दिक्कत कन्हैया की जाति से नहीं, उसके वर्ग से है
भाग-3
भारत के सबसे अमीर बीस प्रतिशत में सर्वाधिक अनुपात ओ.बी.सी का
पाँच अप्रैल को हिन्दूस्तान टाइम्स, पटना में प्रकाशित रिपोर्ट (व्हाई कास्ट ट्रम्प क्लास इन पॉलिटिकल स्ट्रैटजी) के अनुसार देश के सबसे धनी 20 प्रतिशत लोगों में सबसे बड़ा हिस्सा ओ.बी.सी जातियों का है। भारत के 22 सबसे बड़े राज्यों में 12 के, सर्वाधिक अमीर लोगों में पिछड़ी जातियों (ओ.बी.सी) के लोगों का अनुपात सर्वाधिक है। ये रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है कि ओ.बी.सी का अनुपात सर्वणों से भी अधिक है। हिन्दूस्तान टाइम्स के मुताबिक भारत की जनसँख्या में सर्वण 24 प्रतिशत, ओ.बी.सी 45 प्रतिशत, दलित 21 प्रतिशत व आदिवासी 9 प्रतिशत हैं। इन 12 राज्यों में अमीर लोगों के सबसे उपरी हिस्से, यानी 20 प्रतिशत हिस्से में, सबसे बड़े अनुपात वाले प्रान्तों में बिहार का स्थान दूसरा आता है।
इसके उपर सिर्फ तामिलनाडु है। बिहार के सबसे अमीर व धनी लोगों में ओ.बी.सी का अुनपात दो तिहाई से भी अधिक है। ‘नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे ’ के आंकड़ों का विश्लेषण करती हुई यह रिपोर्ट इस दिलचस्प नतीजे पर पहॅुंचती है ‘‘ओ.बी.सी के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियाँ अपनी जाति के धनाढ़्य व अमीर तबकों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है। ओ.बी.सी के या गैरसवर्ण दलों के गरीबों के मसले उठाने में ये खतरा बना रहता है कि उच्च जातियों के साथ-साथ ओ.बी.सी के उपरी व धनाढ्य हिस्सों के खिलाफ जाकर एक वर्गीय स्वरूप न ग्रहण कर लें। और इसी चीज से ओ.बी.सी के नाम पर राजनीति करने वाली जातियाँ खौफ खाती हैं।’’ यह रिपोर्ट इस बात की ओर भी इंगित करती है कि ‘‘2014 में जीते सांसदों में 82 प्रतिशत पूंजीपति हैं। इसलिए चुनाव में टिकट देने में जाति के साथ-साथ पूंजी का भी ख्याल रखते हैं।’’
यदि बिहार के संदर्भ में देखें तो ओ.बी.सी की राजनीति करने वाली पार्टियाँ विशेषकर राजद के वामपंथी दलों से समझौता न करने के पीछे जाति नहीं बल्कि स्पष्ट वर्गीय पूर्वाग्रह हैं। दिक्कत कन्हैया की जाति से नहीं बल्कि उसकी राजनीति, उसके वर्ग से है। यदि कहा जाए कि कन्हैया को समर्थन न देने की पृष्ठभूमि में ओ.बी.सी जातियों के धनाढ़्य हिस्से का एक गरीब घर से आने वाले युवक के प्रति वर्गीय चिढ़ है तो अतिश्योक्ति न होगी। हिन्दूस्तान टाइम्स की यह रिपोर्ट सामाजिक न्याय सम्बन्धी पूरी बहस को नये संदर्भ में देखने की मांग करती है।
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पिछड़ी जातियाँ कर रही हैं दलितों पर अत्याचार
1977-78 की जनता पार्टी की सरकार के दौरान उपप्रधानमन्त्री थे बाबू जगजीवन राम। दलित उपप्रधानमन्त्री होने के बावजूद दलितों पर हिंसा नहीं रूक रही थी। इस हिंसा की जड़ में था भूमि का सवाल। हिंसा इतनी अधिक बढ़ने लगी कि जनता पार्टी की सरकार को अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए अगस्त, 1978 में आयोग बनाने पर मजबूर होना पड़ा। इस आयोग के चेयरमैन थे बिहार के पहले दलित मुख्यमन्त्री भोलापासवान शास्त्री। साथ ही 1980 में पिछड़ी जातियों के लिए कमीशन बना ओ.बी.सी नेता बी.पी.मण्डल के नेतृत्व में। उन्हीं के कारण इस कमीशन को मण्डल कमीशन के नाम से जाना जाता है। ये दोनों दलित व ओ.बी.सी चेयरमैन बिहार के थे। बिहार वैसे भी दलितों-पिछड़ों के संघर्ष में अग्रणी प्रदेश रहा है।
