बात ‘राम’ के घर की नहीं बल्कि “रमुआ” के जमीन की है
‘राम’ महज उतनी ही जमीन के लिए कोर्ट के चक्कर काट रहे हैं जितने में उनका घर बन जाए, वो अपने परिवार के साथ ख़ुशी-ख़ुशी जीवन बिता सकें, क्यूंकि ‘राम’ को खेती-बारी कर घर नहीं चलाना बल्कि वो तो इस देश के राजाओं के लिए, प्रजा ने अपना पेट काट-काट कर भरा है. देश का एक तबका ‘राम’ का घर बसाने के लिए संघर्ष भी कर रहा है.ये संभव भी हो कि ‘राम’ को घर बनाने के लिए जमीन का पट्टा भी मिले और एक भव्य अट्टालिका बनाने के लिए सहयोग भी.
‘राम’ तो ठीक है लेकिन सवाल करोड़ों “रमुआ” का है जो हजारों साल से बेघर है, बेबस हैं, उसके पास इतनी भी जमीन नहीं कि वो उसमें दफन हो सके. कहें तो मरने के बाद “रमुआ” जैसों की लाश के लिए पूरी धरती ही है, जहाँ चाहें, वहां दफना दें, जला दें.“रमुआ” भी इस समाज से, देश और तमाम सरकारों से सदियों से मांग ही रहा है, महज उतनी ही जमीन जितने में वो अपना एक आशियाना बना सके, एक छत जिसे वो अपना कह सके, एक घर जिसमें आकर अपने बच्चों के साथ लुका-छिपी खेल सके. वो सिर्फ जमीन चाहता है जिस पर वो अपनी जी-तोड़ मेहनत से घर बनाएगा और घर चलाएगा. रमुआ तो किसी से सहयोग भी नहीं मांग रहा है.
लेकिन, दुर्भाग्य देखिये! “रमुआ” की लड़ाई में कोई साथ नहीं जबकि ‘राम’ जो राजा का बेटा है तो उसके लिए सब लड़ने को तैयार हैं. सरकार भी ‘राम’ को जमीन दिलाने के लिए प्रतिबद्ध है जब कि सरकार, ‘राम’ ने नहीं बल्कि “रमुआ” ने बनाया है.वैसे “रमुआ” नासमझ है कि सरकार उसने बनाई है, असल में सरकार तो ‘राम’ के नाम पर बनी है न कि “रमुआ” के नाम पर। सरकार तो ठीक ही कर रही है, जिसके नाम उनके काम आ रही है। खैर, इसे छोड़िये।
वैसे “रमुआ” सुबह-सुबह सब काम छोड़ कर वोट देने के लिए लाइन में खड़ा था कड़ी धूप में, कड़कड़ाती ठण्ड में क्यूंकि उसे हर बार यही लगा है कि वो अपनी सरकार चुन रहा है जो उसे दी गयी संवैधानिक बराबरी को अक्षरशः जमीन पर उतार देगा। ‘राम’ ने कभी सरकार से कुछ माँगा भी नहीं फिर भी सरकार, ‘राम’ के लिए व्याकुल है लेकिन “रमुआ” व्याकुल है और उसकी व्याकुलता सरकार-दर –सरकार बनाने के लिए जरूरी है.
“रमुआ” इस बार सरकार के साथ है. वो ये मानता है कि ‘राम’ को एक बार उसकी जमीन मिल गयी तो “रमुआ” की जमीन की लड़ाई और मजबूत हो जाएगी. “रमुआ” भी तो आखिर अपनी ही जमीन, अपना ही जंगल मांग रहा है. “रमुआ” तो वही जंगल मांग रहा है जो जंगल हजारों साल से “रमुआ” को ही अपना अधिपति मान रहा है, उस जंगल के हर पेड़-पौधे, जीव-जंतु, इसके आगोश में समां जाना चाहते हैं. “रमुआ” तो वही जमीन मांग रहा है जिस जमीन की फसल “रमुआ” को देखने भर से लहलहा उठती हैं. “रमुआ” वो जमीन मांग रहा है जिस पर वो जब हल चलाता था तो जमीन मुस्कुरा उठती थी. “रमुआ” के पैरों में धुल बन कर सज जाती थी, उसके देह में लग कर उससे हसीं-ठिठोली करती थी. वह तो अपनी छीनी हुई जमीन मांग रहा है जिसे राजाओं ने छीन लिया था. राजाओं ने!
कितनी सरकारें वो चुन चुका है, उसकी कितनी उम्मीदें टूट चुकी है. “रमुआ” जानता है कि ‘राम’ को घर की जरुरत नहीं, जमीन की ख्वाहिश नहीं बल्कि उसे है. “रमुआ” इसी उम्मीद में है कि जब लोग ‘राम’ की जमीन के लिए लड़ेंगे तो क्या पता लोग जिन्दा “रमुआ” के लिए भी लड़ जाएँ. “रमुआ” की लड़ाई सिर्फ घर बनाने भर, जमीन की नहीं बल्कि घर चलाने के लिए जमीन की है. जिसमें वो फसल ऊगा सके, लौट सके, जमीन धुल बन कर उसके साथ रोमांच कर सकें.
“रमुआ” की लड़ाई का कोई साथी नहीं बस वो जमीन है, वो जंगल हैं जो अपने अधिपति की आस में बंजर हुई जा रही है, सूखी जा रही है. “रमुआ” रोज खेत पर जाता है. जमीन में दरारें देखकर कराह उठता है, उसे बंजर होते देख पीड़ा से टूट जाता है. वह रोज जंगल जाता है, कटे पेड़ों के बीच, बचे पेड़ उसके सामने गिरने लगते हैं. चारों तरफ से रोने की आवाज आती है.“रमुआ” पेड़ से लिपट कर रोने लगता है. वह इस व्यवस्था से क्रोधित है क्यूंकि “रमुआ” की लड़ाई जल, जंगल, जमीन की लड़ाई है। “रमुआ” तो ‘राम’ से भी गुस्सा है। इतने सालों से वह ‘राम’ के लिए लड़ा है लेकिन ‘राम’ ने उसकी लड़ाई में कभी साथ नहीं दिया। “रमुआ” के मन में यह सवाल कौंधता रहता है कि उसके साथ ‘राम’ क्यों नहीं. इसलिए कि ‘राम’ राजा है और “रमुआ” प्रजा। लेकिन राजतंत्र तो खत्म हो चुका है। खैर! “रमुआ” ने तो राजाओं का इतिहास देखा है, राजा तो राजा का ही हुआ है। तो क्या अबकी सरकारें राजा ही हैं। तो क्या इस लिए एक राजा दूसरे राजा के लिए खड़ा है। जब राजा, राजा के लिए लड़ेगा तो प्रजा क्या करेगी? इसलिए रमुआ को अपनी लड़ाई खुद लड़नी है और वो लड़ भी रहा है. क्योंकि उसे समझ है इस बात कि ये राम के घर की नहीं बल्कि रमुआ के जमीन की लड़ाई है। रमुआ के जमीन की!
डॉ. दीपक भास्कर
दिल्ली विश्वविद्यालय के दौलतराम कॉलेज में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.
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