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ओटीटी पर अभी तक अमेजन प्राइम, नेटफ्लिक्स जो कब्ज़ा जमाए हुए थे उसे अब कड़ी टक्कर दे रहे हैं एमएक्स प्लयेर जैसे प्लेटफॉर्म। इसी ओटीटी पर आज रिलीज हुई वेब सीरीज ‘रनअवे लुगाई’ अब ये किसने भगाई और किसे भायी ये तो दर्शक ही बता सकते हैं।
सीरीज की कहानी है बुलबुल सिन्हा और रजनीकांत सिन्हा के इर्द-गिर्द घूमती हुई। बुलबुल की रजनी से शादी हुई है हालांकि बुलबुल की बड़ी बहन का रिश्ता होना था रजनी से लेकिन अब रिश्ता देखने गए बाप के साथ बेटे को भा गई छोटी वाली। हालांकि कुछ इशारों में वह अपने बारे में पहले ही हिंट भी देती है लेकिन कोई नहीं समझता। शादी के दिन उस दुल्हन को चाहिए कि उसका होने वाला पति सात सफेद घोड़े वाला रथ लेकर उससे ब्याह रचाने आए। अब सात सफेद घोड़े तो नहीं मिले तो उनमें से कुछ काले घोड़ों को सफेद रंग पोत कर ले आए।
बारिश में उनका रंग धूल गया। बेचारे लड़के वाले और लड़का माफियां मांग रहा है लड़की से। खैर जैसे तैसे शादी हुई। शादी की पहली रात ही बाथरूम में शीशे पर लिखा मिला छत पर मिलो। अरे भाई ये लड़की तो बड़ी तेज है पहले ही दिन ससुराल में छत पर पहुंच गई और सुट्टा पीने के लिए बैठी है। पति बेचारा भोला सा उसे कुछ मालूम नहीं। उसे भी मैरिजुआना यानी गांजा पिलाती है बहू। सैक्स की बातें करती है। बाप है जो पहली ही रात उनके कमरे में ताक झांक करता है लड़का नंगा ही बाहर आ जाता है। साथ ही बाप से पूछता है आपने कभी सेक्स किया है।
अरे भाई ये क्या बवाल है। अविनाश दास इससे पहले भी ‘अनारकली ऑफ आरा’ बनाकर अपनी तथाकथित फेमिनिस्ट सोच का प्रदर्शन अच्छे से कर चुके हैं। हालांकि वह फिर भी कुछ ठीक थी। लेकिन यह वेब सीरीज जिसमें न कोई तर्क न बात। बात बिना बात फेमिनिज्म का झंडा उठा लिया।
खैर आगे कहानी सुने अब एक दिन बहु घर से भाग गई। बाप को फिर से चुनाव में टिकट चाहिए सो नोकरानी को बहु बनाकर मीडिया के सामने लाता है। बाप इससे पहले बेटे से बहू के शरीर की निशानी भी पूछता है। अब जिस बेटे को एक रात ठीक से उसके साथ सोने नहीं दिया और उसे अपनी चुनावी टिकट की खातिर दूसरे जिले में भेज दिया ताकि वह वहां जाकर जज के रूप में कोर्ट में अपने फैसले सुनाता रहे।
अब कोर्ट में जिसके पास पति पत्नी के तलाक के मामले आते हैं और उसके खुद के घर के हालात या कहें पति -पत्नी के सम्बन्ध ठीक नहीं वह क्या ही निर्णय देगा। बिना कोई किसी की फरियाद सुने एक पीड़ित पक्ष की सुनता है और उसी के हक में फैसला दे देता है। जबकि निर्देशक को चाहिए था कि मुकम्मल तौर पर भारतीय अदालतों को दिखाते। अब उसकी लुगाई किसने भगाई, उसके घर की कहानी बाहर कैसे आई, एक विधायक अपनी बहू को ढूंढने में कामयाब हुए या नहीं इन सबके सवाल आपको इस सीरीज में देखने को मिलेंगे। अगर नेटफ्लिक्स, अमेजन आदि इस्तेमाल नहीं करते हैं तो इस किस्म के सिनेमा को देखा जा सकता है।
हिंदी सिनेमा में कभी भी सिरे से या कहूँ स्तरीय तरीके से अदालतों को दिखाया ही नहीं गया है। सीरीज की कहानी में कई सारे झोल हैं और निर्देशन में कई सारे छेद। एक्टिंग कुछ एक कलाकार ठीक से करते हैं उनमें भी नवीन कस्तूरिया और संजय मिश्रा ही जमते हैं। रवि किशन और उसके साथी पुलिस वाले एक-आध जगह ही प्रभावी लगे। बैकग्राउंड स्कोर भी उस स्तर का नहीं रहा, गाना बजाना तो छिछोरे तरह का रहता ही है अविनाश दास के सिनेमा में। पर एक गाने में संजय मिश्रा जरूर रंग जमाने में कामयाब हुए हैं।
इस तरह की वेब सीरीज निम्न स्तर के या टाइम पास सिनेमा देखने वालों के लिए तो अच्छी हो सकती है लेकिन कोई अच्छा सिनेमा देखना चाहे तो उनके लिए इस रनवे लुगाई से दूर भागना ही बेहतर होगा। सीरीज में संवाद भी स्तरीय नहीं हैं। इस किस्म की कहानियों में जैसे ढीले और निम्न स्तर के संवाद होने चाहिए वही नजर आते हैं। और एक सवाल निर्देशक से ये सुहागरात वाले दिन बंदरों की तरह कौन उछल कूद करता है भाई? जरूरी है ऐसी छिछोरी हरकतें दिखाकर ही किसी को रनअवे लुगाई बनाना।
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