मण्डल कमीशन की रिपोर्ट में एकमात्र दलित सदस्य थे एल. आर नायक। उन्होंने मण्डल आयोग की रिपोर्ट से अपनी असहमति प्रकट किया था। उनका डिसेंटिंग नोट बार-बार पढ़ने की जरूरत है, जिसमें वे कहते हैं ‘‘पूरे देश में दौरा करने के दौरान मैंने ये प्रवृत्ति खास तौर पर पायी है कि पिछड़ी, ओ.बी.सी जातियों ने, सवर्णों के हाथों जो उत्पीड़न, जैसा र्दुव्यवहार झेला है वही व्यवहार, ये लोग दलितों के साथ कर रहे हैं। आज ओ.बी.सी जातियाँ ही दलितों पर सबसे अधिक अत्याचार में संलिप्त हैं।’’ ये लगभग चालीस साल पहले की बात है। आज की स्थिति को समझने के लिए 5 अप्रैल को ‘हिन्दूस्तान टाइम्स’, पटना में ओ.बी.सी जातियों के संबंध में प्रकाशित रपट आँख खोलने वाली है।
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गरीबों पर हमले की वजह उनका निचली जाति होना नहीं बल्कि ग्रामीण सर्वहारा होना है
जो लोग जाति की शब्दावली में बात करने के आदी रहे हैं वे सवर्ण जातियों के पिछड़ी-दलित जातियों पर उत्पीड़न की बात करते हैं। लेकिन ग्रामीण भारत की तस्वीर देखें तो पिछड़े दलितों पर हमले इस कारण नहीं हो रहे कि वे निचली जातियों के हैं बल्कि जैसा कि दलित चिंतक आनंद तुलतुंबड़े कहते हैं ‘‘ग्रामीण सर्वहारा होने के कारण है।’’ नव उदारवादी नीतियों ने ग्रामीण भारत के एक विशाल हिस्से को ग्रामीण गरीबों या कहें ग्रामीण सर्वहारा में तब्दील कर दिया है। कृषि पर से राज्य का घटता सहयोग इसमें एक प्रमुख कारक का काम करता है। इस बात को हम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ब्यूरो (NSSO) के कृषि व गैरकृषि मजदूरों सम्बन्धी आंकड़ों से भी समझ सकते हैं।
इन आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण भारत में गैरकृषि मजदूरों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती जा रही है। पूर्व के खेत मजदूरों को यानी दलितों को अब कृषि से बाहर जाकर रोजगार खोजना पड़ता है। नरेगा में काम करने वाले मजदूरों को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। इन्हीं वजहों से बिहार में खेत मजदूरों के संगठन के साथ-साथ कहीं-कहीं ग्रामीण मजदूरों के संगठन अस्तित्व में आ रहे हैं । ग्रामीण मजदूरों को कम मजदूरी पर बहाल करना इस नयी परिघटना की खास विशेषता है। इन मजदूरों का बहुमत दलित जातियों का है।
मजदूरी की दर कम बनाए रखना ग्रामीण भारत में दलितों पर हिंसा की प्रधान वजह है। इस बदलावों को कई अर्थशास्त्रियों ने मार्क्सवादी शब्दावली में कहें ‘‘ पूंजी का आदिम संचय’ के रूप में समझने की कोशिश की है। यह अकारण नहीं हैं| इस ‘आदिम संचय’ की प्रक्रिया में जिन लोगों के पास सबसे अधिक पैसा आया है दलितों पर हिंसा में भी वही सबसे आगे हैं। हिंसा शामिल सबसे बड़ा समूह है ओ.बी.सी जातियों का उपरी बीस प्रतिशत। जो लोग अगड़ा-पिछड़ा, उंची जाति-निचली जाति की शब्दावली में बात करने के आदी रहे हैं उन्हें बदलते ग्रामीण यथार्थ से तालमेल बिठाना मुश्किल हो रहा है।
कन्हैया कुमार पर मणीन्द्र नाथ ठाकुर का आलेख इस लिंक से पढ़ें|
‘जाति’ को ही भारतीय समाज को समझने का प्रधान तत्व मानने वालों को आज बेगूसराय में बहुत परेशानी हो रही है। ऐसे लोग कन्हैया को उसी जातिगत दायरे में सीमित करना चाहते हैं लेकिन उसका ‘वर्ग’ है कि बार-बार उस दायरे को तोड़ हर जाति को अपनी ओर आकर्षित करने लगा है। ऐसे लोग इन्हीं वजहों से परेशान हैं।
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