मटियानी जी से मेरी प्रत्यक्ष मुलाकात सन 1982 में परिमल प्रकाशन के संस्थापक शिवकुमार सहाय के घर पर हुई थी। तदुपरांत मटियानी जी का स्नेह मुझपर आजीवन बना रहा। एक बार जब वह गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल दिल्ली में भर्ती थे तब मैं डॉ मनु और रमेश तैलंग के साथ उन्हें देखने था तब वह लगातार दुर्गा सप्तपदी नामक किसी किताब की चर्चा कर रहे थे। संभवतः उस किताब का उनके मन पर गहरा प्रभाव था।
शैलेश मटियानी हिन्दी साहित्य में नयी कहानी आन्दोलन के दौर के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उन्होंने मुठभेड़, बोरीबली से बंबई, जैसे चर्चित उपन्यास, चील, अर्धांगिनी जैसी महत्वपूर्ण कहानियों के साथ ही अनेक निबन्ध और संस्मरण भी लिखे। 1950 से ही उन्होंने कविताएं और कहानियां लिखनी शुरू कर दी थी। शुरु में वे रमेश मटियानी ‘शैलेश’ नाम से लिखते थे। उनकी आरंभिक कहानियां ‘रंगमहल’ और ‘अमर कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। उन्होंने ‘अमर कहानी’ के लिए ‘शक्ति ही जीवन है’ (1951) और ‘दोराहा’ (1951) नामक लघु उपन्यास भी लिखा।
उनका पहला कहानी संग्रह ‘मेरी तैंतीस कहानियां’ 1961 में प्रकाशित हुआ। उनकी कहानियों में ‘डब्बू मलंग’, ‘रहमतुल्ला’, ‘पोस्टमैन’, ‘प्यास और पत्थर’, ‘दो दुखों का एक सुख’ (1966), ‘चील’, ‘अर्द्धांगिनी’, ‘ जुलूस’, ‘महाभोज’, ‘भविष्य’ और ‘मिट्टी’ आदि विशेष उल्लेखनीय है। कहानी के साथ ही उन्होंने कई प्रसिद्ध उपन्यास भी लिखा। उनके कई निबन्ध संग्रह एवं संस्मरण भी प्रकाशित हुए। उन्होंने ‘विकल्प’ और ‘जनपक्ष’ नामक दो पत्रिकाएँ निकाली।
उनके पत्र ‘लेखक और संवेदना'(1983) में संकलित हैं। उनका जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा। उनके जीवन के बारे में जानकर उनके संघर्षों का अनुमान लगाया जा सकता है। जिस वक्त वे एक छोटे से ढाबे में लगभग एक वेटर का काम कर रहे थे- प्लेटें धोने और चाय लाने का, उस वक्त तक उनकी कहानियां ‘धर्मयुग’ में छपना शुरू हो गयी थीं। कितनी बड़ी विडंबना है कि ‘धर्मयुग’ जैसे सर्वश्रेष्ठ अखबार में जिनकी कहानियां छपना शुरू हो गयी हों वो एक छोटे से सड़क के किनारे बने ढाबे में चाय-पानी देने और प्लेट साफ करने का काम कर रहा हो। उन स्थितियों में निकलकर, जिसे गोर्की ने जिसे कहा है, ‘समाज की तलछट से आए हुए लोग’, वे आये थे।
गोर्की ने अपनी आत्मकथा में इसी जीवन को जिया था जिसका नाम रखा था ‘मेरा विश्वविद्यालय’ गोर्की कहते थे कि ये मेरे विश्वविद्यालय हैं। यहाँ से मैंने ट्रेनिंग ली है। मटियानी का सशक्त बिंदु भी यही है। वो अपने ढंग के एक विचारक भी थे। देश की समझ, राष्ट्र की समस्या, भाषा की समस्या पर वे हमेशा लिखते थे। क्योंकि बिना लिखे रह भी नहीं सकते थे या कुछ तो आर्थिक कारणों से भी खाली रह सकना उनके लिए संभव नहीं था।
