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आँखन देखी

जनतन्त्र  और जनान्दोलन

 

  • मणीन्द्र नाथ ठाकुर  

यदि आज आप दुनिया के मानचित्र को लेकर बैठें और उसमें विश्व के अलग-अलग हिस्सों में जनतंत्र की हालत पर सोचना शुरू करें तो आपको लगेगा कि इस मायने में दुनिया अब एक हो गयी है। सोवियत संघ के विघटन के बाद फ़्रांसिस फुक़यामा  जैसे  विद्वान जो  पहले यह डंका पीट रहे थे कि उदारवादी जनतन्त्र ही मानवीय विकास का आख़िरी पड़ाव है और इस मायने में इतिहास का अन्त हो गया है, अब चिन्ता व्यक्त कर रहे हैं कि जनतन्त्र  को भी ख़तरा है। यहाँ तक कि अमेरिकी और ब्रितानी जनतन्त्र भी ख़तरे में हैं। इस ख़तरे का कारण क्या है? और इससे बचाव क्या है? इस लेख में मैं उन कारणों के बारे बात नहीं करना चाहता हूँ जो आक़दमिक जगत में प्रचलित हैं। मसलन विश्व का आर्थिक संकट या फिर उभरता फ़ासिवाद आदि आदि। मैं अपने सामज में झाँकना चाहता हूँ और ख़तरे के संकेतों को वहाँ टटोलना चाहता हूँ। इसी तरह इसके निदान की सम्भावनाओं को भी वहीं खोजना चाहता  हूँ। इसका मतलब यह नहीं है कि अकादमिक बहस बेकार है, इसका केवल इतना ही मतलब है कि उन प्रक्रियाओं को समझे बिना हम वास्तविकताओं के क़रीब नहीं जा पाएँगे जिनसे हम किसी बेहतर सैद्धान्तिक दृष्टिकोण  के बारे में सोच सकें।

सबसे पहले मैं बिहार के एक गाँव की बात करूँ जहाँ की एक अजीबोगरीब  घटना ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया। छोटा सा गाँव है कटिहार ज़िला में, नाम नहीं बताना चाहता हूँ। इस गाँव की  कई कहानियाँ हैं घर वालों के द्वारा बेटियों को बेचे जाने की। यह बेचना शुद्ध बेचना नहीं भी माना जा सकता है क्योंकि हरियाणा से किसी अन्य भाग से आए सौदागरों के द्वारा उन्हें विवाह के नाम पर ख़रीदा जाता है। हालाँकि  घरवालों को यह मालूम होता है कि बेटी के जाने के बाद उससे फिर कभी मुलाक़ात नहीं होगी, दूल्हा कौन है इसका भी कुछ  पता उन्हें नहीं है। एक लड़की जिसके बारे में मुझे कुछ ज़्यादा पता चल पाया, उसे केवल पच्चीस हज़ार रुपए में बेचा जा रहा था। उसके घरवालों का सपना था अपने घर से फूस का छप्पर हटाकर टीन डालने का। अच्छे घर के सपने  के लिए कई और  बेटियाँ भी यहाँ बेची जा चुकी हैं, ऐसा लोगों ने बताया। उस लड़की ने हंगामा किया और गाँववाले जमा हो गए। फिर ख़रीदनेवाले भाग खड़े हुए। अब गाँव के लोग पहरा करते हैं। किसी अनजान मेहमान  को किसी के घर देख कर सचेत हो जाते हैं और फिर तहक़ीक़ात शुरू हो जाती है।

