित करेगा ॽ
इसे खारिज नहीं किया जा सकता। पुलवामा से पहले विपक्ष मजबूत स्थिति में था। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि कुछ लोग पुलवामा पर भाजपा के आख्यान से सहमत हो गये हैं। इस माहौल में हमें गठबंधनों की जरूरत है। भाजपा राजनीतिक दलों के आपसी संबंधों को खराब करने का प्रयत्न करेगी किन्तु हमें कोशिशें जारी रखनी हैं। अगर हम दिल्ली में कांग्रेस और आप (आम आदमी पार्टी) को साथ रख सकते हैं और महाराष्ट्र में प्रकाश अंबेडकर के साथ कुछ आपसी सहमति रख सकते हैं और उत्तर प्रदेश में गठबंधन के साथ, तो चीजें अलग ढंग से सामने आ सकती हैं। हमें यह करना होगा क्योंकि यह आम चुनाव नहीं है। पिछले एक साल से मैं वस्तुत: अभियान चला रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि यह चुनाव हमारे संविधान की आत्मा, विचारों और सिद्धांतों के लिए है।
12 अप्रैल 2019 के फ्रंट लाइन में प्रकाशित साक्षात्कार
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अनुवाद – प्रमोद मीणा
लेखक महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी के मानविकी और भाषा संकाय में सहआचार्य हैं|
सम्पर्क – pramod.pu.raj@gmail.com, +917320920958
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