सुशांत के लिए दो मिनट
- गजेन्द्र पाठक
क्रिकेट का मुरीद हूँ। हुनर से नहीं उसके बाजार से, उसकी लोकप्रियता से। ठीक से कहें तो उसका ककहरा भी अभी तक ठीक से समझ नहीं पाता, लेकिन गाँव में दूसरों को रेडियो पर कमेंट्री सुनते हुए देखकर सुनील गावस्कर, कपिल देव के जमाने में बचपन से ही इसकी लोकप्रियता का कायल हो गया। ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने हमारे परम्परागत कई खेलों की बलि लेकर क्रिकेट का जो उपहार दिया वह कई बार मुझे चाय पीने के चस्के की तरह लगता है। अँग्रेजों ने चाय पीने की आदत डाली तो हमारे कई परम्परागत पेय नष्ट हो गये। बहरहाल यह इतिहास की विडम्बना है कि चाय और क्रिकेट दोनों में हम कामयाब निकले। दुनिया की सबसे महंगी चाय के निर्यातक भी हमी हैं और सचिन तेंदुलकर जैसी प्रतिभा भी हमारे देश की ही ऊपज है।
कल धोनी का जन्म दिन था। सुशांत की अनुपस्थिति में पहली बार बहुत भारी मन से धोनी पर बनी फिल्म फिर देखी। इस फिल्म के साथ लगाव का एक कारण यह भी रहा है कि इसकी त्रिवेणी जिस चरित्र, कलाकार और निर्देशक से निर्मित है उसका सम्बन्ध मेरे बिहार से है। झारखण्ड वाले परेशान न हों, धोनी का जन्म बिहार में ही हुआ था। वैसे ही जैसे बीस साल से ज्यादा उम्र के हर झारखण्ड वासी का जन्म बिहार में ही हुआ था। निर्देशक और निर्माता नीरज पाण्डेय तो आरा के ही हैं। नीरज के पिता कलकत्ता में नौकरी करते थे। बचपन हावड़ा में बीता।
जब मैं किरोड़ीमल कॉलेज में बी.ए. अन्तिम वर्ष में था तब उन्होंने अरविंदो कॉलेज में अँग्रेजी में एडमिशन लिया था। उनके एक रिश्तेदार मेरे मित्र थे। नीरज से उस दौर में मुलाकात भी थी। वे इस बात से चकित और मुग्ध थे कि अमिताभ बच्चन किरोड़ीमल कॉलेज से हैं, शाहरुख खान हंसराज से तो जूही चावला हिन्दू कॉलेज से। जहाँ तक मुझे याद है कि मैंने उन्हें किरोड़ीमल कॉलेज के हमारे हॉस्टल में काम करने वाले डाली जी से भी मिलवाया था जिन्होंने एक जमाने में अमिताभ जी को भी खाना खिलाया था। उस व्यक्ति को भी दूर से दिखाया था जिन्हें अमिताभ बच्चन अपना डीटीसी बस पास देकर भावी पीढ़ियों को मूंगफली खिलाने और उनके किस्से सुनाने के लिए छोड़ गये थे।
आज नीरज मुंबई फिल्म उद्योग में एक स्थापित और प्रतिष्ठित नाम हैं। एक से बढ़कर एक सफल फिल्मों का निर्माण और निर्देशन करते हुए उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है। जिस दिन सुशांत के साथ हादसा हुआ था उस दिन उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर एक मार्मिक टिप्पणी की थी। लिखा था कि कुछ ही दिनों पहले सुशांत आया था और उनके हाथ बढ़ाने से पहले पैर छूने की कोशिश की थी। कहा था भईया कि बिहार की संस्कृति को कम से कम आपके सामने याद नहीं करेंगे तो कहाँ करेंगे।
कल ही पटना से शेखर सुमन और तेजस्वी यादव की प्रेस कॉन्फ्रेंस सुनी। शेखर सुमन सुशांत के लिए इंसाफ की लड़ाई के लिए एक अभियान चला रहे हैं। उनके तर्कों का ठोस आधार है। इधर मुंबई में पुलिस की इस सिलसिले में जो सक्रियता बढ़ी है और सिने जगत की कई हस्तियों से लगातार पूछताछ हो रही है उसे देखते हुए लग रहा है कि कहीं कुछ ऐसा है जो सुशांत की आत्महत्या को संदेह के घेरे में लाने के लिए पर्याप्त है। मैं उम्मीद करता हूँ कि कानून अपना काम करेगा और सच्चाई से पर्दा उठेगा। दिव्या भारती के मामले में देरी की वजह से बहुत लोगों के मन में संदेह भी है। शरद जोशी ने लिखा था कि घटना के घटित होने और उसके विस्मृत होने के बीच की दूरी को जाँच आयोग कहते हैं। तब दूसरा जमाना था। अब शायद वैसा न हो?
