लोकसभा चुनाव
जब मतदान था एक पवित्र भाव – अरुण कुमार पासवान
बचपन से ही सुनते आए हैं चुनाव, राजनीतिक दल, सरकार, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री।तब पढ़ेलिखे बड़ों से,रेडियो या समाचारपत्र पढ़ने वाले लोगों से कुछ राजनीतिक बातें सुना करते थे।चुनाव के दिनों में नारे सुनते थे,पहले भोंपू से बाद में लाउडस्पीकर से सुनते थे। चूँकि स्कूल में चुनाव प्रक्रिया के बारे में पढ़ाया समझाया जाता था इसलिए बातें समझ में आ जाती थीं, आसानी से।तब चुनाव कभी कभी आते थे और आम चुनाव से ही आमलोगों का वास्ता होता था।मतदान के लिए तैयार हो कर लोग पवित्र भाव से मतदान केंद्रों पर पहुँचते थे और मतदान करके ऐसे खुश होते थे मानो अपने धर्म का निर्वाह करके निकले हों।शायद तब हमारे देश में प्रजातंत्र उतना विकसित नहीं हुआ था।लेकिन ठीक ही तो था सबकुछ।कभी कभी काले झंडे दिखाने की बात भी सुनी जाती थी।पर इसका संकेत समझ कर क्षेत्र के प्रतिनिधि, उम्मीदवार या उनके प्रतिनिधि लोगों के पास हाथ जोड़कर जाते थे,समझौता होता था और लगता था कि प्रजातंत्र में प्रजा की कुछ हैसियत है। लेकिन प्रजातंत्र के विकास के बाद मिलने ,समझाने और समझौता करने के तरीके में जो बदलाव आया उसने तो एक नए युग का ही सूत्रपात कर दिया।इस नए युग में चुनाव लड़ना क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं, क्षेत्र की दबंगई में बदल गया।हालाँकि पहले भी बूथ कैप्चरिंग के जरिए कुछ लोग अपनी दबंगई दिखाते थे लेकिन इस तरह की बात कभी कभार ही सुनने में आती थी।लेकिन बाद में”Politics is the last refuge of scoundrels”वाली उक्ति पर भरोसा होने लगा।सत्ता के विकेंद्रीकरण के नाम पर जो कुछ हुआ उसने राजनीति, चुनाव, प्रतिनिधित्व इत्यादि को कमाई का जरिया बना दिया।बाद में तो वेतन, भत्ते और पेंशन की शुरुआत ने चुनाव को देश का सबसे बड़ा उद्योग बना दिया।नतीज़ा यह हुआ कि पहले जहाँ राजा लोग राजगद्दी का त्याग कर संन्यासी हो जाते थे,वहाँ राजगद्दी
ने संन्यासियों,धर्माधिकारियों के आसन ऐसे हिला दिए जैसे मेनका ने विश्वामित्र का हिलाया था।तुलसी,सूर,कबीर होते तो उन्हें संत शब्द पर पुनर्विचार करने की ज़रुरत पड़ती।और फिर अब्राहम लिंकन की प्रजातंत्र की परिभाषा कुछ यूँ बनती दिखने लगी-Democracy is the government off the people,far the people and buy the people.लेकिन बेशक प्रजातंत्र के विकास ने व्यापार जगत के हर पहलू को अपने से जोड़ लिया।चौबीस घंटों के समाचार चैनल की भीड़ से लेकर राजनीतिक व्यापार के घाघ राजनीतिक दलों के ड्रामेबाज प्रवक्ताओं ने भद्दी भाषाओं में अपने कुतर्कों से जनता को जी भर कर भ्रमित करने की परम्परा चला दी तो न्यूज़ एंकरों ने भी छा जाने के लिये गले फाड़े,बाल झटके और अपनी एंकरिंग से पार्टियों को संकेत दिये कि वे उन्हीं की तरफ हैं।हाँ, तब घोषणापत्र चुनाव के समय ही आते थे।घोषणापत्र बनाने में राजनीतिक दलों की बड़ी माथापच्ची होती थी,क्योंकि ये घोषणाएं उनकी शपथ होती थीं,जिसे न निभा पाने से उनके सर शर्म से झुक जाते थे, लेकिन अब तो घोषणाएँ रोज़ होती हैं,घोषणापत्र तो बस औपचारिकता मात्र है। रही बात शर्म से सर झुकने की तो आप जानते ही हैं, शर्म एक ऐसा गहना है जो अब राजनीति में वर्जित है।मुझे कभी कभी इस बात से हैरानी होती है कि जिस देश में प्रजातंत्र के सर्वाधिक विकसित होने का डंका पीटा जाता है वहाँ मतदान को अनिवार्य घोषित करना पड़ता है,मतदान न करने पर दंडित करने की धमकी दी जाती है, बिना यह सोचे कि आखिर ट्रेनों,बसों तक में सिर्फ राजनीतिक चर्चा करनेवाले लोग मतदान से कतराते क्यों हैं।पर सोचेगा कौन?राजनीतिज्ञ?नहीं सोचेंगे।सोचना उन्हें होगा जिनकी ये समस्या है।आम जन को सोचना होगा।समाधान निकालना होगा।समाधान निकलेगा, यदिआमजन खास होने के बहकावे में न आए।
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