दूसरी घटना सीमांचाल के ही एक इलाक़े की है। कुछ हिन्दू लड़कों ने बताया कि इलाके के मुसलमान युवा अपने बाइक पर  किसी भाषा में लिखे झंडा लगा कर घूम रहे हैं, और हलचल कुछ ज़्यादा ही है। हिन्दू सशंकित थे कि कुछ होने वाला है जिसका उन्हें आभास मात्र हो रहा है। मैंने भी देखा कि सचमुच बहुत से अनजान युवा बाइक पर घूमते नज़र आ रहे थे। मैंने पास के मुस्लिम गाँव में जाकर तहक़ीक़ात की कि माजरा क्या है, तो पता चला कि मुहम्मद साहब का जन्मदिन मनाए जाने की तैयारी हो रही थी। फिर मैंने लोगों को एक साथ बिठाया और इस पर लम्बी बातचीत हुई।पिछले कई दशकों से मैं इस गाँव में जाता रहा हूँ, कभी मैंने लोगों में इतना अविश्वास नहीं देखा। यह अविश्वास कैसे अचानक इतना बढ़ गया? मुझे एक मुस्लिम  बस्ती में जाना था। लोगों ने सलाह दी कि अकेले मत जाओ, विशाल बस्ती है। ऐसा नहीं है कि कोई ख़ास घटना कभी घटी हो, फिर ऐसा क्यों है

 

तीसरी घटना भी इसी इलाक़े की है। एक विवाहित लड़का किसी दो बच्चे की माँ  से प्रेम करता है, उनके  शारीरिक सम्बन्ध  बनते हैं और एक दिन वही लड़का  उसकी हत्या कर देता है। क्यों करता है ठीक से मालूम नहीं है। लेकिन कैसे करता है यह उल्लेखनीय है। उसे  अपने साथ ले जाता है, वादा करता है कि हमेशा के लिए  अपने साथ रखेगा। लेकिन तीन और दोस्त आते हैं और उसका  सामूहिक बलात्कार करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया का विडीयो बनता है। फिर उसकी हत्या हो जाती है। तथाकथित प्रेमी ही सामूहिक बलात्कार और हत्या में क्यों शामिल होता है?

 

क्या इन घटनाओं को जोड़ कर देखा जा सकता है? क्या इन घटनाओं के कारणों में कुछ समानता है? यह एक तरह का संक्रमण काल है  गाँवों के लिए भी। एक बदलाव आप देख सकते हैं, गाँवों में भी जो मूल्य सदियों से कहावतों में बदल गये  थे और लोगों के  दैनिक व्यवहार  में काम आते थे सब बेकार हो गये हैं। आदमी अपने वजूद को उन सामानों में तलाशता है जिससे समाज में उसे सम्मान मिलता है। और हर आदमी उस अदृश्य वजूद के लिए दौड़ता हुआ नज़र आता है। ऐसा तो शहर में होना लाज़िमी है, क्योंकि लोग एक दूसरे को जानते नहीं हैं और जब मिलते हैं तो उनकी औक़ात को इन चीज़ों से ही नापते हैं जो दिखता है। इसलिए एक नया जुमला  शहर में सुनने को मिलता है ‘जो दिखता है वही बिकता है’, दिखने वाली चीज़ों का संकलन हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। इक्कीसवीं सदी का  प्रारम्भ ही इस कहावत से हुआ है, अचानक विश्वविद्यालयों के शिक्षकों का वजूद भी उनके  बायोडाटा में सिमट गया और धीरे धीरे उनमें ‘प्रोफ़ेसर प्लस’ बनने की तमन्ना जागने लगी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन गाँव में इसका फैल जाना चिन्ता की बात है। शहरों में लोग इसके उपाय भी ढूँढ लेते हैं लेकिन गावों में क्या यह सम्भव होगा?

ऐसा कहना ग़लत नहीं होगा कि इन सारी घटनाओं की जड़ में एक नयी  नैतिकता है। इस नयी नैतिकता का श्रोत नवउदारवादी दर्शन है जिसका पिछले कई दशकों में विस्तार हुआ है। उदारवाद के  पहले  चरण ने एक तरह की पूँजीवादी नैतिकता को जन्म दिया जिसमें व्यक्तिवाद महत्वपूर्ण था। नवउदारवाद ने उस व्यक्तिवाद को घोर आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवाद में  बदल दिया। आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवाद में समाज की समझ बदल जाती है। व्यक्तिवाद में व्यक्ति की स्वतन्त्रता केन्द्र  में है और उससे उसकी रचनाशीलता को बल मिलता है।  लेकिन आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवाद में दूसरा व्यक्ति, समाज, रिश्ते सभी स्वार्थ की पूर्ति के साधन हो गये। इसमें रचानशीलता की कोई जगह नहीं है बल्कि उपभोक्ता आधारित कभी नहीं ख़त्म होने वाली एक चाहत है। इसी  आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवाद से संचालित समाज की  अलग-अलग तरह की अभिव्यक्तियाँ हैं जिसका ज़िक्र हमने ऊपर किया है। इन सबको एक सूत्र में पिरो कर देखें तो यह बदलते समाज की सूचना है।