समकालीन हिन्दी कहानी साहित्य में शैलेश मटियानी एक महत्त्वपूर्ण नाम है। शैलेश मटियानी का कहानी साहित्य व्यापक जीवन संदर्भों का वाहक है क्योंकि इनके कहानी साहित्य के वृत के अन्तर्गत विविध क्षेत्रों, वर्गों और सम्प्रदायों सम्बद्ध जीवन संदर्भों का चित्राण हुआ है किन्तु इनके कहानी साहित्य में भारतीय समाज के दबे, कुचले, शोषित, उपेक्षित और हाशिए के निम्न वर्गीय जीवन संदर्भों का सर्वाधिक निरूपण हुआ है।
वस्तुतः शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित यह निम्न वर्ग कुमाऊँ के अंचल से लेकर छोटे-बड़े नगरों एवं महानगरों से सम्बद्ध है। किन्तु इनकी कहानियों में चित्रित उपेक्षित, पीड़ित, शोषित और दबा-कुचला वर्ग चाहे जिस क्षेत्र, वर्ग, सम्प्रदाय से सम्बद्ध है अपने प्रकृत रूप में दिखाई देता है। इसका कारण शैलेश मटियानी की अत्यंत संवेदनशील, उस अन्तर्दृष्टि को माना जा सकता है जिसने उन्हें अपनी भोगी एवं देखी चीजों को यथार्थ रूप में पकड़ पाने की अद्भुत क्षमता दी है।
यही कारण है कि शैलेश मटियानी कुमाऊँ अंचल से सम्बद्ध कहानीकार होते हुए भी जब वे प्यास, अहिंसा, बिद्दू अंकल, भय जैसी नगरीय जीवन से सम्बद्ध कहानियाँ लिखते हैं तो वे भी कुमाऊँ अंचल से सम्बद्ध कपिला, नाबालिग, ब्राह्मण, खरबूजा, अर्द्धांगिनी जैसी कहानियों की भाँति अत्यंत गहरे प्रकृत रूप में दिखाई देती है। इन कहानियों में किसी भी प्रकार का बनावटीपन एवं कृत्रिमता नहीं दीखती। कहना यह है कि हिन्दी कहानी साहित्य में प्रेमचंद के बाद ऐसा कोई कहानीकार नहीं दिखाई देता जिसमें शैलेश मटियानी के समान विविध वर्गों, स्थानों और धर्मों से सम्बद्ध जीवन को, उसके वास्तविक रूप में प्रस्तुत करने की दक्षता हो।
शैलेश विविध परिवेश के भीतर से अपनी कहानियों के कथ्य का चयन करते हैं उसके अनुरूप पात्रों के चयन से लेकर उनके मासिक स्तरों का मार्मिक उद्घाटन करते हैं। उससे वे आसपास को ठीक-ठाक जाँचने-परखने की अद्भुत अन्तर्दृष्टि का परिचय देते हैं।शैलेश मटियानी ने दलित जीवन संदर्भों पर पर्याप्त कहानियाँ लिखी हैं उन कहानियों में अहिंसा, जुलूस, हारा हुआ, संगीत भरी संध्या, माँ तुम आओ, अलाप, लाटी, भँवरे की जात, आंधी से आंधी तक, परिवर्तन, आक्रोश, भय, आवरण, दो दुखों का एक सुख, चुनाव, प्रेतमुक्ति, चिट्ठी के चार अक्षर, वृत्ति, सतजुगिया, गोपुली गफूरन, गृहस्थी, इब्बू मलंग, प्यास, शरण्य की ओर आदि कहानियाँ प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं। इन कहानियों में दलित वर्ग से संबंधित चरित्र मुख्यतः तीन रूपों में चित्रित हुए हैं।
पहला-वह जो भारतीय समाज व्यवस्था की अमानवीयता से लाचार होकर समझौता करता दिखाई देता है। दूसरा-वह जो समाज व्यवस्था के प्रति आक्रोश तो व्यक्त करता है किन्तु उसका आक्रोश इतना दबा होता है कि अन्ततः टूटकर समझौते की विवशता को झेलता है। तीसरा-वह जो अपनी मान-मर्यादा एवं हितों के लिए समाज व्यवस्था से सीधे टकराता है। अतः कहने में संकोच नहीं है कि शैलेश मटियानी के कहानी साहित्य में चित्रित दलित सरोकार अपने यथार्थ रूप में व्यक्त हुए हैं जिसमें समकालीन भारतीय समाज में आए बदलाव के स्पष्ट स्वर हैं।