सोशल मीडिया ने भी दबाव बनाया है। सुशांत के चचेरे भाई बिहार में सत्ताधारी दल से विधायक भी हैं। उनके एक बहनोई भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी भी हैं। मुझे लगता है कि ये कारक भी प्रभावी होंगे। सुशांत के आने वाली फिल्म की अभिनेत्री ने आज कहा है कि सुशांत की अनुपस्थिति में वह शायद ही इस फिल्म को देखने की स्थिति में हों। सच है जिनका सुशांत गुम हो जाता है उन्हें किस मुँह से आश्वासन देंगे? श्रीकांत वर्मा की एक कविता है जिसका आशय यह है कि जिनका रोहिताश्व खो गया हो उन्हें कैसे भरोसा देंगे? शायद इसी वजह से बिहार के मुख्यमन्त्री सुशांत के पिता से मिलने का अब तक साहस नहीं जुटा पाए हैं।
मुंबई का फिल्म उद्योग कल कारखानों का उद्योग नहीं है। वह हिन्दी फिल्म जगत का केन्द्र ही नहीं है, भारत के होनहार कलाकारों के सपने की मंजिल भी है। मेरे एक पुलिस अधिकारी मित्र ने बताया था कि हैदराबाद पुलिस अकादमी में उन्हें पढ़ाया गया था कि देश के किसी कोने से अगर कोई किशोरावस्था में पहुँचा हुआ बच्चा घर छोड़ कर भागता है तो उसे मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में ही सबसे पहले खोजना चाहिए। मुंबई भारत के सपनों का शहर है। जो हकीकत जानते हैं, वे सयाने लोग हैं। लेकिन जिन्हें अभी चाँद सितारे छूने हैं उनके लिए मुंबई को सपने का शहर बनाए रखने की जरूरत है। फिल्म उद्योग सिर्फ मनोरंजन उद्योग नहीं है बल्कि वह देश की दिशा और दशा तय करने वाला सशक्त कला उद्योग है।
फिल्म उद्योग की कोई भी गड़बड़ी देश के कल पुर्जे को प्रभावित करेगी। परिवारवाद और वंशवाद जितना खतरनाक लम्बे समय तक ज्ञान की दुनिया में रहा है उतना ही राजनीति की दुनिया में। तब शास्त्र और शस्त्र का गठबन्धन था। यह सामन्तवाद था जिसमें ज्ञान और सत्ता के दरवाजे जनता के लिए बन्द थे। अब लोकतन्त्र का समय है। जो लोग इस लोकतांत्रिक समय में अपनी पुरानी आदतों से बाज नहीं आ रहे हैं उनके लिए इतिहास में सबसे मुफीद जगह इतिहास का कचरादान होता है। मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि इस पुरानी सोच के लोग कला की इस आधुनिक विधा में अब भी मौजूद हैं और यह कहने में किसी शर्म और संकोच का अनुभव नहीं करते कि वे फिल्म उद्योग के स्थापित कलाकारों के बच्चों को ध्यान में रखकर ही फिल्म बनाते हैं।
लेखक हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद में प्रोफेसर हैं|
सम्पर्क- +918374701410, gpathak.jnu@gmail.com
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