हिंसा पूर्ण काम वासना, मानवीय मूल्यों का पतन, और उपभोग की चाहत और इस आत्मकेन्द्रित व्यक्तिवाद से मिलकर जो कुछ बनता है वही समाज आज हमारे सामने है। ऐसे समाज  में यदि किसी फ़ासीवाद का भी उदय हो जाए तो आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि व्यक्ति दूसरे के प्रति स्नेह नहीं रखता बल्कि उसके उपयोग की बात सोचता है। इस त्रासद स्थिति में  समाज में ऐसे नेतृत्व को सफलता मिल सकती है जो लोगों के अन्दर चल रहे इस बदलाव का प्रतिनिधित्व कर सके। झूठ, फ़रेब, मक्कारी सबकुछ इस नाम पर सराहनीय हो जाए कि आख़िर में व्यक्ति सफल है, उन मापदण्डों पर जो इस तरह के समाज का आदर्श है जहाँ खलनायक ही नायक हो जाता है।

अब यदि हम ऐसे समाज में रह रहे हैं, तो इसमें बदलाव की बात कौन सोच सकता है? क्या राजनीतिक दल ऐसे बदलाव के लिए काम कर सकता है?  बिलकुल नहीं। क्योंकि राजनीतिक दल का प्रयोजन सत्ता पर क़ाबिज़ होना और क़ाबिज़ रहना है। और इसके लिए कोई भी ऐसा काम करना उनके उद्देश्य से बाहर होगा जिसमें इस उद्देश्य की पूर्ति न हो और जो उनके समर्थकों के लिए फ़ायदेमन्द  न हो। किसी काम को करने का उनका उद्देश्य कभी भी केवल यह नहीं हो सकता है कि उचित क्या है। फिर समाज को बदलने का, उसे दिशा देने का और उन सवालों को उठाने का जो जनहित में हो किसका उद्देश्य हो सकता है? जनतन्त्र  का संचालक भले ही राजनैतिक दल हो इसका प्रहरी तो केवल जनान्दोलन  ही हो सकता है।

हम कह सकते हैं कि किसी जनतन्त्र  का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें जनान्दोलनों के लिए  कितनी जगह है। यह नैतिकता जो मानवीय नहीं है, जिसका कुप्रभाव राजनीति पर भी देखा जा सकता है कि ‘लाज लजाती जिसकी कृति से धृति निर्माता वह है’, उससे जनतन्त्र को कौन बचा सकता है? जनान्दोलनों  की नैतिकता इस नयी नैतिकता का काट है। भारत के अलग-अलग हिस्सों में जो जनान्दोलन चल रहे हैं उनकी  माँगों को यदि ग़ौर से देखें तो पता चलता है कि भारत का जनतन्त्र तबतक सुरक्षित रहेगा जबतक ये आन्दोलन चलते  रहेंगे और परिवर्तन की माँग करते रहेंगे। मेरे कुछ छात्र अभी एकता परिषद के आन्दोलन को समझने की कोशिश कर रहे हैं। कई बार पी वी राजगोपाल से हमने लम्बी बातचीत की है। ग्वालियर के जिस शहरिया आदिवासियों के बीच उनका काम है, उन्हें देख कर लगता है कि वे जनतन्त्र के हिस्सेदार हैं ही नहीं और हो भी नहीं सकते हैं। उनकी संख्या इतनी नहीं है कि राजनीतिक दलों को उनकी दुर्गति पर चिन्ता  करने की सुध हो सके। मैंने एक पूरा दिन उनके साथ बातचीत में बिताया था। उनकी महिलाएँ किसी ऐसे व्यक्ति के सामने  जिनसे उन्हें कोई आशा दिखती है रोने गिड़गिड़ाने लगती हैं कि उनके मर्दों को बचा लें। उन मर्दों की औसत आयु केवल पैंतीस से चालीस वर्ष  है, उनमें यकृत रोग की बहुतायत पाई जाती है। किसी को कारण पता नहीं है। इसी तरह घर के लिए ज़मीन का एक व्यापक आन्दोलन चल रहा है। इसी तरह पानी पर काम करनेवाले राजेन्द्र सिंह के अलवर आश्रम में जाने का मौक़ा मिला। जिस नदी को जनान्दोलन की सहायता से उन्होंने पुनर्जीवित किया है उसे देख कर आश्चर्य भी होता है कि इतने सारे लोगों  को इस सामूहिक कार्य के लिए कैसे प्रेरित किया होगा।