इनकी अहिंसा कहानी का चरित्र जगेशर दलित वर्ग से सम्बद्ध है वह शासकीय व्यवस्था से सर्वाधिक संत्रास्त है। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद अपनी पत्नी के उपचार के लिए धन एकत्रिात करता है किन्तु सरकारी अस्पतालों के कार्यरत कर्मचारियों एवं डॉक्टरों की अमानवीयता एवं भ्रष्ट आचरण के कारण वह ऑपरेशन से पूर्व ही दम तोड़ती चित्रित हुई है। वस्तुतः इस कहानी में जहाँ एक ओर दलित वर्ग की भारतीय समाज में प्रस्थिति का यथार्थ व्यक्त हुआ है वहीं इस कहानी का दलित चरित्र दलित चेतना से युक्त चित्रित हुआ है इसीलिए वह विद्रोह की आग में झुलसता तो दिखाई देता ही है इसके अतिरिक्त वह प्रतिशोध से भरकर डॉक्टर की हत्या करता भी चित्रित हुआ है।
इनकी जुलूस कहानी में भी चित्रित दलित चरित्र वर्तमान भारत की घिनौनी राजनीति से यंत्रणा पाते चित्रित हुए हैं। इस कहानी की दलित नारी चरित्र बुधा राम की विधवा माँ सर्वाधिक कष्ट पाती है क्योंकि राजनीति प्रेरित पुलिस तन्त्र के द्वारा महालक्ष्मी के दिन जुवारियों की जो धरपकड़ होती है उसमें उसका बेटा भी पुलिस द्वारा गिरफ्तार होता है। कहानीकार ने उसे अनेक प्रकार की आशंकाओं से ग्रस्त होते चित्रित किया है ”कहीं इसकी सरकारी दफ्तर की चपरासगीरी भी न चली जाए? कहाँ अगले ही महिने गौना सिर पर और कहाँ थुक्का फजीहत आ गयी।”
इनकी हारा हुआ कहानी में भी गैरदलितों की दलितों के प्रति आम धारणा का यथार्थ व्यक्त हुआ है। शैलेश की कहानियों में दलित नारी सर्वाधिक संत्रस्त दीखती है। इनकी कहानियों में जहाँ एक ओर कथा सम्राट प्रेमचंद की घासवाली कहानी की मुलिया और ठाकुर का कुआँ की गंगी जैसी प्रबुद्ध दलित नारी चरित्र हैं वहीं गैर दलितों की काम पिपासा से दंशित एवं कलंक का बोझ ढोती दलित नारी चरित्र भी है। जो तमाम प्रकार की सामाजिक उपेक्षा एवं आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद भी खुशी-खुशी संघर्ष करती चित्रित हुई है। इस दृष्टि से शैलेश की भँवरे की जात, चिट्ठी के चार अक्षर, शरण्य की ओर, और आवरण, कहानियाँ उलेख्य हैं।
इसके अलावा शैलेश के कहानी साहित्य में प्रेमचंद की सद्गति कहानी के गोंड जैसे दलित चरित्र भी हैं जो गैर दलितों की अमानवीयता एवं समाज व्यवस्था के संवेदन शून्यता के प्रति गहरा विरोध व्यक्त करते हैं। उनमें परिवर्तन कहानी का देबराम, सतजुगिया का परराम, हत्यारे का शिवचरण केवट आदि महत्त्वपूर्ण है। इनकी कहानियों में चित्रित कतिपय दलित नारी चरित्र तमाम कठिनाइयों के बावजूद महान् आदर्श प्रस्तुत करती दीखती हैं। इनके कहानी साहित्य में प्रायः चित्रित दलित वर्ग से सम्बद्ध चरित्र तमाम प्रकार की कठिनाइयों के बावजूद भी मानवीय गुणों से युक्त है। इस सम्बन्ध में श्री हृदयेश का कथन उद्धृत है – ”यों उनके कथा-संसार में … तुच्छ पेशों को चिपटाए गरीब एवं लाचार पात्र हैं, किन्तु वे मानवीय गुणों के मामले में गरीब और तुच्छ नहीं हैं।”
