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सरकार बदल सकती है, देश की किस्मत कैसे बदलेगी?

 

तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर पहले उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से मिले। फिर वे बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मिले। प्रेस कांफ्रेंस में केसीआर ने कहा कि जल्द ही अच्छी खबर मिलेगी।

ममता बनर्जी कुछ बोली नहीं ,सिर्फ मुस्कुरा कर रह गयी। पांच राज्यों के चुनावी रिजल्ट जब आ रहे थे तो औबेसी ने कहा था कि न कांग्रेस, न बीजेपी। तीसरा मोर्चा बने, जैसे तेलंगाना में हुआ। औबेसी को तेलंगाना में सात विधानसभा सीटें मिली हैं। औबेसी की भाषा सरल नहीं है और वे कट्टरता को बढावा देते हुए दिखते हैं। जब बेरोजगारी और गरीबी चरम पर हो तो कट्टरता पनपने के लिए ये खाद बीज का काम करते हैं। केसीआर तीसरे मोर्चे के लिए निकल पड़े हैं।

आगे वे मायावती और अखिलेश से भी मिलेंगे। अगर ये नेता गठबंधन कर लें तो लोकसभा की  लगभग दो सौ सीटों पर असर डाल सकते हैं। केसीआर का यह गठबंधन सौ सीटों से अधिक सीटों पर जीत दर्ज कर ले तो इधर उधर बिखरी स्थानीय पार्टियाँ उसकी ओर मुखातिब हो सकती हैं। 2019 के चुनाव में बीजेपी की हालत खराब होने वाली है। वैसे बहुत से लोग इसे नहीं मानते, लेकिन जमीनी हकीकत यही है कि बीजेपी बुरी तरह से हारेगी। अब न मोदी-मोदी कहने वाले लोग हैं, न अच्छे दिन का आह्वान। एक घिसा पिटा भाषण है जिससे जनता का पेट नहीं भरेगा और न जनता की ख्वाहिशें पूरी होगी। जमीनी हकीकत यह है कि बीजेपी का मूलतया आधार हिन्दी प्रदेश है। इस प्रदेश का गणित देखें। उत्तर प्रदेश में  लोकसभा की 80 सीटें हैं। सत्तर से ज्यादा सीटें 2014 के चुनाव में बीजेपी को मिली थीं।

मायावती और अखिलेश यादव दोनों एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़े। वोट बिखरे और बीजेपी बाजी मार गयी। दोनों के मिलने और अजीत सिंह के साथ आने पर उत्तर प्रदेश की तीन लोकसभा सीटें बीजेपी बचा नहीं पायीं, जबकि योगी जी मुख्यमंत्री हैं और उन्होंने पूरी ताकत झोंक दी थी। बीजेपी आधी सीट भी बचा नहीं पायेगी। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ की राजनीतिक फिज़ा बदल चुकी है। बीजेपी की हालत यहाँ बहुत अच्छी नहीं होगी। बिहार में महागठबंधन और जदयू, बीजेपी और लोजपा आमने-सामने होंगे। महागठबंधन को लालू प्रसाद जैसे कंपेनर की कमी खटकेगी, लेकिन बिहार में वॉक ओवर तो नहीं मिलने वाला है। फिर नरेन्द्र मोदी के समर्थक अब अतिरिक्त उत्साह में नहीं हैं। कई कारणों से वे नाराज हैं और वादे पूरे नहीं होने से युवा भी खफा हैं।

ऐसी दशा में बीजेपी का कांग्रेस मुक्त नारा अब महज नारा है। इसकी ही देखा देखी कुछ लोग बीजेपी मुक्त भारत की भी बात करने लगे हैं। कहने का अर्थ यह कि 2019 के लोकसभा चुनाव में एक राजनैतिक गैप पैदा होगा। इसका अहसास हर रिजनल पार्टियों को है। अब सवाल यह है कि रिजनल पार्टियों का यह गठबंधन कहाँ तक सफल होगा? कांग्रेस और बीजेपी पर कितनी लगाम लगायेगा? कांग्रेस को अगर पूछा नहीं जाता है तो कांग्रेस के उभरने की एक संभावना भी है और उसके लिए खतरे भी। राहुल गांधी की ओर लोगों का झुकाव बढ़ रहा है। खतरा यह है कि विपक्षियों के वोट का बिखराव होगा, जिसका लाभ बीजेपी को मिल सकता है। देश के लिए संकट यह है कि आर्थिक नीतियों के मामले में बीजेपी के पास कांग्रेस से अलग दृष्टि नहीं है। इस राजनैतिक उथल-पुथल में सरकार बदलने की पूरी संभावना है, लेकिन देश की नियति बदलने की संभावना नहीं है!

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