ऐसा ही एक आन्दोलन  बिहार के औरंगाबाद में चल रहा है। बूढ़ा-बूढ़ी नामक  उस नदी तक गया जिसको इस आंदोलन ने पुनः  जागृत  किया है। हज़ारों लोगों ने इस कार्य में हिस्सा लिया, कई करोड़ रुपए लोगों ने दान में दिये।यह आन्दोलन  इस इलाक़े के राजनीतिज्ञों के लिए एक चुनौती है क्योंकि जो काम उन्हें करना था, उनके द्वारा किए गये चुनावी वायदों का हिस्सा था, उन्होंने किया नहीं। ऐसे बहुत से कामों को जनान्दोलनों ने अपने हाथ में लिया और उसे बेहतर तरीक़े से किया। ख़ास बात यह है कि यह एक गाँधीवादी आन्दोलन है जिसने ख़ास तौर पर दलितों को संगठित किया और इस नदी के पुनः प्रवाहित हो जाने से उन दलित बस्तियों में फिर से खेती शुरू हो गई। लेकिन सबसे ख़ास बात है कि इस इलाके को नक्सल  प्रभावित इलाक़ा माना जाता है। बूढ़ा-बूढ़ी नदी पर बने इस बाँध का दर्शन करने और ग्रामीणों के घर चाय-पानी के बाद शाम में वापस लौटते हुए हमें इस बात का ज़्यादा अनुभव हुआ जब हमारी गाड़ियों को पुलिस चेकपोस्ट पर रोक  दिया गया। बी एस एफ के कैम्प में सीमा की तरह की सुरक्षा व्यवस्था थी। इन हालातों में इस तरह का काम कैसे किया गया समझना मुश्किल था। इस तरह के जनान्दोलनों से जनतन्त्र में उम्मीद बनती है।

 

अपनी इन यात्राओं के दौरान एक और ऐसे ही सत्याग्रही से मुलाक़ात बिहार के अररिया ज़िले में हुई। कई युवा एक साथ मिलकर किसानों और मज़दूरों को संगठित करने में लगे हैं। कोई आइ आइ टी से है तो कोई टाटा इन्स्टिटूट ऑफ  सोशल साइंस से और कोई जे एन यू और अन्य ऐसे ही लब्धप्रतिष्ठ विश्व विद्यालयों से। उनके ट्रेनिंग सेंटर  में गया तो मज़ा आ गया। बहुत से किसान मज़दूर उनके मचान पर जमे थे, कुछ बच्चियाँ पढ़ाई में मशगूल थीं, आइ आइ टी मुंबई का एक छात्र  स्थानीय सामग्री से भवन का डिज़ाइन कर ख़ुद ही इंट और  मिट्टी ढोने में लगा था। उनका उत्साह भारत के लिए  उम्मीद जगाता  है। अब उस इलाक़े में उनके दस हज़ार से ज़्यादा सदस्य हैं और राजनीतिक चेतना के लिए  एक पाठशाला खोलने की योजना बन रही है।