इसके अलावा शैलेश मटियानी की कहानियों में कतिपय नयी पीढ़ी से सम्बद्ध गैरदलित पुरुष चरित्र दलित वर्ग से सम्बन्ध नारियों से सम्बन्ध स्थापित करते चित्रित हुए हैं जिससे निश्चित ही समकालीन मूल्य परिवर्तन का संकेत मिलता है।
मटियानी जी का जन्म बाड़ेछीना गांव (जिला अलमोड़ा, उत्तराखंड में हुआ था। उनका मूल नाम रमेशचंद्र सिंह मटियानी था। बारह वर्ष की अवस्था में उनके माता-पिता का देहाँत हो गया। उस समय वे पांचवीं कक्षा के छात्र थे। इसके बाद वे अपने चाचाओं के संरक्षण में रहे किन्तु उनकी पढ़ाई रुक गयी। उन्हें बूचड़खाने तथा जुए की नाल उघाने का काम करना पड़ा। पांच साल बाद 17 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिर से पढ़ना शुरु किया। विकट परिस्थितियों के बावजूद उन्होंने हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण की। वे 1951 में अल्मोड़ा से दिल्ली आ गये। यहाँ वे ‘अमर कहानी’ के संपादक, आचार्य ओमप्रकाश गुप्ता के यहाँ रहने लगे। तबतक ‘अमर कहानी’ और ‘रंगमहल’ से उनकी कहानी प्रकाशित हो चुकी थी। इसके बाद वे इलाहाबाद गये। उन्होंने मुज़फ़्फ़र नगर में भी काम किया। दिल्ली आकर कुछ समय रहने के बाद वे बंबई चले गये।
फिर पांच-छह वर्षों तक उन्हें कई कठिन अनुभवों से गुजरना पड़ा। उनकी कहानी की दुनिया मार्जिनलाइज़्ड की दुनिया है। गरीबों की दुनिया है। वह खुद जाति व्यवस्था से पीड़ित रहे। पहाड़ से भगा दिये गये। वे भगाये गये थे इसलिए कि वे उस ढंग से क्षत्रिय भी नहीं थे। कसाई थे। इनके परिवार में कसाई का काम होता था। यह उनको तकलीफ देता था। 1956 में श्रीकृष्ण पुरी हाउस में काम मिला जहाँ वे अगले साढ़े तीन साल तक रहे और अपना लेखन जारी रखा। बंबई से फिर अल्मोड़ा और दिल्ली होते हुए वे इलाहाबाद आ गये और कई वर्षों तक वहीं रहे। 1992 में छोटे पुत्र की मृत्यु के बाद उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। जीवन के अन्तिम वर्षों में वे हल्द्वानी आ गये। विक्षिप्तता की स्थिति में उनकी मृत्यु दिल्ली के एक अस्पताल में हुई।
निराला, भुवनेश्वर, मुक्तिबोध और मटियानी इन सबके साथ जो कुछ हुआ उसको देखकर ऐसा लगता है कि हिन्दी का एक ईमानदार लेखक कितना निरीह होता है। इन सभी की ट्रेजेडी यह है कि जितने प्रतिभाशाली ये थे इतनी मान्यता उन्हें नहीं मिली, उतनी स्वीकृति नहीं मिली। उससे भी ज्यादा तकलीफ इस बात की रही कि जिनमें कम प्रतिभा थी वो लोग अपने सम्पर्कों से, साधनों से, तिकड़मों से स्थापित हो गये। और हिन्दी में यही ट्रेंड आज भी बाकायदा कायम है।
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