अब सवाल यह है कि क्या ये आन्दोलन महज अलग-अलग आन्दोलन  ही रह जाएँगे या फिर एक साथ मिल कर कुछ बड़े परिवर्तन की बुनियाद बनेगी। सुना है इनके राष्ट्रीय संगठन एन ए पी एम ने एक राष्ट्र्व्यापी यात्रा की योजना बनायी है। इस के राष्ट्रीय संयोजक ने एक राष्ट्र्व्यापी ‘संविधान बचाओ यात्रा’ के आयोजन की घोषणा की है। इस संगठन का नारा है ‘देश बचाओ, देश बनाओ’ और यात्रा का उद्देश्य है जल, जंगल ज़मीन पर जो हमला है जिसमें पूँजी और सरकार की मिलीभगत है उसकी ओर लोगों का ध्यान खींचना। किसानों, दलितों, आदिवासियों को, जिन्हें विकास के इस मॉडल ने हाशिये पर डाल दिया है, ख़ास कर संगठित करने का प्रयास है।

जनादोलनों के इन प्रयासों को भारतीय जनतन्त्र के लिए  आवश्यक माना जाना चाहिए, अन्यथा राजनीतिक दलों ने सत्ता के प्रति अपने मोह के कारण जनहित को ही तिलांजलि दे दी है। फिर भी सवाल है कि क्या इसका इतना व्यापक प्रभाव पड़ेगा कि भारतीय राजनीति को दिशा दे सके? किसी देश का जनान्दोलन यदि इतना ताक़तवर हो जाए कि राजनीतिक दलों के एजेंडा को प्रभावित करने लगे तो शायद जनतन्त्र के बच जाने की उम्मीद हो सकती है। इसलिए जनान्दोलनों  को मज़बूत करने की कोशिश करनी चाहिए।

एक आख़िरी बात जनान्दोलनों को प्रभावकारी बनाने के लिए जनवादी राजनीतिक संगठनों के साथ सहयोग करने की ज़रूरत है। हो सके तो इन्हें गाँधी के पार्टी विहीन जनतन्त्र के प्रयोग को  परखना चाहिए। यदि ‘लोकसंसद’ जैसी कोई व्यवस्था हो सके तो जनान्दोलनों की जड़ें गहरी होंगी और उसका स्थाई प्रभाव राजनीति पर पड़  सकता है। ‘लोकसंसद’ एक विभिन्न स्तरों पर जनता का संगठन हो जो स्थानीय समस्याओं के स्थानीय समाधान के बारे में चिन्तन करे और राजनीतिक दलों को इन मुद्दों पर बातचीत के लिए लाचार करे। पुस्तकालयों और कार्यशालाओं का पूरा कार्यक्रम  हो जिसमें संविधान की शिक्षा और उसके कार्यरूप के लिय योजनाएँ तैयार हो। यह सबकुछ यूटोपिया तो लग सकता है, लेकिन आनेवाले समय में जनतन्त्र की रक्षा के लिय ज़रूरी है। जनान्दोलनों को एक सूत्र में बाँधना, आम लोगों से उसे जोड़ना, एक राजनैतिक विकल्प के रूप में उसका उभरना, आम लोगों को राजनैतिक शिक्षा देना आदि महत्वपूर्ण काम यह तय करेगा कि इनका भारतीय जनतन्त्र को बचाने में कितना योगदान होगा।  एक और नया प्रयोग इन आन्दोलनों को करने की ज़रूरत है। उत्पादन को संचालित करने के नये  सांगठनिक मॉडल को खोजना होगा। जो लोग इन संगठनों में शामिल हैं उनकी आर्थिक स्थिति आम तौर पर ख़राब ही होती है। इस बारे में गाँधी के प्रयोगों को याद रखना चाहिए। सत्याग्रहियों का जीवन कैसा हो, उनका रहन-सहन कैसा हो? उनका आपसी सहयोग कैसा हो? उनके मूल्य कैसे हों जो आम लोगों को साफ़ साफ़ दिखे भी? उत्पादन के लिय सहकारिता का संगठन कैसे बने? इन सवालों पर जनान्दोलनों को सोचना समझना होगा। एक पूरी वैकल्पिक संस्कृति बनानी होगी, जिसमें इस नये  बन  रहे नवउदारवादी मूल्य को ख़ारिज करना होगा और मानवीय मूल्यों पर आधारित चिन्तन  का विकास करना होगा।

लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं|

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